बहराइच चर्चा में है। वजह- दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान हिंदुओं पर हमला। 22 साल के रामगोपाल मिश्रा को प्वाइंट ब्लैंक रेंज से कई गोलियां मारकर मौत के घाट उतार दिया गया। बहराइच में सैयद सालार मसूद की मजार भी है। जी हां, वही मसूद गाजी जो तलवार की धार पर इस्लाम को पूरे भारत में फैलाना चाहता था। हिंदुओं के धर्मस्थलों को खंडित करने की नापाक सोच रखने वाला मसूद। बताया जाता है कि इसी मसूद ने महमूद गजनवी को सोमनाथ मंदिर ध्वस्त करने की सलाह दी थी। मसूद गाजी को लगता था कि वह तलवार के बल पर इस्लाम का हरा झंडा फहरा देगा। लेकिन उसको नहीं पता था कि आगे उसका सामना भगवा झंडे के सूरमा महाराजा सुहेलदेव से होने वाला है। महाराजा सुहेलदेव ने मसूद को ऐसा सबक सिखाया, जिसकी चर्चा आज भी होती है।
जब ओवैसी पहुंचे थे मसूद की कब्र पर
महमूद गजनवी के दौर में मसूद मुल्तान से दिल्ली और फिर बाराबंकी होते हुए वह बहराइच तक पहुंच गया था। जहां-जहां उसकी सेना पहुंचती थी, वहां हिंदुओं से मारकाट और धर्मांतरण का सिलसिला चल रहा था। आखिरकार उसे करारा जवाब मिलता है, महाराज सुहेलदेव से। जंग-ए-बहराइच ने मसूद गाजी को दो गज जमीन के अंदर पहुंचा दिया। बहराइच में ही उसकी मजार है, जहां इस आक्रांता को पूजने वाले मिल जाएंगे। जाहिर है ऐसे इलाके में अगर दंगाई सोच विकसित हो जाती है, तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। जुलाई 2021 में उसकी दरगाह पर सजदा करने असदुद्दीन ओवैसी भी पहुंचते हैं लेकिन पास ही मौजूद सुहेलदेव की प्रतिमा तक नहीं जाते हैं। ओवैसी मुस्लिम आक्रांता को महिमामंडित करते हैं, क्योंकि उनको मुसलमानों का मसीहा बनना है। उनको हिंदू हृदय सम्राट सुहेलदेव से क्या लेना देना।
कैसे बन गई मसूद की मजार?
सन् 1246 से 1266 ईसवी तक नसीरुद्दीन महमूद दिल्ली सल्तनत का सुल्तान था। उसी ने मसूद की मजार बनवाई थी। इसके बाद दिल्ली के सुल्तान यहां आने लगे। फिरोज शाह तुगलक भी यहां आया था और लौटने के बाद पहले से ज्यादा कट्टर हो गया था। चिश्तिया संप्रदाय से आने वाले अब्दुर रहमान रशीदी ने 17वीं सदी में फारसी भाषा में मिरात-ए-मसूदी लिखी थी। इस किताब से पता चलता है कि गाजी के पिता का नाम सालार साहू था। बाराबंकी के पास सतरिख में सालार साहू की मृत्यु हुई और यहीं पर उसकी एक मजार है। वहीं अबुल फजल ने भी आइन-ए-अकबरी में लिखा है कि मसूद गाजी महमूद गजनवी का भांजा था। ऐसी भी चर्चा होती है कि मुगल बादशाह अकबर भेष बदलकर एक बार मसूद गाजी की दरगाह पर गया था।
गजनवी से इजाजत लेकर भारत पर आक्रमण
मिरात-ए-मसूदी में मसूद का इतिहास मिलता है। इसमें बताया गया है कि महमूद गजनवी को सोमनाथ का मंदिर ध्वस्त करने की सलाह मसूद गाजी ने ही दी थी। महमूद गजनवी बचपन से ही उसकी बात को तवज्जो देता था। इसीलिए, जब उसने भारत पर आक्रमण की इजाजत मांगी और इस्लाम के प्रचार-प्रसार की बात कही, तो उसे इजाजत मिल गई। 16 साल की उम्र में सिंधु नदी को पार करते हुए उसने मुल्तान को जीत लिया। 18 महीने के अंदर ही वह दिल्ली तक पहुंच गया। अपने मामा गजनी की फ़ौज की सहायता से दिल्ली में वह छह महीने तक रहा। मेरठ के रास्ते मसूद गाजी कन्नौज पहुंचा गया। ‘Gazetteer of the Province of Oudh, Volume 1‘ के मुताबिक इस्लाम के प्रसार के मकसद से मसूद सतरिख पहुंचा। वर्तमान का बाराबंकी ही उस समय सतरिख था। उस समय यह इलाका देश के फलते-फूलते नगरों में था। ऐसे में मसूद को इस्लाम के लिए उपजाऊ जमीन जैसा नजर आया।
महाराजा सुहेलदेव ने हिंदू राजाओं को किया एकजुट
इतिहासकार इस पर एक राय नहीं हैं कि सतरिख आज की बाराबंकी वाली है या फिर अयोध्या। मसूद ने यहां चारों तरफ अपने आदमियों को भेज कर इस्लाम का प्रचार-प्रसार करने को कहा। बहराइच में अपने और अपनी फ़ौज के लिए वो सिद्धौर और अमेठी से सप्लाई मंगाता था। बहराइच और मानिकपुर के कुछ सरदारों ने इस दौरान उसको थोड़ी चुनौती दी। इसी बीच मसूद का अब्बा सालार साहू अपनी फ़ौज लेकर आ पहुंचा और उसने बेटे के लिए राह आसान कर दी। बहराइच के बगल में ही एक सूर्य मंदिर और कुंड हुआ करता था। हिन्दुओं के लिए उस जगह की काफी मान्यता थी। उसने वहां पर एक मस्जिद बनवाने का ऐलान करते हुए ‘काफिरों’ को सबक सिखाने की गीदड़भभकी दी। राजभर राजा सुहेलदेव ने ठान लिया कि मुस्लिम आक्रांता को करारा जवाब देना है। उन्होंने आस-पड़ोस के हिंदू राजाओं को एकजुट किया।
‘सुहेलदेव ने मसूद का सिर काटा या गले में तीर मारा’
जिस जगह पर मसूद गाजी की दरगाह है, वहां पर उस दौर में बालार्क ऋषि का आश्रम हुआ करता था। उनको राजा सुहेलदेव का गुरु बताया जाता है। एक रिसर्च पेपर (The Forgotten Battle of Bahraich) के मुताबिक सुहेलदेव ने या तो मसूद का सिर काट दिया या फिर उसके गले में तीर मारा था। इस रिसर्च के मुताबिक मसूद की मौत सूर्यकुंड झील (सूर्य मंदिर के पास) के पास महुए के पेड़ के नीचे हुई। बहराइच की लड़ाई में सुहेलदेव ने 21 पासी राजाओं का गठबंधन बनाकर सैयद सालार मसूद गाजी को युद्ध में शिकस्त दी। इन राजाओं में बहराइच, श्रावस्ती के साथ ही लखीमपुर, सीतापुर, लखनऊ और बाराबंकी के राजा भी शामिल थे। 1034 ईसवी में मसूद गाजी और सुहेलदेव की सेनाओं में बहराइच में भीषण जंग हुई। भारत गौरव राजा सुहेलदेव ने हिंदू सेना में जोश भर दिया। 15 दिन से ज्यादा चले युद्ध के बाद राजा सुहेलदेव गाजी के कैंप के पास पहुंचे। सुहेलदेव ने गाजी को उसके कई साथियों सहित मार गिराया। इसके बाद उसके अनुयायियों ने उसी सूर्य मंदिर वाली जगह या उसके आसपास में उसे दफना दिया। हालांकि, इस्लामी इतिहासकारों ने इस बेइज्जती को अपने इतिहास में कहीं पर स्थान नहीं दिया।
मसूद की बारात और सुहेलदेव विजयोत्सव
ब्रिटिश काल में अंग्रेज अफसर भी यह देखकर हैरान थे कि जिस गाजी मियां ने हिंदुओं से मारकाट मचाई, उसी की मजार पर हिंदू सर नवाने जाते हैं। प्रोफेसर डीसी बेली का कहना है कि ऐसा लगता है कि गाजी मियां ने उस समय के पिछड़ों का धर्मांतरण किया होगा। इसके बाद उनके मन में गाजी के प्रति ये भाव भरा गया होगा। अंग्रेज विलियम स्लीमन ने कहा था कि हिंदुओं को मौत के घाट उतारने वाले गाजी की मजार पर हिन्दू-मुस्लिम दोनों जाते हैं। हर साल मई में मसूद गाजी की मजार पर उर्स होता है। बाराबंकी की चर्चित दरगाह देवा शरीफ से गाजी मियां की बारात आने के साथ इस मेले का आगाज होता है। जिस दिन यह बारात बहराइच में मजार पर आती है, ठीक उसी दिन हिंदूवादी संगठन महाराजा सुहेलदेव विजयोत्सव मनाते हैं। जाहिर है इतिहास के पन्नों में जंग-ए-बहराइच को नए सिरे से लिखने की जरूरत है, जिसने महान हिंदू सम्राट महाराजा सुहेलदेव की विजयगाथा से लोगों को परिचित नहीं कराया। ऐसा करने पर ही उस सोच को जवाब दिया जा सकता है, जिसने बहराइच में हिंदू समुदाय के दुर्गा पूजा उत्सव के दौरान रंग में भंग मचाया।