सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह के बलिदान दिवस के अवसर पर लोग सोमवार (7 अक्टूबर, 2024) को उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं। केवल सिख ही नहीं बल्कि पूरे हिन्दू समाज के लिए ये एक महत्वपूर्ण दिन है, क्योंकि गुरु का बलिदान किसी एक संप्रदाय, क्षेत्र अथवा विचारधारा के लिए नहीं हुआ था। उन्होंने संपूर्ण भारतवर्ष और संपूर्ण सनातन संस्कृति के लिए बलिदान दिया। इस्लामी आक्रांताओं के विरुद्ध युद्ध में उनका साथ देने वाले बन्दा सिंह बहादुर को कौन नहीं जानता, जो एक हिन्दू संन्यासी हुआ करते थे और बाद में सिख योद्धा बने। गुरु की तरह ही उन्होंने भी सनातन समाज के लिए बलिदान दिया।
आज का दौर समाज में विष घोलने वाला दौर है। ये काम चंद ठेकेदार ही कर रहे हैं, इनके आका विदेश में बैठे होते हैं। अमेरिका और कनाडा की धरती से भारत को खंडित कर पंजाब को अलग करने और खालिस्तान बनाने के लिए अभियान चलाया जाता है। कट्टरपंथी तत्व सिख धर्मस्थलों की प्रबंधन समितियों में अतिक्रमण करते जा रहे हैं। खालिस्तानी आतंकियों की तस्वीरें स्वर्ण मंदिर के संग्रहालय में लगाई जाती हैं, इनके सामने लोगों को हाथ जोड़ने के लिए कहा जाता है। भारत को खंडित करने के लिए सशस्त्र युद्ध छेड़ने वाले जरनैल सिंह भिंडराँवाले को देवमनुष बता कर पेश किया जाता है।
मुग़ल आक्रांताओं के खिलाफ थी गुरु की लड़ाई
ऐसे दौर में हमें गुरु गोबिंद सिंह के जीवन को और भी अच्छे से पढ़ने की आवश्यकता है। गुरु गोबिंद सिंह जी की लड़ाई किसके विरुद्ध थी? गुरु गोबिंद सिंह के बेटों साहिबज़ादा ज़ोरावर सिंह और फतह सिंह को सरहिंद के मुग़ल सूबेदार वज़ीर खान ने ज़िंदा दीवारों में चुनवा दिया। साहिबज़ादा ज़ोरावर सिंह की उम्र जहाँ केवल 9 साल ही थी, फतह तो मात्र 7 वर्ष के ही थे। ये घटना दिसंबर 1705 की है। इसी तरह गुरु गोबिंद सिंह के बड़े बेटे अजीत सिंह दिसंबर 1704 को चमकौर के द्वितीय युद्ध में मात्र 18 वर्ष की उम्र में मुगलों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
इसी तरह साहिबज़ादा जुझार सिंह भी अपने बड़े भाई के बलिदान के बाद उन्हीं की तरह युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। ये युद्ध औरंगज़ेब की फ़ौज के खिलाफ था, मुगलों के खिलाफ था, मुग़ल सूबेदार वज़ीर खान के खिलाफ था। औरंगज़ेब कुरान की शपथ लेकर भी अपने वादे से पलट गया था और मुग़ल फौज गुरु गोबिंद सिंह का मस्तक काट कर ट्रॉफी के रूप में ले जाने के लिए बेचैन थी, इसीलिए गुरु ने इस पूरे प्रकरण का दोषी औरंगज़ेब को ही माना।
आज जो लोग हिन्दुओं और सिखों को अलग बताते हैं, सनातन एकता में खलल डालते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी ने भी एक रामायण लिखी थी। राम मंदिर के लिए सिखों ने भी संघर्ष किया है। नवंबर 1858 में निहंग सिखों ने राम मंदिर को ध्वस्त कर के बनाए गए बाबरी ढाँचे में घुस कर हवन किया था, साथ ही दीवारों पर राम नाम भी अंकित कर दिया था। इसी तरह गुरु नानक ने जिन पवित्र स्थलों का तीर्थाटन किया, उनमें अयोध्या स्थित राम मंदिर भी था। गुरु ग्रन्थ साहिब में 2500 से भी अधिक बार राम का नाम है।
दुःखों के नाश के लिए रामकथा पढ़ने की सलाह देते हैं गुरु गोबिंद सिंह
आज के एजेंडाबाज चाहते हैं कि ये बातें न तो हिन्दुओं को पता चले और न ही सिखों को। वापस आते हैं गुरु गोबिंद सिंह की रामायण पर, जिसका नाम है – रामावतार। उन्होंने 26 अध्यायों के 864 छंदों में श्रीराम की कथा का वर्णन किया। इसमें उन्होंने लव-कुश युद्ध की कथा भी बताई है। आज सिखों और हिन्दुओं, दोनों को जानना चाहिए कि श्रीराम के जीवन को लेकर गुरु गोबिंद सिंह क्या कहते हैं। उन्होंने लिखा है:
जो यह कथा सुनाई अरु गावै। दुख पाव नहीं सो नर पावै।।
रन में सदा विजय सोहि पावै। भूत प्रेत डाकिनी नसावै।।
अर्थात, गुरु गोबिंद सिंह कहते हैं कि भगवान श्रीराम की कथा जो भी सुनता या गाता है, वह व्यक्ति कभी दुःखों का सामना नहीं करता। साथ ही रामकथा सुनने वालों को युद्ध में हमेशा विजय प्राप्त होता है। साथ ही गुरु गोबिंद सिंह लिखते हैं कि भूत, प्रेत और अन्य बुरी शक्तियाँ रामकथा सुनने वालों से दूर भागती हैं। ये था गुरु गोबिंद सिंह का भगवान श्रीराम के प्रति श्रद्धा और उनकी भक्ति। रामकाव्य भारत की एक संपूर्ण कृति है, श्रीराम के जीवन में सारे मूल्य एवं आदर्श मिल जाते हैं। और सिख पंथ भी सनातन संस्कृति का ही हिस्सा है, फिर गुरु भला कैसे रामकथा न कहते?
श्रीराम ही नहीं, गुरु ने श्रीकृष्ण की कथा भी रची
श्रीराम के बाद गुरु गोबिंद सिंह ने श्रीकृष्ण की कथा भी अपने शब्दों में रची है। 2462 छंदों में ये उनकी सबसे बड़ी रचना है। गुरु गोबिंद सिंह का पूरा जीवन मुग़ल आतताइयों से युद्ध लड़ते हुए बीता। यही कारण है कि चाहे श्रीराम की कथा हो या श्रीकृष्ण की, गुरु ने हमेशा युद्ध का वर्णन एकदम मौलिक तरीके से किया, क्योंकि युद्ध उनका स्वयं का अनुभव था। किस तरह श्रीकृष्ण गायों के साथ खेलते थे, माखन चुरा कर खा जाते थे। वहीं उन्होंने श्रीकृष्ण के जीवन के अन्य आयामों को भी लिया है। जैसे, वो लिखते हैं:
दशम कथा भगौत की भाखा करी बनाई।
अवर बासना नाहीं प्रभ धरम जुद्ध के चाइ।।
अर्थात, भागवत कथा की बात करते हुए गुरु गोबिंद सिंह कहते हैं कि अब उनके मन में और कोई इच्छा नहीं है, सिवाए धर्मयुद्ध के। यानी, महाभारत के धर्मयुद्ध को वो मुगलों के खिलाफ अपने संघर्ष से जोड़ते हैं। आज उन्हीं मुगलों का गुणगान करते हुए कहा जाता है कि सिख तो हिन्दुओं से अलग हैं, उन्हें अपने ही देश को खंडित कर देना चाहिए। इतना ही नहीं, गुरु गोबिंद सिंह को भविष्य में होने वाले भगवान विष्णु के कल्कि अवतार पर भी पूरा विश्वास था। पाप के विनाश के बाद नव-जगत के निर्माण को उन्होंने साहित्य के जरिए उकेरा।
देवी माँ की भी आराधना करते थे गुरु गोबिंद सिंह
अभी नवरात्री चल रही है, ऐसे में गुरु गोबिंद सिंह के बारे में अगर ये न बताया जाए कि वो देवी माँ के भी अनन्य भक्त थे, तो बात अधूरी रह जाएगी। गुरु गोबिंद सिंह ने पंजाबी भाषा में एक ही काव्य की रचना की है और वो है – चंडी दी वार। उन्होंने स्पष्ट लिखा है जो लोग माँ दुर्गा का चरित्र को पढ़ते हैं वो फिर से भव-बंधन में नहीं पड़ते, अर्थात जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
महान गुरु गोबिंद सिंह श्रीराम, श्रीकृष्ण और माँ दुर्गा की आराधना करते हैं, ऐसे में आज के एजेंडाधारी किस मुँह से सिखों को भड़काते हैं? उन्हें ‘जय श्री राम’ के नारे से दिक्कत होती है, मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि मुक्ति अभियान से दिक्कत होती है और नवरात्रि से भी दिक्कत होती है।