भारत के इतिहास में मध्यकाल का कालखंड एक सांस्कृतिक संक्रमण के दौर से गुजर रहा था। जहाँ एक ओर मुगलों द्वारा हिन्दू मंदिरों, इमारतों इत्यादि को तोड़कर भारतीय संस्कृति को जबरन नष्ट किया जा रहा था, तो इसी कालखंड में हिंदी साहित्य में ‘जायसी’ जैसे कवि हुए हैं, जो मुस्लिम होते हुए भी अपनी रचनाओं में भारतीय संस्कृति, परंपराओं आदि को बहुत महत्व देते दिखाई देते हैं। मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में, जिसे हिंदी साहित्य में भक्तिकाल की संज्ञा दी जाती है, जायसी भी इसी समय साहित्य सृजन कर रहे थे। सगुण और निर्गुण भक्ति की दो धाराएँ इस समय दिखाई देती हैं। जायसी निर्गुण भक्ति धारा की प्रेमाश्रयी शाखा के कवि थे। जायसी के कवि कर्म को जानने से पूर्व उनके जन्म, पृष्ठभूमि आदि के विषय में चर्चा कर लेना भी अपेक्षित है।
जायसी के जन्म के बारे में कोई निश्चित तिथि हमें नहीं मिलती है। अनेक विद्वान यह मानते हैं कि इनका जन्म 1397 ई. से 1494 ई. के बीच किसी समय हुआ होगा। यह जन्मतिथि प्रामाणिक भी प्रतीत होती है क्योंकि एक स्थान पर जायसी स्वयं लिखते हैं:
“भा आवतार मोर नौ सदी।
तीस बरिख ऊपर कवि बदी।”
इन पंक्तियों में भी किसी निश्चित तिथि की जानकारी तो नहीं प्राप्त होती बल्कि इतना ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका जन्म संभवतः 800 हिजरी एवं 900 हिजरी के मध्य, अर्थात् सन् 1397 ई॰ और 1494 ई॰ के बीच किसी समय हुआ होगा तथा लगभग तीस से पैंतीस वर्ष की आयु हो जाने पर उन्होंने काव्य-रचना का प्रारम्भ किया होगा।
कहाँ हुआ था मलिक मोहम्मद जायसी का जन्म
इनके जन्मस्थान को लेकर भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वान इनकी जन्मभूमि गाजीपुर मानते हैं किंतु इसके कहीं प्रमाण नहीं मिलते। किन्तु अनेक स्थलों पर जायसी स्वयं ‘जायस नगर’ का जिक्र करते हैं। उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जायस नगर नामक स्थान आज भी स्थित है। इस स्थान का पुराना नाम उद्यान नगर बताया जाता है। चूँकि यह अवधी भाषा का क्षेत्र है और जायसी की रचनाएँ भी ठेठ अवधी में ही हमें मिलती हैं, तो जायसी की जन्मभूमि रायबरेली के इसी जायस नगर को मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। चूँकि जायसी स्वयं लिखते हैं:
“जायस नगर मोर अस्थानू।
नगरक नाँव आदि उदयानू।
तहाँ देवस दस पहुने आएऊँ।
भा वैराग बहुत सुख पाएऊँ॥”
इन पंक्तियों को पढ़कर तो यही प्रतीत होता है कि जायसी की जन्मभूमि यहीं थी और इन्होंने अपना उपनाम भी अपनी जन्मभूमि से प्रेरित होकर ही धारण किया होगा। जायसी इस नगर को धर्मस्थान भी मानते हैं। एक जगह वह लिखते हैं, “जायस नगर धरम अस्थानू। तहवाँ यह कवि कीन्ह बखानू।” इसे धर्मस्थान जायसी ने क्यों कहा, इस सम्बंध में कई जनश्रुतियाँ भी प्रचलित हैं।
उद्दालक मुनि और जायसी का कनेक्शन
एक जनश्रुति के अनुसार, वहाँ उपनिषदकालीन उद्दालक मुनि का कोई आश्रम था। संभवतः इसीलिए जायसी ने इसे धर्मस्थान कहा होगा। एक कारण यह भी हो सकता है कि जायसी ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘पद्मावत’ यहीं लिखी थी और इसलिए वह अपनी इस जन्मभूमि को धर्मस्थान मानते हों। वजह कुछ भी हो, किंतु यहाँ एक बात स्पष्ट हो जाती है कि जायसी मुस्लिम होते हुए भी उपनिषदकालीन उद्दालक मुनि के कारण इस स्थान को धर्मस्थान कह रहे हैं, जबकि यही वह समय था जब एक ओर मुगल शासकों ने अनेक ऋषियों की तपःस्थलियों को नष्ट करने का प्रयास किया। जायसी का जन्म अवश्य भारत में हुआ, किन्तु वह मूलतः यहीं के थे या ईरानी, यह भी एक बड़ा प्रश्न है। हम जानते हैं कि इनका पूरा नाम मलिक मुहम्मद जायसी था। इनके नाम के पहले ‘मलिक’ उपाधि लगी रहने के कारण ही कहा जाता है कि उनके पूर्वज ईरान से आए थे और वहीं से उनके नामों के साथ यह जमींदार सूचक पदवी लगी आ रही थी, किन्तु उनके पूर्वजों के नामों की कोई तालिका अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। यहाँ यह चर्चा करना इसलिए महत्वपूर्ण है कि ईरानी मूल के होने के बावजूद जायसी ने भारत की संस्कृति, मान्यताओं और परंपराओं को अपनी रचनाओं में सम्मान की दृष्टि से स्थान दिया है।
‘पद्मावत’ जायसी की वह रचना है जिसने जायसी का नाम इतिहास में सदैव के लिए अमर कर दिया। अपनी इस रचना में जायसी ने भारतीय संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान आदि तत्वों को जो बखान किया है, उसे पढ़कर संभवतः लोग यह नहीं कहेंगे कि यह रचना मध्यकाल में किसी मुस्लिम कवि ने लिखी होगी, किन्तु सत्य यही है। इसे आदि सनातन की खूबसूरती ही कहा जाएगा कि सांस्कृतिक उथल-पुथल से भरे इस समय में विदेशी मूल का एक कवि इसकी प्रशंसा कर रहा है। उदाहरण के लिए अपनी कृति में एक स्थान पर जायसी चारों वेदों का वर्णन करते हुए उनकी महत्ता प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं:
“चतुर वेद मत सब ओहि पाहां।
रिग, जजु, साम अथर बन माहां।।
वेद वचन मुख सांच जो कहा।
सो जुग अस्थिर होइ रहा।।”
हालाँकि जायसी एक ऐसे कवि थे, जो समन्वयवादी दृष्टि रखते थे। चूँकि वे सूफी दर्शन से प्रभावित थे, अतः स्वाभाविक है कि वे भी ‘इश्क मजाजी’ (इहलौकिक प्रेम) से ‘इश्क हकीकी’ (पारलौकिक प्रेम) पर जोर देते हैं। किन्तु जब वेदों के महत्व को दर्शाना हो या भारतीय दर्शन की बात हो, हर जगह जायसी ने भारतीय या यों कहें कि हिन्दू संस्कृति को अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया है। “परगट गुपुत सो सरब बियापी” जैसी पंक्तियाँ उसी हिन्दू मान्यता को परिलक्षित करती हैं, जिसमें माना जाता है कि ईश्वर सभी प्राणियों में, कण-कण में व्याप्त है।
उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति में ईश्वर की उपासना के प्रति गहरी आस्था व्यक्त की गई है। जायसी ने इस सांस्कृतिक मूल्य को भी अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। उनकी काव्य नायिका पद्मावती बसंत पंचमी के शुभ अवसर पर शिव जी की पूजा करते समय अपने आराध्य देवता शिव के चरणों में गिरकर प्रार्थना करती है। इस अर्चना और प्रार्थना का फल यह होता है कि पद्मावती को शीघ्र ही रत्नसेन के आगमन का शुभ समाचार मिल जाता है। कुल मिलाकर देखें, तो इस तरह के अनेक प्रसंग एवं घटनाएं इनके काव्य में परिलक्षित होती हैं, जहाँ भारतीय संस्कृति के तत्व प्रमुखता से आते हैं।
जायसी ने खुद को क्यों कहा ‘एक नयन कवि’
भारतीय परंपराओं को मुखर रूप से अपने काव्य में उठाने वाले जायसी के व्यक्तिगत जीवन से जुड़े कुछ अन्य प्रसंग भी मिलते हैं। कहा जाता है कि जायसी कुरूप और एक आँख से थे। कई लोगों का मानना है कि वह जन्म से ही ऐसे थे, पर अधिकतर लोगों का मानना है कि चेचक के प्रकोप से उनका शरीर विकृत हो गया था। हालाँकि अपने काने होने का उल्लेख कवि ने स्वयं भी किया है—”एक नयन कवि मुहमद गुनी”। उनकी दाहिनी आँख फूटी थी या बायीं आँख, इसका उत्तर शायद इस दोहे से मिलेगा—”मुहमद दिसि तजा, एक सरवन एक आंखि।” इससे लगता है कि बाएं कान से भी उन्हें कम सुनाई पड़ता था।
जायस नगर में एक प्रसंग प्रसिद्ध है कि जायसी एक बार शेरशाह के दरबार में गए। वहाँ शेरशाह को उनके भद्दे चेहरे को देखकर हँसी आ गई। किन्तु जायसी को इससे बिल्कुल बुरा नहीं लगा, बल्कि उन्होंने अत्यंत शांत भाव से पूछा, “मोहि कां हंससि, कि कोहरहि?” अर्थात् तू मुझ पर हँसा या उस कुम्हार (गढ़ने वाले ईश्वर) पर? इस पर शेरशाह ने लज्जित होकर क्षमा मांगी। वास्तव में जायसी के जीवन से जुड़े ऐसे किस्से ही उन्हें महात्मा भी बनाते हैं।
इस तरह, भारत एवं इसकी संस्कृति, यहाँ की प्राचीन परंपराओं, विश्वासों, मान्यताओं में गहरी आस्था रखने वाले जायसी की मृत्यु 1542 ई. में हुई। कहा जाता है कि इनका निधन अमेठी के आस-पास जंगलों में हुआ था। इनकी मृत्यु के संबंध में कहा जाता है कि एक दिन अमेठी के राजा को शिकार खेलते समय सिंह की गर्जना सुनाई दी। राजा ने अपने सैनिकों से कहा कि यह गर्जना किसी सामान्य सिंह की नहीं, बल्कि किसी महान पुरुष की मृत्यु का संकेत है। जब राजा ने सिंह की गर्जना की दिशा में खोज की, तो पता चला कि मलिक मुहम्मद जायसी का वहीं जंगल में निधन हो गया था। जायसी के जीवन और मृत्यु से जुड़े इस प्रकार के कई किस्से हमें मिलते हैं, जो उनके संतत्व और महात्म्य की ओर संकेत करते हैं। उनका जीवन सादगी, धार्मिक आस्था, और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पण का प्रतीक था।