1947 में जब देश का बंटवारा हो रहा था तो सिर्फ नईं सीमाएं ही नहीं खींची जा रही थी बल्कि खजाना, बग्घी व हाथी जैसे सामानों के सा फौज का भी बंटवारा किया जा रहा था, सैनिकों को अपना देश चुनने की स्वतंत्रता दी गई थी और बड़ी संख्या में मुस्लिम सैनिक पाकिस्तान जा रहे थे। इस बीच कुछ मुस्लिम सैनिक ऐसे भी थे जिन्होंने पाकिस्तान जाने की बजाय भारत में रहना चुना था। ब्रिगेडियर उस्मान भी भारत में रहने वाले सैनिकों में शामिल थे, उन्हें पाकिस्तान ले जाने के लिए जिन्ना और लियाकत अली ने तरह-तरह के ऑफर भी दिए लेकिन उनके लिए उनका मुल्क, भारत किसी भी सम्मान से बड़ा था और वे ना सिर्फ भारत में रहे बल्कि भारत की रक्षा करते हुए अपना सर्वोच्च बलिदान भी दिया।
उस्मान को पुलिसकर्मी बनाना चाहते थे पिता
उस्मान का जन्म 15 जुलाई 1912 को मऊ जिले के बीबीपुर गांव में हुआ था। उस्मान के पिता काज़ी मोहम्मद फारूक पुलिस अफसर थे और वे बनारस के कोतवाल भी रहे थे, फारूक को ब्रिटिश सरकार ने खान बहादुर का खिताब दिया था। उस्मान बचपन में हकलाते थे इसलिए पिता को लगता था कि वे सिविल सेवाएं में नहीं जा पाएंगे तो पिता उन्हें पुलिस में भर्ती कराना चाहते थे। मेजर जनरल वीके सिंह अपनी किताब ‘Leadership in the Indian Army: Biographies of Twelve Soldiers’ में लिखते हैं, “फारूक, उस्मान को पुलिस में भर्ती करवाने के मकसद से पुलिस अधिकारी के पास ले गए, संयोग से वो पुलिस अधिकारी भी हकलाता था और जब अधिकारी ने उस्मान से कुछ सवाल पूछे तो उन्होंने हकलाते हुए जवाब दिए इससे पुलिस अधिकारी चिढ़ गया उसे लगा कि बच्चा उसका मजाक बना रहा है।” उस्मान के पिता का उन्हें पुलिस में भर्ती करवाने का सपना टूट चुका थे और वे निराश थे लेकिन उस्मान निराश नहीं थे क्योंकि वे तो हमेशा ही सेना में जाना चाहते थे।
जिन्ना के ऑफर के बावजूद भारत में रहे उस्मान
1924 में तब के यूनाइटेड प्रोविंस और आज के उत्तर प्रदेश के एक गांव में 12 साल के उस्मान गली से जा रहे थे। एक जगह पहुंचने पर उन्होंने ने देखा कि कुएं के आसपास भीड़ जमा थी। देखा तो पता चला कि एक लड़का कुएं में गिर गया है। उस्मान ने आव देखा ना ताव सीधा कुएं में छलांग लगा दी और उस लड़के की जान बचा ली। उस्मान ने सेना में शामिल होने के लिए 1932 में आवेदन किया और वे सैंडहर्स्ट के लिए चुन लिए गए, तब तक इंडियन मिलिटरी अकैडमी नहीं बनी थी और ब्रिटेन के सैंडहर्स्ट में सैनिकों का प्रशिक्षण होता था। सैंडहर्स्ट से पास आउट होने के बाद उस्मान को मार्च 1935 में 10 बलूच रेजिमेंट की 5वीं बटालियन में भेज दिया गया। दूसरे विश्व युद्ध के आखिरी दौर में उस्मान को 16/10 बलूच में सेकेंड-इन-कमांड के रूप में तैनात किया गया था, उनकी बटालियन तब बर्मा के अराकान में थी और 25 भारतीय डिवीजन के तहत 51 इन्फैंट्री ब्रिगेड का हिस्सा थी। बीतते समय के साथ ब्रिटेन ने भारत को आज़ादी देने के एलान कर दिया और देश में बड़े पैमाने पर दंगे शुरु हो गए। जब प्रशासन दंगे संभालने में नाकाम रहा तो सेना को बुलाया गया और तब दूसरी एयरबोर्न डिवीजन में तैनात उस्मान ने मुल्तान, लाहौर, अंबाला और रावलपिंडी जैसी जगहों पर सैनिकों भेजा और दंगों पर काबू पाने की कोशिश में जुटे रहे।
समय के साथ बंटवारे की भीषण त्रासदी का दौर भी आया और उस समय सैनिकों को भारत में रहने या पाकिस्तान जाना चुनने को दिया गया था। वरिष्ठ मुस्लिम अधिकारी होने के नाते लोगों को लग रहा था कि उस्मान पाकिस्तान चले जाएंगे लेकिन उन्होंने अपने देश में रहना चुना। मेजर जनरल वीके सिंह लिखते हैं, “मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खान ने उस्मान से बात कर उन्हें अपना मन बदलने को कहा। उन्हें जल्दी से जल्दी पदोन्नति देने का लालच दिया गया लेकिन वे अपने फैसले पर डटे रहे।”
पाकिस्तान का कश्मीर पर हमला
आजादी के तुरंत बाद अक्टूबर में पाकिस्तान की तरफ से कश्मीर पर हमला कर दिया गया। जम्मू और कश्मीर इन्फैंट्री की चौथी बटालियन मुजफ्फराबाद में तैनात थी और इसमें मुसलमानों की दो और डोगराओं की दो कंपनियां थीं। मेजर जनरल वीके सिंह लिखते हैं, “22 अक्टूबर को मुसलमानों ने डोगरा पर हमला किया और उन्हें मार डाला, जिससे पाकिस्तान से कश्मीर में घुसने वाले हमलावरों के लिए रास्ता खुल गया।” कबाइली और उनके भेष में आए पाकिस्तानी सैनिक 26 अक्टूबर तक श्रीनगर के बाहरी इलाकों में पहुंच गए थे। 27 अक्टूबर से भारत ने अपनी सेना कश्मीर भेजनी शुरू कर दी और 1 सिख, 1 पैरा कुमाऊं, 50 पैरा ब्रिगेड जैसे कई बटालियन को इस युद्ध में भेजा गया था। 7 नवंबर को राजौरी पर दुश्मनों ने कब्जा कर लिया और 30,000 हिंदुओं को मारा गया, घायल किया गया और उनका अपहरण कर लिया गया। ब्रिगेडियर उस्मान को 77 पैरा ब्रिगेड से ट्रांसफर कर 50 पैरा ब्रिगेड का कमांडर बना दिया गया था और वे नौशेरा में डटे हुए थे।
झंगड़ पर नहीं हो सका पाकिस्तानियों का कब्जा
पाकिस्तानियों ने जिन्ना को 25 दिसंबर को बर्थडे गिफ्ट में झंगड़ देने की नियत से 24 दिसंबर को झंगड़ पर हमला कर उसे घेर लिया और उनका अगला लक्ष्य नौशेरा था। दुश्मनों ने नौशेरा को घेरना शुरु कर दिया और जनवरी 1948 के पहले हफ्ते में नौशेरा जाने वाली सड़कों पर पाकिस्तानियों का कब्जा हो गया था। 4 जनवरी को उस्मान ने अपनी बटालियन को आदेश दिया कि वो झंगड़ रोड पर भजनोआ से कबाइलियों को हटाना शुरू करें लेकिन बगैर तोपखाने के किया गया ये हमला सफल नहीं हुआ और कबाइली अपनी जगह पर बने रहे। इस हमले को रोकने में सफल रहने से दुश्मनों के हौसले बढ़ गए और उन्होंने उसी शाम दक्षिण पश्चिम से नौशेरा पर हमला कर दिया लेकिन भारतीय सैनिकों ने उनका हमला नाकाम कर दिया, दो दिन बाद उन्होंने उत्तर पश्चिम से दूसरा हमला बोला और उसी शाम करीब 5,000 लोगों ने एक और हमला नौशेरा पर किया लेकिन कोई भी हमला सफल नहीं रहा और भारतीयों सैनिकों ने अपनी बहादुरी के दम पर पाकिस्तानियों को नौशेरा पर कब्जा नहीं करने दिया।
उस्मान ने ब्रिगेड में ‘जय हिंद’ कहने की शुरुआत की
मेजर जनरल वीके सिंह लिखते हैं, “नौशेरा के आस पास दुश्मन का कब्जे होने के चलते 50 पैरा ब्रिगेड पर हमले का खतरा बना हुआ था और वहां तैनात सैनिकों का मनोबल टूटा हुआ था। विभाजन के भयंकर सांप्रदायिक उन्माद के बाद कुछ सैनिकों को अपने मुस्लिम कमांडर की वफादारी पर भी भरोसा नहीं था।” वे लिखते हैं, “उस्मान को ना सिर्फ अपने दुश्मनों के इरादों को ध्वस्त करना था बल्कि अपने सैनिकों का भी विश्वास जीतना था। उनके शानदार व्यक्तित्व, व्यक्ति प्रबंधन और पेशेवर रवैये ने कुछ ही दिनों में हालात बदल दिए। उन्होंने ब्रिगेड में ‘जय हिंद’ अभिवादन की शुरुआत की और निर्देश दिया कि सभी आदेश और ब्रीफिंग सभी कमांड स्तरों पर हिंदी में हों।”
करियप्पा ने मांगा उस्मान से तोहफा
पश्चिमी कमान का चार्ज लेने के बाद जनवरी 1948 में लेफ्टिनेंट जनरल के.एम. करियप्पा ने मेजर एस.के. सिन्हा के साथ नौशेरा का दौरा किया। उस्मान ने उनका स्वागत किया और ब्रिगेड के सैनिकों से उनको मिलवाया। जब करियप्पा वापस लौटने लगे तो वे उस्मान की तरफ मुड़े और बोले मुझे आपसे एक तोहफा चाहिए। करियप्पा, उस्मान से बोले, “मैं चाहता हूँ कि आप नौशेरा के पास के सबसे ऊंचे इलाके कोट पर कब्जा करें क्योंकि दुश्मन वहां से नौशेरा पर हमला करने की योजना बना रहा है।” उस्मान ने अगले कुछ दिनों में नौशेरा से 9 किलोमीटर उत्तर पूर्व में स्थित कोट पर कब्जा करना का वादा कर दिया। कोट दुश्मनों के लिए ट्रांजिट कैप की तरह काम काम करता क्योंकि यह उनके राजौरी से सियोट के रास्ते में पड़ता था।
ऑपरेशन ‘किपर’ और कोट पर भारत का कब्जा
उस्मान ने अपने वादे के मुताबिक, कोट पर कब्जा करने के लिए ऑपरेशन शुरू कर दिया। इस ऑपरेशन का नाम ‘किपर’ रखा गया। यह नाम करियप्पा से प्रेरित था क्योंकि उन्हें सैनिक हलकों में ‘किपर’ नाम से ही जाना जाता था। उन्होंने कोट पर दो बटालियनों के साथ दो तरफा हमला बोल दिया। उस्मान इस हमले को अप्रत्याशित तौर पर अंजाम देना चाहते थे वे चाहते थे कि पाकिस्तानियों को यह आभास दिया जाए कि हमला झंगड़ पर हो रहा था। 3 पैरा ने दाईं ओर से पथरडी और उपर्ला डंडेसर पर कब्जा करना और 2/2 पंजाब को बाईं और कोट पर कब्जा करना था। इसके साथ ही, वायुसेना ने जम्मू एयरबेस से उड़ान भर कर इस हमले को एयर सपोर्ट दिया।
31 जनवरी की देर रात 3 पैरा ने यह हमला शुरु किया गया था और भारतीय सैनिकों की मंशा था कि 1 फरवरी अल सुबह को पाकिस्तानियों को सरप्राइज दिया जाए लेकिन बीच में एक गांव में कुत्तों ने भोंक कर दुश्मनों को सावधान कर दिया गया। भारतीय सैनिकों ने ‘बोल श्री छत्रपति शिवाजी महराज की जय’ बोलते हुए कबाइलियों पर हमला कर दिया। वहीं, दूसरी ओर कोट पर 1 फरवरी 1948 को सुबह 6:30 बजे हमला शुरु हुआ और 7 बजे तक लगा कि भारत ने कोट पर कब्जा कर लिया है लेकिन थोड़े देर में कबाइलियों मे जवाबी हमला कर दोबारा से कोट पर कब्जा कर लिया। हालांकि, ब्रिगेडियर उस्मान को इसका अंदेशा था और उन्होंने पहले ही दो कंपनी रिजर्व रखी थी। उन्हें मोर्चे पर भेजा गया और 10 बजकर 10 मिनट पर कोट पर भारतीय सेना का कब्जा हो चुका था। यह जीत भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हुई क्योंकि कबाइलियों का नौशेरा का सप्लाई रूट कट चुका था।
‘नौशेरा का शेर’ बने उस्मान
6 फरवरी 1948 को जम्मू-कश्मीर ऑपरेशन की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक लड़ाई नौशेरा में लड़ी गई थी। उस समय उस्मान 5 बटालियनों का नेतृत्व कर रहे थे और वे सुबह 6 बजे कलाल पर हमला करने वाले थे। उन्हें गुप्त सूचना मिली की दुश्मन भी उसी दिन नौशेरा पर हमला करने की योजना बना रहा है। सुबह 6 बजकर 40 मिनट पर कबाइलियों ने हमला कर दिया जिसमें कुल करीब 11,000 लोगों ने हिस्सा लिया था। 20 मिनट तक गोलाबारी के बाद करीब 3-3 हजार लोगों ने तेनधर और कोट पर हमला बोल दिया और करीब 5,000 पठानों ने आसपास के कई इलाकों में हमला कर दिया। उस्मान को हमले की आशंका तो थी लेकिन इतनी बड़ी संख्या में दुश्मनों को देखकर वे भी अचंभित रह गए। तेनधर में हमलावरों ने सुबह-सुबह सैनिकों पर हमला दिया और 1 राजपूत की पलटन नंबर 2 ने इस हमले का सामना किया। 27 लोगों की इस पिकेट में आखिरी बचे सैनिक से पहले मदद पहुंची और तब स्थिति को बदला जा सका और तेनधार दुश्मनों के हाथों में जाने से बच गया। कई तरफ से हमला होने के बाद भी भारतीय सैनिक पूरी बहादुरी से दुश्मनों के सामने डटे रहे और पश्चिम व दक्षिण-पश्चिम से हुए 5,000 पठानों के हमले को भी नाकामयाब कर दिया गया। इस हार के बाद पठान पीछे चले गए और इस लड़ाई का रुख बदल गया। इस लड़ाई के बाद उस्मान को नौशेरा का शेर कहा जाने लगा था।
ब्रिगेडियर उस्मान की ‘बालक सेना’
इस अभियान में ब्रिगेडियर उस्मान द्वारा बनाई गई ‘बालक सेना’ की भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस्मान ने नौशेरा में अनाथ हो गए 6 से 12 साल के बच्चों को शामिल कर इस सेना का निर्माण किया था और उनकी शिक्षा और ट्रेनिंग की व्यवस्था की थी। इन बच्चों के लिए रहने की जगह और भोजन का इंतजाम किया गया था। नौशेरा की लड़ाई के दौरान इस सेना का इस्तेमाल संदेश पहुंचाने के लिए किया गया था। लड़ाई खत्म होने के बाद इनमें से 3 बालकों को बहादुरी दिखाने के लिए सम्मानित किया गया और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें सोने की घड़ियां ईनाम में दी थीं।
उस्मान ने सैनिकों को दिया जीत का श्रेय
नौशेरा की लड़ाई के बाद उस्मान का रातोंरात हर जगह नाम हो गया और वे देश के हीरो बन गए थे। इसके बाद पाकिस्तान ने उनके सिर पर 50,000 रुपयों का इनाम रखा, शायद वे पहले सैनिक थे जिन पर पाकिस्तान ने इनाम रखा था। जेएके डिवीजन के जनरल ऑफिसर कमांडिंग मेजर जनरल कलवंत सिंह ने नौशेरा की लड़ाई की सफलता का पूरा सेहरा ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान के सिर पर बांध दिया। इसकी जानकारी जब उस्मान को हुई तो उन्होंने कलवंत सिंह को लिखा कि इस जीत का श्रेय सैनिकों को मिलना चाहिए जिन्होंने इतनी बहादुरी से लड़कर देश के लिए अपनी जान दी ना कि ब्रिगेड के कमांडर के रूप में उन्हें इसका श्रेय मिलना चाहिए।
झंगड़ पर कब्जे की कोशिश
नौशेरा की जीत के बाद झंगड़ पर कब्जा करने की कोशिश की शुरु हुई है। इस ऑपरेशन को तीन हिस्सों में बांटा गया जिसमें दुश्मन की सेना की ताकत का अनुमान लगाना, 1-4 मार्च के बीच अंबली धर व कमन गोश गाला पर कब्जा करना और तीसरे हिस्से में ‘ऑपरेशन विजय’ के तहत 5-18 मार्च के बीच झंगड़ पर कब्जा करना शामिल था। उस्मान के नेतृत्व में 50 पैरा ब्रिगेड को अंबली धर पर कब्जे का निर्देश दिया गया था जो बिना किसी दिक्कत के पूरा हो गया। 5 मार्च तक 19 इनफैंट्री ब्रिगेड ने कमन गोश गाला पर कब्जा कर लिया। 10 मार्च 1948 को मेजर जनरल कलवंत सिह ने झंगड पर फिर से कब्जा का आदेश दिया था।
ब्रिगेडियर उस्मान का मशहूर आदेश
इसके बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने अपने सैनिकों को वो मशहूर आदेश दिया था जिसमें उन्होंने लॉर्ड मैकाले की प्रसिद्ध कविता ‘होराटियस’ का जिक्र किया था। उन्होंने लिखा था, “झंगड़ पर फिर से कब्जा करने के लिए हमारी योजना और तैयारी को परखने के लिए अब समय आ गया है। मुझे आप सभी पर पूरा भरोसा है कि आप 24 दिसंबर को खोई जमीन को फिर से लेने के लिए पूरी कोशिश करेंगे।” उन्होंने लिखा, “हमारे देशवासियों की उम्मीदें और आशाएं हमारे प्रयासों पर लगी हुई हैं, हमें उन्हें निराश नहीं करना चाहिए। भारत आपसे अपना कर्तव्य पूरा करने की उम्मीद करता है।”
‘ऑपरेशन विजय’ और झंगड़ पर भारत का कब्जा
ऑपरेशन विजय 12 मार्च को शुरु होना था लेकिन बारिश की वजह से यह दो दिन टल गया। भारतीय सेना ने पराक्रम दिखाते हुए 18 मार्च को झंगड़ पर फिर कब्जा कर लिया था। जनरल वीके सिंह ने लिखा है, “भारतीय सेना के हाथ से दिसंबर 1947 में झंगड़ निकल जाने के बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने प्रण किया था कि वो तब तक पलंग पर नहीं सोएंगे जब तक झंगड़ दोबारा भारतीय सेना के नियंत्रण में नहीं आ जाता।” उन्होंने लिखा है, “झंगड़ पर दोबारा कब्जे के बाद उनके लिए पलंग मंगवाया गया। ब्रिगेड मुख्यालय पर कोई पलंग उपलब्ध नहीं थी इसलिए पास के एक गांव से पलंग उधार लिया गया और ब्रिगेडियर उस्मान उस रात उस पर पलंग पर सोए।”
जन्मदिन से 12 दिन पहले शहीद हुए ब्रिगेडियर उस्मान
झंगड़ पर कब्जे के बाद 3 महीने तक सेना शहर की रक्षा के लिए वहीं रूकी रही जबकि 19 इनफैंट्री ब्रिगेड को वापस नौशेरा भेज दिया गया। सेना ने अगले 3 महीने सुरक्षा को मजबूत करने और दुश्मन के हमलों को नाकाम करने में बिताए। 50 पैरा ब्रिगेड के अग्रिम मोर्चे पर तैनात जवानों पर छोड़कर शेष जवान खुले में छावनी में रहते थे। करिश्माई ब्रिगेडियर उस्मान अपने 36वें जन्मदिन से 12 दिन पहले 3 जुलाई 1948 को शहीद हो गए।
उनकी शहादत को लेकर मेजर जनरल वीके सिंह ने लिखा है, “उस्मान हर शाम को साढ़े 5 बजे बैठक लेते थे उस दिन बैठक आधे घंटे पहले शुरु हुई जल्दी खत्म हो गई। 5 बज कर 45 मिनट पर कबाइलियों ने ब्रिगेड मुख्यालय पर गोले बरसाने शुरू कर दिए। उस्मान इससे बचने के लिए सिग्नलर्स के बंकर को ऊपर एक चट्टान के पीछे चले गए। भारतीय सेना ने कबाइलियों की ‘आर्टलरी ऑब्जरवेशन पोस्ट’ को निशाना बनाया जिसके बाद फायर आना बंद हो गया।”
मेजर जनरल वीके सिंह ने आगे लिखा है, “गोलाबारी रुकने के बाद उस्मान ब्रिगेड कमांड की पोस्ट की तरफ बढ़ने लगे। मेजर भगवान सिंह और कैप्टन एस.सी. सिन्हा उनके पीछे चल रहे थे। कुछ कदम जाने पर भगवान सिंह ने एक गोले की आवाज सुनी, तब तक उस्मान कमांड पोस्ट के दरवाज़े पर पहुंच गए थे और वहां रुक कर सिग्नल वालों से बात कर रहे थे। तभी 25 पाउंड का एक गोला पास की चट्टान पर गिरा और उसके उड़ते हुए टुकड़े ब्रिगेडियर उस्मान के शरीर में धंस गए और वे वहीं पर वीरगति को प्राप्त हो गए।”
उस्मान की अंतिम यात्रा में शामिल हुए प्रधानमंत्री नेहरू
उस्मान की शहादत के बाद पूरी टुकड़ी शोक में डूब गई, नम आंखों से सैनिक उन्हें विदाई दे रहे थे। उनके पार्थिव शरीर को दिल्ली लाया गया जहां बहादुर बेटे को श्रद्धांजलि देने के लिए हूजुम उमड़ पड़ा था। ब्रिगेडियर उस्मान का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया जिसमें गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू शामिल हुए थे। सरकार ने ब्रिगेडियर उस्मान को मरणोपरांत महावीर चक्र देने का एलान भी कर दिया।
लोगों का मानना है कि अगर उस्मान जीवित रहते तो वे जरूर सेना प्रमुख बनते। दयालु, मानवीय और पूरी तरह से निष्पक्ष उस्मान में नेतृत्वकर्ता के सारे गुण मौजूद थे। वे शराब नहीं पीते थे और शाकाहारी भी बन गए थे। कुंवारे रहे ब्रिगेडियर उस्मान के वेतन का एक बड़ा हिस्सा गरीब बच्चों की मदद और उनकी शिक्षा का खर्च उठाने में चला जाता था। इनमें से कई बच्चों ने उनकी शहादत के बाद कई बच्चों ने ब्रिगेड के मुख्यालय को पत्र लिखकर अपने शोक संंवेदनाएं व्यक्त की थी।