भारत के प्रतिष्ठित उद्योगपति और टाटा समूह के पूर्व अध्यक्ष रतन टाटा का 9 अक्टूबर 2024 के रात मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में निधन हो गया। वो 86 वर्ष के थे। उनके योगदान, देशभक्ति और समाजसेवा की भावना के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा। हालांकि, उनके निधन के बाद उनके अंतिम संस्कार को लेकर चर्चाएं जोर पकड़ रही हैं। पारसी समुदाय से आने वाले रतन टाटा के अंतिम संस्कार को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि क्या वह पारंपरिक पारसी दोखमेनाशिनी विधि से होगा या हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार?
पारसी समुदाय की दोखमेनाशिनी परंपरा क्या है?
पारसी समुदाय, जिसे ज़ोरोस्ट्रियन धर्म का अनुयायी कहा जाता है , जिसमें अंतिम संस्कार की दोखमेनाशिनी परंपरा महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस परंपरा के अनुसार, मृतक के शव को गिद्धों को अर्पित किया जाता है। यह परंपरा “दोखमा” नामक एक गोलाकार संरचना में संपन्न होती है, जिसे “टॉवर ऑफ साइलेंस” कहा जाता है। शव को दोखमा में रखने का मुख्य उद्देश्य यह है कि शरीर को प्रकृति के हवाले कर दिया जाए, जिससे मिट्टी, पानी और वायु की पवित्रता बनी रहे।
पारसी मान्यता के अनुसार, मृत्यु शरीर को अपवित्र बना देती है और उसे जलाने या दफनाने से भूमि या वायु अशुद्ध हो जाती है। इसलिए, शव को गिद्धों के हवाले कर दिया जाता है, ताकि वे इसे खा सकें और शरीर पूरी तरह से प्राकृतिक तत्वों में विलीन हो जाए। दोखमेनाशिनी को पारसी धर्म में एक महत्वपूर्ण विधि माना जाता है।
सूत्रों के अनुसार, रतन टाटा के अंतिम संस्कार में दोखमेनाशिनी परंपरा का पालन नही किया जाएगा। उनके शव को वरली के पारसी शमशान भूमि में लाया जाएगा और प्रेयर हॉल में रखा जाएगा। करीब 45 मिनट तक प्रेयर होगा। प्रेयर हॉल में पारसी रीति से ‘ गेह – सारनू ‘ पढ़ा जाएगा। फिर उनके मुंह पर एक कपड़े का टुकड़ा रख कर ‘अहनावेति’ का पहला अध्याय पढ़ा जाएगा। एक शांति प्रार्थना होता है। इस प्रक्रिया के पूरा होने के बाद रतन टाटा के शव को इलेक्ट्रिक अग्निदाह में रख कर अंतिम संस्कार की प्रक्रिया पूरी की जाएगी।
पारसी समुदाय में बदलाव
पारसी समुदाय ने पिछले कुछ दशकों में अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों में कुछ बदलाव किए है। दोखमेनाशिनी जैसी परंपराओं का पालन अब हर जगह और हर परिवार द्वारा नहीं किया जा रहा है।
कुछ पारसी परिवार अब शवों को जलाने या दफनाने का विकल्प भी चुन रहे हैं, हालांकि यह पारंपरिक दोखमेनाशिनी परंपरा के विरुद्ध है। लेकिन बदलते समय के साथ यह देखने को मिल रहा है कि कई समुदाय अपने रीति-रिवाजों में नए तरीके अपना रहे हैं।