झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी के किस्से भारत में हर किसी की जबान पर हैं लेकिन रानी लक्ष्मीबाई से कहीं पहले दक्षिण भारत की एक वीरांगना रानी चेन्नम्मा अंग्रेजों ने लड़ाई लड़ रही थीं। नारी शक्ति की प्रतीक चेन्नम्मा का जन्म आज ही के दिन (23 अक्टूबर) 1778 में कर्नाटक के वर्तमान बेलगावी जिले के एक छोटे से गांव कागती में हुआ था। इतिहासकार नंदिता कृष्णा ने रानी चेन्नम्मा को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व करने वाली पहली भारतीय शासक बताया है। चेन्नम्मा ने कित्तूर के राजा मल्ल्सर्ज से शादी की और वह कित्तूर की रानी बन गईं। मल्ल्सर्ज पहले से शादीशुदा थे लेकिन चेन्नम्मा ने उनसे वादा किया कि वह उनकी पहली पत्नी को अपनी बड़ी बहन की तरह मानेंगी और उन्होंने आजीवन इस प्रण को निभाया।
बाघ का शिकार और चेन्नम्मा-मल्ल्सर्ज की मुलाकात
चेन्नम्मा और मल्ल्सर्ज की पहली मुलाकात की कहानी भी किसी वीरता के किस्से से कम नहीं है। सदाशिव वाडियार ने अपनी किताब ‘रानी चेन्नम्मा’ में इस मुलाकात का दिलचस्प वाक्या साझा किया है। कहानी बेलगावी के कित्तूर के गांवों के नजदीक शुरू होती है। उस दौर में इन गांवों में एक नरभक्षी बाघ का आतंक फैला हुआ था और इस आतंक से निपटने के लिए राजा ने बाघ को मारने की ठान ली थी। जनता को परेशान देख राजा कुछ लोगों के साथ बाघ को मारने के लिए जंगल में निकल पड़े।
राजा को जैसे ही बाघ नजर आया उन्होंने एक ही तीर में उसे ढेर कर दिया और वे बाघ को देखने के लिए उसके नजदीक पहुंचे। राजा ने वहां पहुंचकर देखा कि बाघ पर एक नहीं, बल्कि दो–दो तीर लगे हुए थे। तभी एक युवती राजा के पास आई आकर बोली कि बाघ उसके तीर से मरा है। युवती की बहादुरी देख राजा मोहित हो गए। यह युवती चेन्नम्मा थी और राजा ने इसके बाद चेन्नम्मा से शादी करने का तय कर लिया था।
मल्ल्सर्ज की मृत्यु
रानी चेन्नम्मा जिस दौर में राजनीति में कदम रख रही थीं उस दौर में ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभाव भारत पर बढ़ रहा था। रानी चेन्नम्मा जिस राजवंश से थी वे पेशवाओं के जागीरदार थे। क्वीनी प्रधान अपनी किताब ‘रानीज़ ऐंड द राज’ में लिखती हैं, “1813 में करों के भुगतान पर विवाद के कारण मल्ल्सर्ज को पेशवाओं के आदेश पर बंदी बना लिया गया था। लगभग 3 साल तक जेल में रहने के बाद वे बीमार हो गए थे। यह स्पष्ट नहीं है कि उनकी मृत्यु जेल में रहते हुए हुई या उनकी गंभीर स्थिति के कारण उन्हें रिहा कर दिया गया और कित्तूर पहुंचने पर उनकी मृत्यु हुई।”
मल्लसर्ज के पहली रानी से दो पुत्र शिवलिंगरूद्र सर्जा और वीररूद्र सर्जा थे जबकि रानी चेन्नम्मा से उनके पुत्र शिवा बसवराज थे। मल्लसर्ज की मृत्यु के बाद शिवलिंगरूद्र सर्जा गद्दी पर बैठे तब तक उनके दोनों भाइयों को निधन हो गया था। शिवलिंगरूद्र ने 1818 में तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध में अंग्रेजों की मदद करने का फैसला किया क्योंकि वे पेशवा को अपने पिता की मौत के लिए जिम्मेदार मानते थे। अंग्रेजों ने युद्ध जीतकर पेशवाओं के इलाके कब्जा लिए और वे कित्तूर के मालिक बन गए।
इस बीच अंग्रेजों ने कित्तूर के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके तहत उन्हें अंग्रेजों को सालाना कर देना था और बदले में अंग्रेजों ने उनके काम में हस्तक्षेप न करने और शिवलिंगरूद्र के बेटों को कित्तूर की विरासत की गारंटी दी। इस दौरान चेन्नम्मा अपने सौतेले बेटे के साथ कित्तूर का शासन चला रही थीं। 1824 में शिवलिंगरूद्र को TB हो गया, उनके कोई बच्चा नहीं था तो तय किया गया कि उनके उत्तराधिकारी को गोद लिया जाएगा। सिंतबर में जब वह बुरी तरह बीमार हो गए तो उन्होंने बच्चा गोद लेने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया।
उत्तराधिकारी का संकट
अर्चना गरोडिया गुप्ता ने अपनी किताब ‘वुमन हू रूल्ड इंडिया: लीडर्स, वॉरियर्स, आइकन्स’ में लिखती हैं, “12 सितंबर को शिवलिंगरूद्र के एक विश्वास पात्र ने ब्रिटिश राजनीतिक एजेंट क्षेत्र के कलेक्टर सेंट जॉन ठाकरे को एक पत्र लिखकर अपनी बीमारी और उत्तराधिकारी गोद लेने की जानकारी दी। ठाकरे ने तुरंत एक सर्जन को वहां भेजा लेकिन तब तक राजा की मौत हो चुकी थी।” अर्चना गरोडिया गुप्ता लिखती हैं कि ठाकरे ने दावा किया कि राजा का किसी को गोद लेने का कोई इरादा नहीं था और उन्हें भेजे गए पत्र पर किए गए हस्ताक्षर नकली थे। ठाकरे का मानना था कि अब राज को अंग्रेजों को सौंप दिया जाना चाहिए।
अंग्रेज अधिकारियों ने इसके बाद तय कि वे कित्तूर के खजाने और सरकार पर नियंत्रण रखेंगे और वे यह जांच करेंगे की बच्चे को गोद लिया जाना सही थी या नहीं। अंग्रेजों के इस व्यवहार से नाराज चेन्नमा ने 8 अक्टूबर 1824 को बॉम्बे के गवर्नर माउंट स्टुअर्ट ऐलफिन्सटन के पास वकील भेजा लेकिन उनकी शासन चलाने से जुड़ी याचिका का कोई असर नहीं हुआ। ठाकरे के व्यवहार से दुखी चेन्नमा अलग-अलग ब्रिटिश अधिकारियों को पत्र लिखती रहीं लेकिन उनकी कहीं नहीं सुनी गई।
चेन्नम्मा की अंग्रेजों से पहली लड़ाई
अर्चना गरोडिया गुप्ता लिखती हैं, “18 अक्टूबर को चेन्नम्मा ने अपने विश्वास पात्रों की एक बैठक बुलाकर एलान कर दिया कि ‘कित्तूर के लोगों को जिंदगी से ज्यादा आजादी प्यारी है। लोग ब्रिटिश के गुलाम बनने से ज्यादा मरना पसंद करेंगे।” ठाकरे ने इसे गंभीरता से ना लेते हुए हथियारों के प्रदर्शन से कित्तूर की जनता को डराने की सोची और कलधागी से बेलगाम जा रहे ब्रिटिश सैनिकों को कित्तूर से होकर जाने को कह दिया जिससे वह लोगों में दहशत पैदा कर सके। 20 अक्टूबर को सैनिक कित्तूर पहुंचे और उन्होंने ठाकरे के आदेश पर चेन्नम्मा के सरदारों को पकड़ने की नियत से किले पर हमला कर दिया लेकिन उन्हें मुंह की खाना पड़ी। कित्तूर के सैनिकों ने कई अंग्रेज सैनिकों को बंदी बना लिया। इसके बाद ठाकरे ने ऑफर दिया कि अगर चेन्नम्मा सरेंडर करती हैं तो वह उन्हें 11 गांव देने के लिए तैयार है। हालांकि, चेन्नम्मा ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया और ठाकरे से मुलाकात भी नहीं की। 23 अक्टूबर 1824 को अंग्रेज सैनिकों ने एक बार फिर किले पर हमला किया और तोप से दरवाजा उड़ा दिया। किले के भीतर करीब 5000 सैनिक मौजूद थे और उन्होंने ब्रिटिश सैनिकों पर हमला बोल दिया। किले की प्राचीर से घोड़े पर सवार चेन्नमा इस लड़ाई का नेतृत्व कर रही थीं, इसमें ठाकरे समेत सैकड़ों ब्रिटिश सैनिक मारे गए थे।
कुछ अंग्रेजों को बंधक बना लिया गया और अधिकारियों से पत्र लिखकर मांग की गई कि अंग्रेज बच्चे को गोद लिए जाने से जुड़ी मंजूरी दें। इससे अंग्रेजों के मन में डर पैदा हो गया कि कहीं इससे पूरे दक्षिण क्षेत्र में बगावत की शुरुआत ना हो जाए। अंग्रेजों ने चेन्नम्मा की मांगों को मानने से इनकार कर दिया और पूरे दक्कन क्षेत्र से 25,000 सैनिकों को कित्तूर रवाना कर दिया।
चित्तूर में निर्णायक लड़ाई
25 नवंबर तक 25,000 सैनिकों ने कित्तूर को घेर लिया। इस दौरान बातचीत करने आए एक अंग्रेज अधिकारी ने चेन्नम्मा के वकील को आश्वासन दिया कि यदि बचे हुए 2 ब्रिटिश बंधको को रिहा कर दिया जाता है, तो वह युद्ध रोक देंगे। 2 दिसंबर की रात बंधकों को रिहा कर दिया गया लेकिन अंग्रेज अपने वादे से पलट गए और चेन्नम्मा को आत्मसमर्पण के लिए अगली सुबह 10 बजे तक का वक्त दिया। चेन्नम्मा ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया और इस तरह एक निर्णायक युद्ध की शुरुआत हुई। अलग-अलग जगहों पर ब्रिटिश और कित्तूर के सैनिकों की लड़ाइयां हुई लेकिन वे हार गए।
आखिरकार 4 दिसंबर को अंग्रेजों को इस लड़ाई में निर्णायक सफलता मिली और चेन्नम्मा समेत कई सरदारों को पकड़ लिया गया। चेन्नम्मा के मुख्य सलाहकार गुरुसिदप्पा समेत कई लोगों को फांसी दे दी गई। अंग्रेजों ने उनके महल को ध्वस्त कर दिया और उसके मलबे को 5 रुपये प्रति गाड़ी के हिसाब से बेच दिया गया। चेन्नम्मा से कित्तूर को अंग्रेजों को सौंपने के लिए एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवाए गए और उन्हें बैलहोंगल के किले में कैद कर दिया गया। जेल में कैद महिलाओं को हर साल 40,000 रुपये की पेंशन दी जाती थी। करीब 4 वर्षों बाद 1829 में चेन्नम्मा की मृत्यु हो गई और उन्होंने अपने जीवन के आखिरी वर्ष जेल में धार्मिक कार्यक्रमों में भाग लेते हुए बिताए थे।