8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह ने अंग्रेजों के मन में खौफ पैदा करने के लिए दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में बम फेंका जिसके बाद लोग वहां अफरा-तफरी मच गई और लोग इधर-उधर भागने लगे। तभी वहां एक और धमाका बम धमाका हुआ और इस बम को फेंका का भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त ने। बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह उस समय नायक बन गए थे लेकिन बीतते समय के साथ बटुकेश्वर दत्त को भूला दिया गया। आज बटुकेश्वर की जयंती है और राष्ट्र अपने इस वीर पुरुष को नमन कर रहा है।
छात्र जीवन में राष्ट्र के प्रति समर्पण
बटुकेश्वर का जन्म 18 नवंबर 1911 को कानपुर में हुआ था। उनका परिवार मूल रूप से पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले के ओआड़ी गांव से था। बटुकेश्वर की शुुरुआती शिक्षा कानपुर में हुई और छात्र जीवन में ही उनके मन में राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना जाग्रत हो गई थी। 1923 में वे आठवीं कक्षा में पढ़ते थे और उस दौर में छात्रों से रामकृष्ण मिशन द्वारा तैयार पर्चे बंटवाए जाते थे जिनमें अंग्रेजों के खिलाफ बातें लिखी होती थीं। बटुकेश्वर इन पर्चों को छात्रों के क्लास से बाहर जाने पर उनके बैग में रखते थे।
भगत सिंह से परिचय
भगत सिंह से बटुकेश्वर का परिचय कानपुर में क्रांतिकारी सुरेश चंद भट्टाचार्य ने कराया था। दोनों की मुलाकात फूलबाग में होनी थी और भट्टाचार्य, भगत सिंह को वहां बैठाकर बटुकेश्वर को लेने चले गए लेकिन वे अकेले ही भगत सिंह के पास पहुंच गए। भगत सिंह वहां बटुकेश्वर को पुलिस का भेदिया समझकर हमला करने वाले थे तभी भट्टाचार्य आ गए और दोनों का परिचय कराया। इसके बाद दोनों के बीच अटटू दोस्ती बन गई। भगत सिंह ने बटुकेश्वर से बांग्ला सीखी और उनकी सहायता से कार्ल मार्क्स की किताबें भी पढ़ी।
असेंबली में बम फेंकने की घटना
दोनों दोस्त भारत की आजादी के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में जुटे रहे। ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ के विरोध में असेंबली में बम फेंकने का फैसला किया गया लेकिन क्रांतिकारी इनके जरिए किसी को मारना नहीं चाहते थे बल्कि एक संदेश देना चाहते थे। 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को यहां बम फेंकने थे। उससे दो दिन पहले 6 अप्रैल को दोनों दोस्त सेंट्रल असेंबली गए और वहां की रेकी कर आए थे। 8 अप्रैल को सदन की कार्यवाही शुरू होने से पहले भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त काउंसिल हाउस में दाखिल हुए। भगत सिंह अपनी पहचान छिपाने के लिए सिर पर हैट लगाए हुए थे। भगत सिंह ने पहला बम फेंका और इस फेंकते समय इस बात का ध्यान रखा कि सदस्य उसकी चपेट में न आ सकें।
‘बहरों को सुनाने के लिए धमाके जरूरी’
बम फटने के साथ ही जोरदार आवाज के साथ पूरा असेंबली हॉल अंधेरे में डूब गया और अफरा-तफरी मच गई। तभी बटुकेश्वर दत्त ने दूसरा बम फेंका। ये बम कम क्षमता के थे। बम फेंकने के बाद दोनों ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारों के साथ कुछ पर्ची वहां फेंके। इसे मोटे तौर पर भगत सिंह ने लिखा था और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन पार्टी के लेटरहेड पर उसकी 30-40 प्रतियां टाइप की गईं थीं। इन पर्चों में फ्रेंच क्रांतिकारी अगस्त वैलां का उद्धरण ‘बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत पड़ती है’ लिखा था। बम फेंकने के बाद भगत सिंह व बटुकेशवर भागे नहीं बल्कि वहीं खड़े रहे और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
इस कारनामे के बाद दोनों दोस्त युवाओं के बीच हीरो बन गए थे और बढ़ते जन समर्थन को देखते हुए अंग्रेज अदालत ने जेल में ही अदालत लगाने पड़ी थी। 4 जून को दोनों का मुकदमा सेशन जज लियोनार्ड मिडिलटाउन की अदालत में ट्रांसफर कर दिया गया और 6 जून को अभियुक्तों ने अपने बयान दर्ज कराए। 10 जून को यह मुकदमा पूरा हो गया औ 12 जून को इसमें फैसला सुना दिया गया। अदालत ने भगत सिंह और दत्त को जानबूझ कर विस्फोट करने का दोषी और उन दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
फांसी ना चढ़ने का अफसोस
दोनों क्रांतिकारी दोस्त इस फैसले के खिलाफ अपील नहीं करना चाहते थे लेकिन बाद में कई लोगों के कहने के बाद वे ऐसा करने को राजी हो गए। हालांकि, हाईकोर्ट ने भी दोनों को कोई राहत नहीं दी और उनकी अपील खारिज कर दी गई। इसके बटुकेश्वर को काला पानी जेल भेज दिया गया था। वहीं, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को सांडर्स की हत्या का दोषी माना गया और उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई। बटुकेश्वर को इस बात का अफसोस था कि उनके दोस्त भगत सिंह की तरह उन्हें देश के लिए फांसी पर चढ़ने का सौभाग्य नहीं मिला। इस बात की जानकारी जब भगत सिंह को हुई तो उन्होंने जेल से बटुकेश्वर को एक पत्र लिखा।
जेल में रहते हुए बटुकेश्वर की तबीयत बिगड़ गई और 1938 में उन्हें किसी हिंसक कार्रवाई में हिस्सा न लेने की शर्त पर जेल से रिहा कर दिया गया। लेकिन बटुकेश्वर ठहरे भारत माता के सच्चे सपूत वे भारत माता को गुलामी की बेडियों से आजाद कराने में फिर से जुट गए। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने हिस्सा लिया और फिर उन्हें जेल में भेज दिया गया। आजादी के बाद उनकी जेल से रिहाई तो हो गई लेकिन जीवन के लिए जद्दोजहद शुरु हो गई।
आजादी के बाद की मुफलिसी
आजीविका के लिए उन्हें कभी सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर सिगरेट बेचनी पड़ी तो कभी उन्हें टूरिस्ट गाइड की नौकरी करनी पड़ी। माली हालात खस्ता होने के चलते उनकी पत्नी अंजली को एक निजी स्कूल में पढ़ाना भी पड़ा। बटुकेश्वर ने बिस्कुट-डबल रोटी का कारखाना चलाने की नाकाम कोशिश की थी। वे एक बार एक बस का परमिट लेने के लिए लाइन में लगे तो उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र मांगा लेकिन इससे दुखी बटुकेश्वर दत्त ने आवेदन वहीं फाड़ दिया। हालांकि, बाद में राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को इसकी खबर मिली और उनके हस्तक्षेप के बाद उन्हें परमिट दे दिया गया।
बटुकेश्वर की ‘आखिरी इच्छा’
जब बटुकेश्वर नाजुक हालत में एम्स में भर्ती थे तो उनका हालचाल लेने पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री रामकिशन पहुंचे थे और उनसे उनकी इच्छा पूछी थी। इस पर बटुकेश्वर ने आंखों में आंसू भरकर कहा कि मेरी ख्वाहिश सिर्फ इतनी है कि मेरा दाह-संस्कार मेरे साथी भगत सिंह के बगल में किया जाए। भगत सिंह की मां विद्यावती बटुकेश्वर को अपने बेटे की तरह मानती थीं और अस्पताल में बटुकेश्वर का सिर अपनी गोद में लिए बैठी रहती थीं। बटुकेश्वर की इच्छा के मुताबिक उनका शव भारत-पाकिस्तान सीमा के पास हुसैनीवाला में उस जगह ले जाया गया, जहां उनके साथियों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का अंतिम संस्कार हुआ था और वहीं उनका अंतिम संस्कार किया गया।
भारत आज जिस रूप में है उसे यहां तक पहुंचाने में हजारों लोगों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया। आज की पीढ़ी खुली हवा में सांस ले पाती है तो इसके बाद उन क्रांतिकारियों की शहादत है जिसके लिए भारत माता का सम्मान सबसे बड़ा था। ऐसे में हम सबसे न्यूनतम कोई चीज कर सकते हैं तो वो यही है कि हम अपने क्रांतिकारियों को वो सम्मान, वो इज्जत जरूर दें जिसके वे हकदार हैं। अपने नायकों को गुमनाम ना होने दें।