हजारों करोड़ रुपयों की इंडस्ट्री, पिछड़ी जातियों को मिलता है रोजगार: दीवाली के पटाखों को गाली, न्यू ईयर पर चुप्पी

गुजरात के अहमदाबाद के दस्क्रोई स्थित वंच गाँव में जब आप जाएँगे तो देखेंगे कि 10,000 कामगार हाथ से पटाखा बनाने के काम में लगे रहते हैं

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दीवाली के पटाखों से प्रदूषण के स्तर पर प्रभाव नहीं, अय्या नाडर ने स्थापित किया था 'मुर्गा छाप' ब्रांड

पटाखा, पटाखा पटाखा… कौन सा पटाखा? दीवाली वाला। क्योंकि, कुछ लोगों की नज़र में क्रिसमस से लेकर न्यू ईयर तक के जो पटाखे हैं वो वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा को बढ़ाते हैं और हिन्दू त्योहार दीवाली के जो पटाखे हैं वो प्रदूषण का कारण बनते हैं। दीवाली के बाद दिल्ली की AQI दिखाई जाती है, जैसे साल के बाक़ी दिन दिल्ली सबसे स्वच्छ हवा वाले शहरों में दुनिया में नंबर एक पर आती हो। दीवाली के दौरान तो इस गिरोह के लोग ऐसे चिल्लाते हुए बाहर निकलते हैं जैसे ओजोन लेयर की परत को एक-एक सेंटीमीटर फटते हुए साक्षात देख रहे हों।

असल में इस गिरोह की पूरी कोशिश रहती है कि हिन्दू समाज हीन भावना और अपराध-बोध में जिए। हीन भावना उनके भीतर ये रहे कि उनके त्योहार सबसे बुरे हैं, अपराध-बोध इस बात का रहे कि इस सभ्य दुनिया में वही हैं जो सब कुछ बुरा कर रहे हैं। सूर्य-चंद्र से लेकर मिट्टी से थापी गई शिवलिंग और पीपल-तुलसी के पेड़-पौधों की पूजा करने वालों को क्रिसमस पर प्लास्टिक ट्री सजाने वालों से कमतर बताया जा रहा है। जो राष्ट्र प्रकृति के कण-कण में ईश्वर का रूप देखता है, उसे कहा जा रहा है कि तुम प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहे हो।

दीवाली से होता है प्रदूषण? आँकड़े तो ऐसा नहीं कहते

आइए, पहले थोड़ा आँकड़े देख लेते हैं। आँकड़े कहते हैं कि प्रदूषण वाले धुएँ में दीवाली से 3 दिन पहले 28 अक्टूबर को पराली जलने की हिस्सेदारी 2% थी, लेकिन वहीं दीवाली के दिन बढ़ कर 28% हो गई। यानी, दीवाली के दिन प्रदूषण के जो आँकड़े थे उनमें एक चौथाई से भी अधिक हिस्सेदारी पराली जलाए जाने के कारण होने वाले धुएँ की थी। अब थोड़ा दीवाली से पहले और इसके बाद का AQI का स्तर भी देख लेते हैं। ‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के आँकड़े कहते हैं कि दीवाली के दिन AQI 328 था और इसके अगले दिन ये 339 था।

अब दीवाली से एक सप्ताह पहले की बात कर लेते हैं। दीवाली के एक हफ्ते पहले 23 अक्टूबर को AQI का स्तर 364 था, यानी दीवाली और इसके अगले दिन से कहीं अधिक। तब तो पटाखे नहीं फोड़े जा रहे थे? एक सप्ताह पहले ही नहीं, बल्कि दीवाली से 4 दिन पहले 27 अक्टूबर को भी दिल्ली में AQI का स्तर 356 था। ये भी दीवाली और इसके अगले दिन के आँकड़ों से कहीं अधिक है। फिर भी हिन्दू त्योहारों को बदनाम करने की कोशिश में लगे लोग जबरन दीवाली पर होने वाली आतिशबाजी को प्रदूषण से जोड़ कर देखते हैं।

भारत में हजारों करोड़ रुपयों की है पटाखा इंडस्ट्री

ये थी दिल्ली के आँकड़ों की बात। अब थोड़ा उद्योग-धंधे भी देख लेते हैं। भारत में पटाखा इंडस्ट्री से कई कामगारों का घर चलता है। जब पटाखे प्रतिबंधित किए जाते हैं तो इनकी कमाई पर भी असर पड़ता है। गुजरात के अहमदाबाद के दस्क्रोई स्थित वंच गाँव में जब आप जाएँगे तो देखेंगे कि हजारों कामगार हाथ से पटाखा बनाने के काम में लगे रहते हैं। यहाँ लगभग 10,000 ऐसे मजदूर हैं और इन्हें रोज 500 रुपए की दिहाड़ी मिलती है। सरकार और प्रशासन को चाहिए कि इनके सुरक्षा मानकों का ध्यान रखा जाए, इनकी कमाई बढ़ाने की सोची जाए – लेकिन वो कर क्या रहे हैं? पटाखा बैन।

अगर 2023 की बात करें तो उस साल अकेले पश्चिम बंगाल में दीवाली के दर्जन पटाखा इंडस्ट्री का टर्नओवर 8000 करोड़ रुपए था। इस साल इससे लगभग दोगुना, यानी 15,000 करोड़ रुपए के टर्नओवर का लक्ष्य रखा गया था। इस साल पूरे पश्चिम बंगाल में 72 ‘बाज़ी बाजार’ लगाए गए थे, इन मेलों में आकर लोग पटाखों की खरीद-बिक्री करते हैं। पिछले साल 52 ऐसे मेले लगे थे, इस बार 20 अधिक लगे। अकेले पश्चिम बंगाल में 3.10 लाख लोगों की रोजी-रोटी सिर्फ पटाखा उद्योग से चलती है।

पश्चिम बंगाल में 232 लाइसेंस प्राप्त फ़ायरक्रैकर्स मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स हैं और इनमें 14,800 प्रशिक्षित कर्मचारी काम करते हैं। इसी तरह आपने तमिलनाडु के शिवकाशी का नाम सुना होगा, ये तो पूरा का पूरा गाँव ही पटाखा उद्योग के लिए लोकप्रिय है। शिवकाशी में इस उद्योग का इतिहास 100 वर्ष से भी अधिक पुराना है। इस गाँव और इसके आसपास पटाखा बनाने की लगभग 300 फैक्ट्रियाँ हैं। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने पटाखे बनाने के लिए इस्तेमाल में आने वाले बैरियम नाइट्रेट को बैन कर दिया, जिसके बाद शिवकाशी के लोगों को पटाखों के लिए रॉ मटेरियल मिलने में दिक्कतें आने लगीं। यहाँ के लोग कहते हैं कि बिना किसी अध्ययन के ये फैसला लिया गया है। इसके बदले स्ट्रोंटियम नाइट्रेट का इस्तेमाल किया जा रहा है जिसमें नमी ज़्यादा होती है और दीवाली के समय ठंडी होने के कारण उत्पाद पर इसका असर पड़ता है।

न्यू ईयर पर दुनिया भर में होती है आतिशबाजी

ऐसा नहीं है कि पटाखे सिर्फ भारत में ही फोड़े जाते हैं, चीन से लेकर अमेरिका-यूरोप तक में लोग आतिशबाजी के मजे लेते रहे हैं। आपने ‘मुर्गा छाप’ पटाखे देखे होंगे। यूपी-बिहार के गाँवों में भी इस ब्रांड के पटाखे उत्तम माने जाते हैं। ‘श्री कलिस्वारी पटाखा उद्योग’ स्थापना शिवकाशी में ही अय्या नाडार और षण्मुगा नाडार द्वारा की गई थी। नाडार जाति परंपरागत रूप से ताड़ी निकालने का काम करती रही है और तमिलनाडु में इन्हें OBC का दर्जा प्राप्त है। ऐसे में जो लोग दीवाली के पटाखों का विरोध कर रहे हैं, उन्हें OBC विरोधी क्यों नहीं बताया जाना चाहिए? उन्हें पिछड़ा विरोधी क्यों नहीं बताया जाना चाहिए? ये लोग ऐसे तो दलित-ओबीसी का रट्टा लगाते रहते हैं लेकिन ओबीसी समाज के लोगों द्वारा शुरू की गई इंडस्ट्री का धंधा बंद करने की वकालत कर रहे हैं। और हाँ, पटाखा इंडस्ट्री से अपनी रोजीरोटी चला रहे मजदूरों में भी अधिकतर दलित-पिछड़ा समाज से ही हैं, उनकी पेट पर लात क्यों मारी जा रही है?

आप ईसाई नववर्ष के मौके पर दुनिया भर के वीडियो देख लीजिए। ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में दुनिया का सबसे बड़ा फायरवर्क्स डिस्प्ले आयोजित होता है। इसी तरह दुबई और न्यूयॉर्क से लेकर लंदन और रियो-डी-जेनेरियो तक आतिशबाजी के एक से बढ़ कर एक कार्यक्रम होते हैं। लेकिन, एक गिरोह को केवल हिन्दू पर्व-त्योहारों से ही दिक्कत है। इसीलिए, हम हिन्दुओं को हीन भावना व अपराध-बोध त्याग कर इस गिरोह का सामना करना चाहिए। उन्हें बताना चाहिए कि पहाड़ों से लेकर नदियों तक की पूजा करने वाला ये देश, जंगलों में तपस्या करने वाले ऋषि-मुनियों की परंपराओं वाला ये देश – प्रकृति पूजक है, प्रकृति का दुश्मन नहीं।

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