कश्मीर और लाहौर को मुक्त कराने वाले सिख सम्राट: नाम से ही काँपते थे पठान आक्रांता, सिर पर धारण करते थे कोहिनूर

महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी पहली लड़ाई सिर्फ 10 साल की उम्र में लड़ी थी। इतनी ही उम्र में वे मिसल के नेता भी बन गए।

महाराजा रणजीत सिंह, सिख सम्राट

महाराजा रणजीत सिंह ने मात्र 10 वर्ष की उम्र में लड़ा था पहला युद्ध

महाराजा रणजीत सिंह भारतीय इतिहास के सबसे प्रभावशाली और साहसी शासकों में से एक थे। उनका जीवन एक प्रेरणा की तरह है, जिसमें वीरता, दूरदृष्टि और संघर्ष की अद्वितीय कहानी है। उनका जन्म, उनके संघर्ष और उनकी नीतियाँ न केवल पंजाब राज्य के लिए, बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए महत्वपूर्ण थीं। महाराजा रणजीत सिंह ने अफगान, मुग़ल और ब्रिटिश साम्राज्य जैसी बड़ी शक्तियों के खिलाफ संघर्ष किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी। आज महाराजा रणजीत सिंह की जयंती है। यह समय है उनके त्याग एवं बलिदान को नमन करने का।

पिता ने की थी छोटे से राज्य की स्थापना

महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 13 नवम्बर 1780 को पंजाब के छोटे से गाँव गुज्जरावाला (वर्तमान में पाकिस्तान) में हुआ था। उनके पिता का नाम महान सिंह सुकरचकिया और माता का नाम राज कौर था। उनके पिता महान सिंह ने सुकरचकिया नाम के छोटे राज्य की स्थापना की थी। रणजीत सिंह का बचपन मुश्किलों और संघर्षों से भरा हुआ था। वे चार साल के थे, तभी चेचक के कारण उनके एक आंख की रौशनी चली गई। हालाँकि, इससे उनकी दृढ़ता और साहस कमजोर नहीं हुआ।

18वीं शताब्दी में पंजाब में 12 सिख मिसल (मूल रूप से सिखों का स्वतंत्र क्षेत्र) थे। महान सिंह इन मिसलों के प्रमुख थे। 1790 में महान की मृत्यु के बाद रणजीत सिंह मिसल के नेता बने और 1795-96 में मेहताब कौर से शादी की। इसके बाद रणजीत सिंह की सास रानी सदा कौर रणजीत सिंह की सलाहकार बनीं। ये वो समय था जब भारत या पंजाब पर अफगानों का हमला हो रहा था। अफगान आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर बार-बार हमले किए जा रहे थे। देश में भी मुगलों का शासन कमजोर हो चुका था।

अब्दाली ने भारत पर आठ बार आक्रमण करने का प्रयास भी किया। 1762 में अपने छठे आक्रमण के दौरान उसने लाहौर और अमृतसर के हज़ारों लोगों को बेरहमी से हत्या कर दी। इतना ही नहीं, अब्दाली ने कई पवित्र स्थलों को भी नष्ट कर दिया। ऐसी ही एक जगह थी हरमंदर साहिब। अब्दाली की मौत के बाद उसका पोता जमान शाह 1783 में काबुल का राजा बना। उसने 1798 में चौथी बार भारत पर आक्रमण किया और लाहौर पर कब्ज़ा कर लिया। 16 जुलाई 1799 को रणजीत सिंह ने लोगों के आग्रह पर लाहौर पर हमला करके उसे अपने कब्जे में ले लिया। इसके बाद गुरु गोबिंद सिंह के नाम पर इसे ‘गोबिंदगढ़’ नाम दिया। उन्होंने ज़मज़मा तोप भी अपने कब्ज़े में ले ली। यह अब अब भी लाहौर में है।

लाहौर और कश्मीर को महाराजा रणजीत सिंह ने कराया स्वतंत्र

महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी पहली लड़ाई सिर्फ 10 साल की उम्र में लड़ी थी। इतनी ही उम्र में वे मिसल के नेता भी बन गए। लाहौर पर कब्जा करने के बाद रणजीत सिंह ने कई अन्य क्षेत्रों में भी अपनी शक्ति का विस्तार किया और अफगान आक्रमणों से मुक्त होने के बाद पंजाब को एक नई दिशा दी। रणजीत सिंह ने 2 अप्रैल, 1801 में बैसाखी के दिन खुद को ‘महाराजा’ घोषित किया और इस प्रकार सिख साम्राज्य की नींव रखी। इसकी राजधानी उन्होंने लाहौर को बनाया।

महज 20 साल की उम्र में उन्होंने यह उपलब्धि हासिल की थी। इसके बाद 1802 में उन्होंने अमृतसर को अपने साम्राज्य में मिला लिया और 1807 में उन्होंने अफगानी शासक कुतुबुद्दीन को हराकर कसूर पर कब्जा किया। 1809 तक कांगड़ा, 1813 तक अटॉक और 1818 तक मुल्तान पर कब्ज़ा कर लिया था। उन्होंने 1819 में कश्मीर पर कब्जा कर लिया।

जिस समय महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर को अपने अधीन किया, उस समय कश्मीर पर जब्बार खान शासन कर रहा था। जब्बार खान के शासन में क्रूरता चरम पर थी। वह हिंदुओं पर तरह-तरह से अत्याचार कर रहा था। और पड़ोस में पठानों के खतरों के बारे में जानने के बाद, महाराजा ने कश्मीर पर विजय प्राप्त करने की तैयारी शुरू की। शोपियाँ में महाराजा रणजीत सिंह ने जब्बार खान के नेतृत्व में पठान सेना को पूरी तरह पराजित किया। इसके बाद जुलाई 1819 में श्रीनगर में प्रवेश किए।

उन्हें कश्मीर की जनता के लिए कई काम किए। उन्होंने दीवान मोती राम को कश्मीर के शासक के रूप में नियुक्त किया। बाद में उन्हें हटाकर उनके स्थान पर हरि सिंह नलवा को शासक बनाया। महाराजा रणजीत ने अपने शासनकाल के दौरान ‘नानकशाही’ सिक्कों को सोने और चाँदी में ढालकर बनवाया था। इन सिक्कों पर विभिन्न सिख गुरुओं के नाम उकेरे गए थे। हालाँकि, उनके राज्य में हर जाति एवं धर्म के लोग बराबर थे। किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं था।

पेशावर से लेकर खैबर पख्तूनख्वा तक फहराया झंडा

हरि सिंह नलवा के साथ मिलकर उन्होंने 1820 में हज़ारा, 1823 में पेशावर और फिर खैबर पख्तूनख्वा पर कब्ज़ा कर लिया। यह पहला मौका था जब पश्तूनों पर किसी गैर-मुस्लिम ने राज किया। महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयाँ लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ दिया था। उन्होंने पेशावर और पश्तून क्षेत्र पर भी कब्जा कर लिया। अफगानों और सिखों के बीच 1813 और 1837 के बीच कई युद्ध हुए। 1837 में जमरुद का युद्ध उनके बीच आखिरी भिड़ंत थी। इस युद्ध में रणजीत सिंह के एक बेहतरीन सिपाहसालार हरि सिंह नलवा मारे गए थे। इस तरह उन्होंने सिख साम्राज्य को सिंध के पार तक पहुँचा दिया।

महाराजा रणजीत सिंह का 27 जून 1839 को लाहौर के किले में निधन हो गया। उनकी राख को लाहौर के बादशाही मस्जिद के पास ‘महाराजा रणजीत सिंह की समाधि’ नामक स्मारक में आज भी रखा गया है। उनकी मृत्यु के बाद उनका बेटा खड़क सिंह सिख साम्राज्य के शासक बने। हालाँकि, खड़क सिंह महाराजा रणजीत सिंह जैसे कुशल शासक साबित नहीं हुए। आपसी खींचतान के कारण सिख साम्राज्य का पतन शुरू हो गया। इस बीच अंग्रेजों ने 1845 में सिख साम्राज्य पर हमला करके उसे ब्रिटिश भारत में मिला लिया। इस तरह एक महान सिख साम्राज्य पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया।

ऐसे रणजीत सिंह के पास आया नायाब कोहिनूर हीरा

महाराजा रणजीत सिंह ने अपने अनेकों युद्धों के दौरान विश्वप्रसिद्ध कोहिनूर हीरा और तैमूर रूबी को भी हासिल किया था। दरअसल, 1812 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह कश्मीर को सूबेदार अता मोहम्मद से मुक्त कराना चाहते थे। अता मोहम्मद ने शाह शुजा को शेरगढ़ के किले में कैद कर रखा था। शाह शुजा की बेगम ‘वफा’ ने महाराजा रणजीत सिंह से आग्रह किया कि वह शाह शुजा को मुक्त करा देंगे तो वह उन्हें बेशकिमती कोहिनूर हीरा भेंट करेगी। शाह शुजा के जेल में होने के कारण वफा बेगम अफगानिस्तान पर शासन कर रही थी। महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर को जीतकर शाह शुजा को आजाद किया था।

कहा जाता है कि इसके बाद वफा बेगम अपने वादे से मुकर गई। उसने महाराजा रणजीत सिंह को कोहिनूर हीरा नहीं दिया। कई माह बीतने के बाद महाराजा ने उस पर दबाव बनाया तो वफा बेगम ने एक नकली हीरा महाराजा रणजीत सिंह को सौंप दिया। इससे महाराजा रणजीत सिंह को क्रोध आ गया और उन्हें वफा बेगम की घेराबंदी कर दी। 1813 में महाराजा ने शाहशुजा को पकड़ा और उससे कोहिनूर के बारे में पूछा। उसने कोहिनूर को अपनी पगड़ी में छिपा रखा था। इसकी जानकारी महाराजा को मिली तो उन्होंने एक चालाकी की।

कहा जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह ने शाह शुजा को काबुल की गद्दी दिलाने का वादा किया। इसके बाद ‘पगड़ी-बदल भाई’ बनकर उसकी पगड़ी ले ली। इस तरह कोहिनूर उनके हाथ आ गया। महाराजा की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने 1845 में सिख साम्राज्य पर हमला कर दिया और हार के बाद कोहिनूर हीरा ले लिया। बाद में भारत के गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंग ने इग्लैंड की रानी विक्टोरिया को खुश करने के लिए इस कोहिनूर हीरे को लंदन भेजवा दिया।

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