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‘ईरान की महिला क्रांति’: एटम बम बनाने वाले महिला के बेपर्दा होने से क्यों डरते हैं!

Shiv Chaudhary द्वारा Shiv Chaudhary
4 November 2024
in चर्चित, मत, विश्व
‘ईरान की महिला क्रांति’: एटम बम बनाने वाले महिला के बेपर्दा होने से क्यों डरते हैं!

भारत में हिजाब के समर्थन में प्रदर्शन करतीं महिलाएं और ईरान में हिजाब विरोधी प्रदर्शन करती महिला का प्रतीकात्मक चित्र

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“बे-पर्दा कल जो आईं नजर चंद बीबियां
‘अकबर’ जमीं में गैरत-ए-कौमी से गड़ गया
पूछा जो मैं ने आप का पर्दा वो क्या हुआ
कहने लगीं कि अक्ल पे मर्दों के पड़ गया”

अकबर इलाहाबादी का यह शेर ईरान जैसी जो उन ताकतों पर सटीक बैठता है जो एटमी होने का दम भरने की सोचतीं हैं लेकिन एक महिला के बेपर्दा होने से उनकी सारी ताकत हवा जो जाती है। ईरान की तेहरान आजाद यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस ऐंड रिसर्च में इनरवियर में टहल रही एक युवती के वीडियो सोशल मीडिया खूब वायरल हो रहे हैं और इसे लेकर हंगामा मचा हुआ है। दावा किया जा रहा है कि अहौ दारयाई नामक इस युवती ने हिजाब पहनने के कड़े कानूनों के विरोध में कपड़े उतारे हैं, वहीं कुछ लोग कह रहे हैं कि युवती ने गार्ड द्वारा कपड़े फाड़े जाने का विरोध दर्ज कराते हुए अपने कपड़े उतार दिए थे। अब युवती कहां है इसे लेकर भी अलग-अलग तरह के दावे हैं।

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1979 से पहले तक इसी ईरान में शाह मोहम्मद रजा पहलवी शासक थे और महिलाओं पर वहां न तो पहनावे और ना ही रहन-सहन को लेकर कोई पाबंदी थी। ईरान के उस काल को इस्लामी देश में सबसे आधुनिक माना जाता था। ईरान हर मायने में पश्चिम के बड़े-बड़े देशों को टक्कर देता था लेकिन 1979 में वहां इस्लामिक क्रांति हुई और उसके बाद महिलाओं को लिए दुनिया ही बदल गई। महिलाओं पर तरह-तरह की पाबंदियां लागू कर दी गईं और हिजाब पहनना अनिवार्य कर दिया गया। यहां तक कि महिलाओं के मेकअप करने पर भी रोक लगा दी गई। कहा जाता है कि शासन ने गर्भनिरोधक पर पाबंदी लगा दी और पुलिस ने सरेआम महिलाओं के होंठों से रेजर ब्लेड से लिपस्टिक हटाना शुरू कर दिया था।

ऐसा सिर्फ ईरान में ही नहीं हुआ महिलाओं पर इस्लामी शासन का अत्याचार दुनिया भर में कितना है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अफगानिस्तान में तालिबान का शासन आने के बाद महिलाओं के पढ़ने, गाने और पार्क में जाने पर प्रतिबंध लगा दिए। सऊदी अरब जैसे देश में महिलाओं की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब मोहम्मद बिन सलमान ने महिलाओं को कार चलाने की इजाजत देनी चाहिए तो देश के बड़े-बड़े इस्लामिक जानकारों ने उनका जमकर विरोध किया। यह स्थिति सिर्फ इस्लामी राज में ही नहीं है बल्कि दुनिया के बड़े हिस्सों में महिला आजादी को लेकर एक तरह की झिझक अभी भी बनी हुई है।

ईरान में महिलाओं पर अत्याचार कोई नई घटना नहीं है जब-जब किसी महिला ने अपने हक के लिए आवाज उठाई उसे दबा दिया गया। हिजाब के खिलाफ ईरान में छिटपुट प्रदर्शन लगातार जारी थे लेकिन इनमें 2014 में तेजी आ गई जब ईरान की राजनीतिक पत्रकार मसीह अलीनेजाद की बिना हिजाब पहने फोटो फेसबुक पर आई तो सैंकड़ों महिलाओं ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया दी और एक आंदोलन शुरू हो गया। इसके बाद महिलाओं ने ‘मेरी गुम आवाज’, ‘हिजाब में पुरुष’, और ‘मेरा कैमरा मेरा हथियार है’ जैसी कई मुहिम शुरू की गईं। लेकिन अंत में इन आंदोलनों से भी इस्लामी शासन के कान में जूं तक नहीं रेंगी।

ईरान में 2 वर्ष पहले ही एक 22 साल की लड़की महसा अमीनी की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई थी। जानते हैं कि महसा को पुलिस ने किस जुर्म में गिरफ्तार किया था, महसा को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार किया गया था क्योंकि उसने हिजाब ठीक से नहीं पहना हुआ था। महसा के परिवार ने आरोप लगाया कि उसे पुलिस कस्टडी में पीटा गया था और अटॉप्सी से जुड़ी कोई भी जानकारी परिवार को नहीं दी गई। पुलिस की ज्यादती का आलम ऐसा था कि जब परिवार को महसा का शव दिया गया तो उसे पूरी तरह से ढका गया था और बाहर नजर आ रहे उसके तलवों तक पर चोट के निशान थे। महसा को मानसिक रूप से बीमार बताया गया था और पुलिस ने उसके हार्ट फेल होने का दावा किया था लेकिन यह दावा सिर्फ कोरा दावा था जिसके पुलिस के पास कोई साक्ष्य नहीं थे।

अब अहौ दारयाई को भी पुलिस ने पकड़ लिया है, महसा अमीनी की तरह उसके भी मानसिक रूप से बीमार होने का दावा किया जा रहा है। अमेरिका के राजनीतिक टिप्पणीकार जैक्सन हिंकले ने जब लड़की को मानसिक रूप से बीमार बताया तो मानवाधिकार कार्यकर्ता अजाम जानगरवी ने इस पर तल्ख टिप्पणी की। जानगरवी ने कहा, “मैंने जब हिजाब अनिवार्य किए जाने के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन किया था तो सुरक्षा बलों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया था।” उन्होंने लिखा, “मेरे परिवार वालों पर दबाव डाला गया कि वे मुझे मानसिक रूप से बीमार बताएं। ईरान इसी तरह मानसिक रूप से बीमार बताकर महिलाओं को डिसक्रेडिट करता है।” हो सकता है कि यही ईरान का वो पैटर्न हो जिसके जरिए वो अपने हक में आवाज उठाने वाली महिलाओं को कैदखाने में बंद कर देता हो।

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल की ईरान शाखा ने दारयाई की गिरफ्तारी पर प्रतिक्रिया देते हुए ‘X’ पर लिखा है, “हिंसक तरीके से गिरफ़्तार की गई छात्रा को ईरानी अधिकारियों को तुरंत और बिना शर्त रिहा करना चाहिए। युवती ने जबरन हिजाब पहनने के लिए दुर्व्यवहार किया और इसके विरोध में उसने अपने कपड़े उतार दिए थे।” एमनेस्टी ने एक्स पर लिखा है, “अधिकारियों को उसके साथ अत्याचार और अन्य दुर्व्यवहार को रोकना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके परिवार के सदस्यों को वकील मिल सके। हिरासत के दौरान उनके खिलाफ मारपीट और यौन हिंसा के आरोपों की स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से जांच की जानी चाहिए।”

Iran’s authorities must immediately & unconditionally release the university student who was violently arrested on 2 Nov after she removed her clothes in protest against abusive enforcement of compulsory veiling by security officials at Tehran’s Islamic Azad University. 1/2 pic.twitter.com/lI1JXYsgtm

— Amnesty Iran (@AmnestyIran) November 2, 2024

जेल में बंद नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और ईरान की मानवाधिकार कार्यकर्ता नरगिस मोहम्मदी के इंस्टाग्राम अकाउंट से भी दारयाई के समर्थन में टिप्पणी की गई है। महिलाओं के अधिकारों के लिए 20 से अधिक वर्षों की लड़ाई लड़ने वाली नरगिस ने कहा, “महिलाओं को आदेश न मानने की कीमत चुकानी पड़ती है लेकिन वे किसी ताकत के आगे झुकती नहीं हैं। यूनिवर्सिटी में विरोध करने वाली इस युवती का ‘शरीर’ प्रतिरोध, क्रोध की तीव्रता और विद्रोह का प्रतीक है।” नरगिस के इंस्टाग्राम पर आगे लिखा गया है, “अपमान और उत्पीड़न के इन क्षणों में ईरानी महिलाओं ने जो कुछ सहा है, उसे याद करना भयावह और असहनीय है।”

अपने हक के लिए समाज से लड़ती इन महिलाओं की लड़ाई नई नहीं है, ना ही बहुत छोटी है। भारत में भी महिलाओं के एक वर्ग को यह एहसास दिलाने की कोशिश की जाती है कि उन्हें बिना हिजाब के नहीं रहना चाहिए। कुछ कट्टरपंथी सोच के लोग महिलाओं के मन को भटकाने की ऐसी कोशिशें करते हैं कि वे स्कूल तक में हिजाब की मांग करने लगती हैं। जब महिलाओं की इसके लिए तैयार कर दिया जाता है तो फिर इसे उनकी खुद की सोच बताकर उन पर ही थोपने की कोशिश की जाती है। इनके पीछे महिलाओं को सांस्कृतिक व धार्मिक पहचान का हवाला दिया जाता है और केवल हिजाब पहनने वाली महिलाओं को उदाहरण दिए जाते हैं।

दरअसल, महिलाओं को एक खांचे में सीमित रखने के पीछे की बड़ी वजह उनकी सोच को कैद कर देना है। एक आम धारणा है कि मां किसी भी बच्चे की पहली शिक्षक होती है ऐसे में महिलाओं को मानसिक कैद में रखने की सोच की बड़ी वजह है कि उनकी सोच जितनी विस्तृत होगी उतनी ही आने वाली पीढ़ी की भी होगी। दुनिया पर दकियानूसी खयालों के जरिए राज करने वाले लोग शायद नहीं चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियां आजाद खयाल हो, वे उनकी परंपराओं पर प्रश्न उठाए या उनसे सवाल जवाब करें। ऐसे में महिलाओं को सीमित कर समाज के बड़े वर्ग को ही नहीं बल्कि आने वाले नस्लों को भी संकीर्ण बनाने की कोशिश की जाती है।

महिलाओं की स्वतंत्रता की यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी। महसा अमीनी या अहौ दारयाई जैसी सैंकड़ों, हजारों और लाखों महिलाएं अपने हक के लिए सड़कों पर आती रहीं हैं और आगे भी आती रहेंगी। इसी सोच के साथ कि एक दिन तो सब बदलेगा, उन्हें अपने मन के मुताबिक कपड़े पहनने, गुनगुनाने की आजादी होगी, किसी दिन उम्मीद के इंद्रधनुष के सारे रंग उन महिलाओं की जिंदगी में भर जाएंगे।

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