राजा प्रियंवद को संतान मिली, कवि मयूरभट्ट का कुष्ठ रोग ठीक हुआ: छठ से जुड़ी वो कथाएँ, जिन्हें नहीं जानते हैं आप

छठ पूजा का जिक्र महाभारत में भी मिलता है। कहा जाता है कि जब पांडवों ने अपना राज्य खो दिया तो द्रौपदी ने परिवार को कठिनाइयों से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान सूर्य की उपासना की थी।

छठ महापर्व, सूर्य पूजा

राजा प्रियंवद ने देवी देवसेना के कथनानुसार पुत्र प्राप्ति की कामना से देवी षष्ठी का व्रत किया, इसके बाद उन्हें एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई (प्रतीकात्मक चित्र)

छठ पूजा का महापर्व पूरे देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी पूरे हर्षोउल्लास के साथ मनाया जा रहा है। इस दिन भगवान सूर्य देव और छठी मईया की आराधना की जाती ही। भोजपुरी, मगधी, मैथली, बंगाली, नेपाली से लेकर तमाम लोग इस पर्व को पूरी श्रद्धा एवं भक्ति के साथ मनाते हैं।

छठ को छठी पूजा या षष्ठी पूजा कहा जाता है। यह कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। यह एक ऐसा पर्व है, जिसमें कोई आडंबर या कर्मकांड नहीं है। यह वैदिक काल से ही अपने मूल रूप में आज भी मनाया जाता है। अब यह पर्व बिहार होते हुए भारतीय संस्कृति का प्रमुख अंग बन गया है।

छठ पूजा और धर्मग्रंथ

छठ पूजा का जिक्र वेद से लेकर विभिन्यन धर्मग्रंथों में है। चार वेदों में सबसे पुराने माने जाने वाले ऋग्वेद में भगवान सूर्य एवं उनकी पत्नी उषा एवं प्रत्यूषा पूजन की परंपरा है। उषा बह्मा की पुत्री थी। उषा एवं प्रत्यूषा को शक्ति एवं प्रकृति के रूप में भी पूजा जाता है। कहा जाता है कि यही दोनों की सूर्य की असली शक्ति हैं। संध्याकाल में प्रत्युषा को अर्घ्य दिया जाता है और प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण उषा को अर्घ्य दिया जाता है। ऋग्वेद में सूर्य को जीवनदायिनी ऊर्जा का स्रोत माना गया है।

इसके अलावा, कहा जाता है कि भगवान राम और माता सीता के साथ 14 वर्षों का वनवास काटकर जब अयोध्या लौटे तो पूरी अयोध्या जगमगा उठी। उस दिन दिवाली मनाई गई। इसके छह दिन बाद भगवान राम और माता सीता ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन सूर्य देव और छठी मईया की पूजा की। इस पूजा के परिणामस्वरूप अयोध्या के लोग सुखी और समृद्ध हुए।

छठ पूजा का जिक्र महाभारत में भी मिलता है। कहा जाता है कि जब पांडवों ने अपना राज्य खो दिया तो द्रौपदी ने परिवार को कठिनाइयों से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान सूर्य की उपासना की थी। इस उपासना का लाभ भी मिला और उन्होंने अपना खोया हुआ राज्य फिर से प्राप्त किया। वहीं, कुंतीपुत्र कर्ण भी अपनी शक्ति के लिए सूर्य की पूजा करते थे और उन्हें प्रतिदिन सुबह एवं संध्या को अंजुलि से अर्घ्य दिया करते थे।

एक अन्य कथा महाराजा प्रियंवद और महर्षि कश्यप को लेकर भी है। राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी। उन्होंने महर्षि कश्यप से अपनी चिंता जाहिर की तो उन्होंने पुत्र प्राप्ति एक यज्ञ करवाया। यज्ञ की आहुति वाला खीर राजा ने अपनी पत्नी मालिनी को खाने के लिए दी। इसके बाद रानी को एक पुत्र हुआ, लेकिन वह मृत था। राजा का शोक और बढ़ गया। राजा प्रियंवद प्राण त्यागने के लिए श्मशान पहुँचे।

इतना धर्मनिष्ठ राजा को ऐसा शोक देखकर सारे देवता परेशान हो गए। वे ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा की मानसपुत्री देवी देवसेना वहाँ प्रकट हुई। उन्होंने कहा , “हे राजन्, मैं सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हूँ, इसलिए मुझे षष्ठी कहा जाता है। आप मेरी पूजा करें और अन्य लोगों को भी इस पूजा के लिए प्रेरित करें।”

राजा प्रियंवद ने देवी देवसेना के कथनानुसार पुत्र प्राप्ति की कामना से देवी षष्ठी का व्रत किया। इसके बाद उन्हें एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन संपन्न हुई थी। कहा जाता है कि एक तब से छठ पूजा मनाया जाता है।

छठ पूजा का महात्म्य

मयूरभट्ट नाम के एक ब्राह्मण कवि महाराजा भोज की सभा के रत्न थे। उनके बहनोई थे कादंबरी के रचयिता महाकवि बाणभट्ट। दोनों रिश्तेदार ही नहीं, दोस्त भी थे। कवि थे दोनों कविता को लेकर अधिकतर चर्चा करते रहते थे। एक दिन बाणभट्ट की पत्नी किसी बात पर उनसे रूठ गई। मनाने पर भी वह नहीं मानी। इसी तरह सारी रात बीत गई। सवेरा होने को था। तभी बाणभट्ट ने पत्नी को मनाने के लिए एक कविता दोहराने लगे-

गतप्राया रात्रिः कृशतनुशशी शीर्यत इव,

प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णित इव ।

प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहो,

अर्थात्, हे प्रिये! रात समाप्त होने को आ गई। चंद्रमा अस्त हो रहा है और सारी रात जागे इस दीपक को भी नींद के झोंके आ रहे हैं। प्रणाम से मान की समाप्ति हो जाती है, पर मेरे सिर नवाने पर भी तुम अपना गुस्सा नहीं छोड़ रही हो…।

बाणभट्ट इसके आगे नहीं समझ पा रहे थे और इन्हीं पंक्तियों को बार-बार दोहरा रहे थे। इसी दौरान मयूरभट्ट ने अपने बहनोई की इन पंक्तियों को सुन लिया। वे जान गए बाणभट्ट को इससे आगे नहीं सूझ रहा है। इसके बाद उन्होंने चौथी पंक्ति बना बनाई को दरवाजे के बाहर से चिल्ला कर बाणभट्ट को सुना दिए। यह पंक्ति थी-

कुचप्रत्यासत्त्या हृदयमपि ते चण्डि कठिनम् ।

(जैसे उनके निकट होने के कारण तेरे कुच (स्तन) कठोर हैं, हे चण्डी! तेरा हृदय भी वैसा ही कठिन हो गया है।)

बाणभट्ट की पत्नी ने अपने भाई की इन पंक्तियों को सुना तो वह आग-बबूला हो गई। बहन ने अपने भाई मयूरभट्ट को कुष्ठ रोगी होने का श्राप दे दिया। इस पर मयूरभट्ट अनुनय-विनय करने लगे। जब बहन का क्रोध शांत हुआ तो उसे पछतावा हुआ। उसने मयूर भट्ट को उपाय बताया कि वह प्रतिदिन सूर्य करे, तभी श्राप कटेगा।

कहा जाता है कि मयूरभट्ट बिहार के औरंगाबाद के दाउदनगर प्रखंड के मयार (अब शमशेर नगर) के मूल निवासी थे। वही, बगल में देव नामक स्थान स्थित है, जहाँ पर त्रेता युग का एक सूर्य मंदिर स्थित है। कहा जाता है कि 12 लाख 16 हजार साल पहले ब्रह्मा ने स्वयं इसे बनवाया था। यहाँ पर ब्राह्मी लिपि में मिले शिलालेख में इस मंदिर की अवधि तकरीबन 1 लाख 50 हजार 23 वर्ष है।

मयूरभट्ट देव में आकर रहने लगे। वे प्रतिदिन वहाँ स्थित एक कुंड में स्नान करते, जिसे आज सूर्यकुंड कहा जाता है। इसके बाद सूर्य की पूजा करते। इसके लिए वे प्रतिदिन एक श्लोक बनाते। कहा जाता है कि सौ श्लोक पूरे होने पर मयूर का कुष्ठ ठीक हो गया।इन सौ श्लोकों के संग्रह ‘सूर्य शतक’ के नाम से जाना जाता है।

मानसिक बीमारियों से मुक्ति का माध्यम है छठ

इस तरह छठ पूजा को कुष्ठ एवं मानसिक बीमारियों की मुक्ति का बड़ा माध्यम माना जाता है। मान्यता है कि सच्चे मन से की गई छठ पूजा का फल जरूर मिलता है। छठ करने वालों को कुष्ठ नहीं होता है और कुष्ठ रोगियों का कुष्ठ ठीक हो जाता है। असाध्य बीमारियों वाले लोग भी छठ पूजा करते हैं। यही कारण है कि बिहार की मुस्लिम महिलाओं की एक बड़ी आबादी छठ पूजा करती है।

छठ पूजा चार दिनों का कठिन व्रत है। इसकी शुरुआत नहाय-खाय से होती है। व्रती इस दिन शुद्ध सात्विक भोजन करते हैं। इसमें कद्दू-भात और चने की दाल होती है। इन्हें मिट्टी के चूल्हे पर लड़की से पकाया जाता है। इसके बाद व्रत के दूसरे दिन खरना होता है। इस दिन व्रती पूरे दिन बिना पानी पीए उपवास रखते हैं। शाम को पूजा करने के बाद प्रसाद के रूप में गुड़ की खीर, रोटी और फल खाते हैं। इसके बाद 36 घंटे का फिर से निर्जला व्रत आरंभ हो जाता है।

तीसरे दिन शाम को छठ के घाट पर व्रती अस्ताचल सूर्य को अर्घ्य देते हैं। इस दिन सूर्य और उनकी पत्नी पत्यूषा को अर्घ्य अर्पित किया जाता है। इसके बाद अगले दिन सुबह-सुबह उगते सूर्य को उनकी पत्नी उषा के साथ अर्घ्य दिया जाता है। इसके साथ ही चार दिवसीय छठ व्रत की समाप्ति हो जाती है। व्रती घर आकर प्रसाद खाकर अपना उपवास तोड़ते हैं।

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