ऋषि–मुनियों एवं संतों की पवित्र भूमि भारत में ज्ञान की वैविध्य सभ्यता अत्यंत प्राचीन है। इस सभ्यता का विकास विविध कालखण्डों में इसी धरा पर जन्मे संतों, भक्तों आदि ने किया है। भारत की सभ्यता, संस्कृति का अध्ययन करने के दौरान हम पाते हैं कि यहाँ अनेक ऐसी विभूतियों ने जन्म लिया है जिनके वचनों तथा जीवन कर्मों के माध्यम से हमारे समाज और वृहत्तर मानवता को अपने युग के श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों का ज्ञान हुआ है।
मध्यकाल में जब कबीर, रैदास जैसे सन्त निर्गुण पंथ के माध्यम से तथा मीरा और सूर जैसे भक्त सगुण भक्ति से ज्ञान की चेतना को जाग्रत करने के लिए प्रयत्नशील थे उसी दौर में 1469 ई. में कार्तिक पूर्णिमा के दिन सिखों के प्रथम गुरु गुरुनानक देव जी का जन्म हुआ था। गुरुनानक जयंती, जिसे ‘गुरपुरब‘ के नाम से भी जाना जाता है, सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी के जन्मदिन को श्रद्धा और आदर के साथ मनाने का पर्व है। यह पर्व न केवल सिख समुदाय बल्कि समूचे भारतवर्ष में प्रेम, भाईचारे और आध्यात्मिकता का प्रतीक माना जाता है। गुरुनानक देव जी व्यक्तित्व से दार्शनिक, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, एकेश्वरवादी एवं गृहस्थ जीवन के पैरोकार, विश्वबंधुत्व के गुण समेटे हुए मानव कल्याण हेतु नीतियों का प्रतिपादन करने वाले थे। इनका जन्मस्थान रावी नदी के तट पर स्थित तलवंडी राय भोई गाँव है। कालांतर में इनके जन्मस्थान को ‘ननकाना साहिब‘ कहा जाने लगा। इनकी माता का नाम तृप्ता देवी एक गृहिणी थीं तथा पिता कालूराम एक पटवारी थे।
नानक अधिक पढ़े–लिखे तो नहीं थे किंतु उनका आंतरिक ज्ञान बेहद छोटी अवस्था से ही प्रकट होने लगा था। बचपन में ये अपना अधिकांश समय बड़ी बहन नानकी के साथ व्यतीत करते थे। सोलह वर्ष की आयु हो जाने पर नानक का विवाह सुलखनी देवी नामक कन्या के साथ हुआ। कुछ समय पश्चात इनकी पत्नी ने दो पुत्रों को जन्म दिया। जिनके नाम श्रीचंद और श्री लक्ष्मी चंद था। गृहस्थ जीवन दर्शन को मूर्त रूप देने वाले नानक ने अत्यंत कम आयु में ही परमात्मा के वास्तविक तत्व को समझ लिया था। वे केवल सत्य के सम्मुख ही नतमस्तक होते थे। किसी भी अंधविश्वास एवं बाह्याडंबर के प्रति उनकी तनिक भी श्रद्धा नहीं थी।
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन में कई यात्राएं की, जिन्हें ‘उदासियां’ के नाम से जाना जाता है। इन यात्राओं के दौरान उन्होंने अलग–अलग क्षेत्रों में जाकर लोगों को धार्मिक और सामाजिक मूल्यों का पाठ पढ़ाया। कहा जाता है कि इन यात्राओं के दौरान इन्होंने अपने जीवन में कई चमत्कार किए। कहते हैं जब 1505 में गुरुनानक जी दिल्ली आए तो वह GT रोड के ऊपर सब्जी मण्डी के बाहर एक बाग में ठहरे। कहा जाता है कि उस समय इस इलाके में रहने वाले लोगों को स्वच्छ पीने का जल उपलब्ध नहीं था। वहाँ की भूमि से निकलने वाला पानी खारा था , जिसके कारण लोग काफी परेशान हो रहे थे। तभी गुरु नानक देव जी ने वहाँ अपनी साधना से जमीन से मीठा पानी निकाला। जिसके बाद यहाँ के तमाम लोगों ने वह मीठा व स्वच्छ जल पिया। बाग के मालिक ने यह बाग गुरु के चरणों में भेंट कर दिया। तब से यहाँ यादगारी स्थान बनवा दिया जो ‘श्री गुरु नानक प्याऊ दी संगत’ करके प्रसिद्ध हो गया।
इन्होंने मुस्लिमों के पवित्र तीर्थ मक्का में भी एक चमत्कार किया था। कहा जाता है कि एक बार ये अपने शिष्य मरदाना की जिद पर मक्का मदीना गए। मक्का पहुँचने पर अपनी थकान मिटाने के लिए नानक देव ने मस्जिद में ही आराम करने का फैसला किया और वह अपने पैर काबा की ओर करके सो गए जहाँ जिसे अल्लाह का घर माना जाता है। वहाँ के एक सेवादार ने जब इन्हें काबा की ओर पैर किये सोते देखा तो गुस्से से तमतमाते हुए बोला कि कौन है यह काफ़िर, नास्तिक जो काबा की ओर पैर करके सोया हुआ है? चिल्लाने की आवाज से नानक की नींद खुल गई। उन्होंने बड़ी सहजता से कहा, “हे महोदय, मुझे खेद है, मुझे नहीं पता था कि खुदा का दरबार किधर है। मैं काफी थका हुआ हूँ अतः तुम मेरे पैरों की दिशा उधर कर दो जहाँ अल्लाह का दरबार न हो। इतना सुनकर और ज्यादा आगबबूला होकर सेवादार ने इनके पैरों को घसीटते हुए दूसरी दिशा में कर दिया। जब उसने पैरों को छोड़ा तो देखा कि काबा की दिशा भी बदलकर पैरों के समक्ष ही आ गयी। नानक का यह चमत्कार देखकर वहाँ हर कोई हैरान रह गया। काबा के मुख्य इमाम को जब इसकी जानकारी हुई तो उसने गुरुनानक की खड़ाऊँ निशानी के तौर पर ले लीं। कहा जाता है कि आज भी गुरुनानक का वह खड़ाऊँ मक्का में देखा जा सकता है। गुरुनानक के चमत्कारों से जुड़े ऐसे और भी प्रसंग हमें प्राप्त होते हैं किंतु उन सभी चमत्कारों का निहितार्थ वस्तुतः लोकल्याण से जुड़ा हुआ है।
तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थितियों पर नज़र डालें तो इस समय अनेक ऐसी विसंगतियां मौजूद थीं जो समाज मतभेद डाल रही थीं। इस्लामी कट्टरपन की वजह से समस्त जनता ऊब चुकी थी। हम जानते ही हैं कि यह दौर मुगल सत्ता का था। धार्मिक संकीर्णता के इसी दौर में नानक देव जी ने सिख पंथ की स्थापना की। नानक जी ने ‘सर्वमहान, सत्य सत्ता’ की पूजा का सिद्धांत प्रतिपादित किया। सिख के शाब्दिक अर्थ पर चर्चा करें तो इसका अर्थ है – ‘शिष्य’ अर्थात् सिख ईश्वर के शिष्य हैं। सिख परंपरा के अनुसार, सिख धर्म की स्थापना गुरु नानक द्वारा की गई थी और बाद में नौ अन्य गुरुओं ने इसका नेतृत्व किया। इस प्रकार सिखों के पहले गुरु नानक देव जी ही थे। सिख धर्म के तीन कर्त्तव्य बताए गए हैं– नाम जपना, कीरत करना, वंड छकना। इसके साथ पाँच दोष भी हैं – लोभ, मोह, अहंकार, काम और क्रोध।
एक समाज सुधारक के रूप में भी गुरुनानक देव ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। आज के युग में, जहाँ हम भौतिकता और स्वार्थ की ओर बढ़ते जा रहे हैं, गुरु नानक देव जी के उपदेश हमें सच्चे अर्थों में मानवता का मार्ग दिखाते हैं। उनकी शिक्षाएँ हमें दूसरों के प्रति करुणा, स्नेह, और समानता का व्यवहार सिखाती हैं। ‘नाम जपो‘ का अर्थ है कि हम ईश्वर का स्मरण करें और अपने जीवन में सकारात्मक ऊर्जा बनाए रखें। ‘कीरत करो‘ का अर्थ है कि ईमानदारी से अपने कार्यों को करें, और ‘वंड छको‘ का संदेश हमें दूसरों के साथ अपनी खुशियाँ और संसाधन साझा करने का प्रेरणा देता है। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा शुरू किए गए अनेक संस्थानों का निहितार्थ समरसता तथा सामाजिक एकता है।
उदाहरणार्थ लंगर, पंगत और संगत उनके द्वारा ही शुरू किए गए थे जो आज भी गुरुद्वारों में देखे जा सकते हैं। जहाँ लंगर में सामूहिक रूप से भोजन बनाना और वितरण होता है तो वहीं पंगत में तथाकथित उच्च एवं निम्न जातियाँ बिना किसी भेद भाव के साथ एक साथ भोजन करते हुए समरसता का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। संगत में भी यही दिखता है जिसका निहितार्थ है सामूहिक रूप से निर्णय लेना अर्थात सभी को ध्यान में रखते हुए साथ–साथ आगे बढ़ना। उनके दोहों में भी उनके यही विचार परिलक्षित होते हैं–
“सब को ऊंचा आखिए नीच न दीसै कोई,
इकनै भांडे साजिए इक चानण तिह लोइ।“
इस तरह धार्मिक गुरु होने के साथ ही गुरुनानक देव एक समाजसुधारक एवं दार्शनिक भी थे। साथ ही उन्होंने काव्यरचना भी की। कबीर आदि निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों में नानक का नाम भी लिया जाता है। गुरु नानक देव जी का हिंदी साहित्य में प्रत्यक्ष योगदान सीमित है, क्योंकि उन्होंने अपने विचार मुख्यतः पंजाबी, गुरुमुखी लिपि और अन्य भाषाओं में व्यक्त किए। उनके लेखन का संग्रह गुरु ग्रंथ साहिब में मिलता है, जिसमें उन्होंने पंजाबी, ब्रजभाषा, और खड़ी बोली के अलावा फारसी और सिंधी जैसी भाषाओं का भी प्रयोग किया है। हालांकि, उनका प्रभाव हिंदी साहित्य और भारतीय भाषा–संस्कृति पर गहरा और व्यापक है। गुरु नानक देव जी का हिंदी साहित्य में योगदान प्रत्यक्ष रूप से नहीं, बल्कि उनकी शिक्षाओं, विचारों और सामाजिक सुधारों के माध्यम से दिखता है। उनके दर्शन ने हिंदी साहित्य को मानवीय मूल्यों, आध्यात्मिक चेतना और सामाजिक समानता के सिद्धांतों से समृद्ध किया।
उनका संदेश न केवल सिख धर्म बल्कि हिंदी साहित्य के लिए भी प्रेरणादायक है। गुरु नानक देव जी ने सरल, सहज और जनसामान्य को समझ में आने वाले छंदों और श्लोकों में अपने विचार व्यक्त किए। उनकी रचनाएँ दार्शनिक, आध्यात्मिक और सामाजिक चिंतन का अद्भुत संगम हैं। उनकी भाषा में गेयता और मधुरता है, जो हिंदी साहित्य में भक्ति काव्य के साथ सामंजस्य बैठाती है। हिंदी साहित्य के भक्ति आंदोलन में गुरु नानक देव जी का बड़ा योगदान है। उनके उपदेशों ने समाज में समरसता, प्रेम, और आध्यात्मिकता का प्रसार किया। उनकी शिक्षाएँ कबीर, रैदास और अन्य संत कवियों के विचारों के समान थीं, जिनका प्रभाव हिंदी साहित्य पर स्पष्ट दिखता है। उदाहरण के लिए वे धार्मिक कट्टरपन के उस दौर में बंटे समाज को सिखाते हैं कि सब एक ही परमात्मा से जन्मे हैं–
“अवल अल्लाह नूर उपाइया कुदरत के सब बंदे,
एक नूर से सब जग उपजया को भले को मंदे।“
इस तरह गुरुनानक जी के विचारों से समाज में परिवर्तन हुआ। नानक जी ने करतारपुर (पाकिस्तान) नामक स्थान पर एक नगर को बसाया और एक धर्मशाला भी बनवाई। नानक जी की मृत्यु 22 सितंबर 1539 ईस्वी को हुई। इन्होंने अपनी मृत्यु से पहले अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी बनाया, जो बाद में गुरु अंगद देव नाम से जाने गए।