पोस्ट ट्रुथ काल में ट्रुथ की बेजा उम्मीद: चुनावी सर्वेक्षणों का ये है सच, राजनीतिक दलों से एजेंसियों के करार

अब सोचिये कि जिस संस्था का मूल काम सर्वेक्षण करना हो ही नहीं, समाचार इकट्ठा करना हो, उसके पास वास्तविक डेटा और फर्जी डेटा में अंतर करने योग्य कितने लोग होंगे?

एग्जिट पोल

एग्जिट पोल मनोरंजक चाहे जितना भी लगे, लेकिन इनमें सच्चाई का अंश बहुत मामूली है

मार्केट रिसर्च की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है फर्जी फॉर्म की पहचान करके उन्हें छांटना। आप कहेंगे ये फर्जी फॉर्म क्या होता है? तो जमीनी स्तर पर SPSS या पाइथन जैसे सॉफ्टवेयर इत्यादि इस्तेमाल करना, सर्वेक्षण का डिजाईन बनाना, या फिर सांख्यकी (स्टेटिस्टिक्स) उतनी कठिन चीजें नहीं होती। होता क्या है कि सवालों को जिस फॉर्म पर सवाल प्रिंट करके सर्वेक्षणकर्ताओं को दिए जाते हैं, ताकि वो उत्तरदाताओं के जवाब रिकॉर्ड कर सकें, उसके साथ ही उन्हें एक टारगेट भी मिलता है – दिन में इतने फॉर्म भरवाने हैं। लोग आसानी से सर्वे करने वालों को जवाब नहीं देते और शाम तक टारगेट पूरा नहीं होता। ऐसे में कई बार फॉर्म भरवाने वाले बेईमानी करते हैं, यानी खुद ही फॉर्म अपनी मर्जी से भर डालते हैं।

चूँकि दस फॉर्म वो वास्तविक उत्तर देने वालों से भरवा चुके होते हैं, इसलिए उन्हें पता है कि जवाब क्या आ सकता है। तो असली फॉर्म, उत्तरदाता का भरा हुआ कौन सा है, और कौन सर्वेक्षक ने खुद ही भर दिया है, इसकी पहचान करना सिर्फ अनुभवी लोगों के लिए संभव है।

अब सोचिये कि जिस संस्था का मूल काम सर्वेक्षण करना हो ही नहीं, समाचार इकट्ठा करना हो, उसके पास वास्तविक डेटा और फर्जी डेटा में अंतर करने योग्य कितने लोग होंगे? समाचार कंपनियों, जी हाँ, हरेक न्यूज़ चैनल एक प्राइवेट लिमिटेड या प्रोप्राइटरशिप कंपनी ही है; ऐसी न्यूज़ प्रदर्शित/प्रकाशित करने वाली कंपनियां कैसे जाँचेंगी कि जो आंकड़े उनके पास किसी प्री-पोल सर्वे से आये हैं, वो असली हैं भी या नहीं? जो परिणाम उन्हें बताये जा रहे हैं, उसमें गड़बड़ी एक दूसरे स्तर पर भी संभव है। आज का मतदाता उतना भोला-भाला भी नहीं होता जितना चुनाव लड़ने उतरे नेताजी बताते हैं। उसे अच्छी तरह पता है कि Zee न्यूज़ वाले सर्वेक्षक को क्या उत्तर देना है और NDTV वाले को क्या जवाब देना है। समाचार में उसका चेहरा दिख जाये, इस हिसाब से उत्तरदाता जवाब देता है और बेचारा इंटर्न जिसे फील्ड में भेजकर किसी एसी दफ्तर में बैठे न्यूज़ एडिटर साहब सोच रहे हैं कि कैमरे पर सभी सही जवाब रिकॉर्ड तो हो रहे हैं, वो नया इंटर्न अनुमान ही नहीं लगा पाता कि उसे गलत जवाब दिया जा रहा है। पैनल डिस्कशन में सच्चाई बाहर नहीं आती क्योंकि रोज न्यूज़ का पैनल बदलता नहीं – एक ही इकोचैंबर, वही पुराने लोग रोज होते हैं।

इसके बाद अगर आप ये उम्मीद कर रहे हैं कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में आपको अनुमान हो जाएगा कि कौन जीतने वाला है तो चलिए एक और कमी भी देख लेते हैं। एक करोड़ मतदाताओं के कितने प्रतिशत में सर्वेक्षण करने पर अनुमान सही लगाया जा सकता है? कम से कम पांच प्रतिशत का सर्वेक्षण तो करेंगे न? अगर सर्वेक्षण 5000 लोगों में किया है तो आपने 0.05% का सर्वेक्षण किया है, इतने पर कौन से नतीजों की उम्मीद कर रहे हैं? तो जिन चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों की रिपोर्ट लेकर टीवी पैनल पर बड़ी-बड़ी बहसें चल रही होती हैं, वो एंटरटेनमेंट से अधिक और क्या हैं?

दस हजार लोगों के मतदान के बारे में पांच लोगों से पूछकर कुछ पता चलेगा, ऐसा सोचना ही एक मजाक है। कुछ लोग सोच सकते हैं कि बड़े पत्रकारों को कुछ तो पता चलता होगा? तो सीधा नाम ही सोचकर ये बताइये कि रवीश कुमार या बरखा दत्त से रोज मिलने वाले लोगों में से कितने लोग भाजपा के मतदाता होंगे? सुधीर चौधरी से कितने कांग्रेस समर्थक मिलते जुलते होंगे? अर्नब गोस्वामी के पास उद्धव ठाकरे को वोट देने वाला जाता होगा? नहीं, ये सभी के सभी केवल एक ही पक्ष में बात कर सकते हैं, इसे समझने के लिए कोई रॉकेट साइंस जानना जरूरी नहीं।

शाम के समाचारों का दौर दूरदर्शन के शाम 7-8 बजे वाले समाचार देखने वाली पीढ़ी के साथ ही बीत चुका है। बहुत पहले जब स्टार जैसे चैनल और प्रनॉय रॉय जैसे लोगों ने इस चुनावी सर्वेक्षणों के बाजार में हाथ डाला था, उसी समय से बदलाव शुरू हो गए थे। एक पार्टी का प्रवक्ता दूसरी पार्टी के किसी नेता पर टूट पड़े, बहसें बिलकुल एक दूसरे के कपड़े फाड़ देने के स्तर तक उतर आये, इसके प्रयास काफी पहले शुरू हो गए थे। जिस दौर में चुनावी सर्वेक्षणों के लिए प्रनॉय रॉय “द वर्डिक्ट” जैसी किताबें लिख रहे थे, उसी दौर में सर्वेक्षणों को उचित वैज्ञानिक रीति से करने पर भी बात शुरू हुई थी।

एन. भास्कर राव जैसे लोगों ने टीवी पर जो सर्वेक्षण चुनावों के दौर में नजर आते हैं, उनपर किताब लिखी है। इस बात पर केवल अफसोस किया जा सकता है कि जिन विषयों को एक अकादमिक विषय की तरह पढ़ना-समझना, उनपर बात करने से पहले जरूरी था, उन्हें केवल मसालेदार बेस्ट सेलर्स से पढ़ा गया। नतीजा ये हुआ कि दर्शकों को भी कम से कम डेढ़-दो दशक से वही अधकचरा ज्ञान परोसा जा रहा है।

जैसे-जैसे पोस्ट पोल यानी चुनावों के बाद और नतीजों से पहले वाले सर्वेक्षण बंद करवाकर व्यवस्था को थोड़ा सुधारने की ओर सरकारें बढ़ीं, चुनाव आयोग इत्यादि ने कदम उठाने शुरू किये, भारत में अलग से केवल चुनावी सर्वेक्षण करवाने वाली कंपनियां भी आई। इनके काम में समस्या ये आती है कि कई बार ये किसी न किसी राजनैतिक दल से पहले ही सर्वेक्षण का कॉन्ट्रैक्ट किये बैठे होते हैं। ऐसी स्थिति में राजनैतिक दल की मंशा से इतर जाकर पूरा सच ये किसी टीवी चैनल पर बता दें, ये उस करार के कारण संभव ही नहीं जिसपर इन्होंने पहले ही हस्ताक्षर कर रखे हैं। तो कुल मिलाकर जनता को ये समझना होगा कि 1) समय सीमा, 2) आर्थिक मजबूरियां, 3) उचित जानकारी और प्रशिक्षण, 4) राजनैतिक प्रतिबद्धता एवं 5) TRP का मोह जैसे मुख्य कारण हैं, जिनका असर हमें टीवी पर दिखाए जाने वाले टीवी सर्वेक्षण में दिखाई देता है। ये मनोरंजक चाहे जितना भी लगे, लेकिन इनमें सच्चाई का अंश बहुत मामूली है।

सबसे अंत में बारी आती है उन यूट्यूब चैनल्स की जो आजकल ऐसे सर्वेक्षण का दावा करते हैं। इनके पास सर्वेक्षण करने के लिए 100-50 कर्मचारी नहीं होते। आर्थिक संसाधन सीमित होते हैं। इनका ऑडियंस यानी दर्शक वर्ग भी पहले से ही एक विशेष राजनैतिक झुकाव का होता है। जब उद्देश्य ही अपने दर्शक वर्ग को गुदगुदाना, उन्हें खुश कर देना भर हो, तो सच से इनकी कितनी नजदीकी होगी? कुल मिलाकर चुनावी सर्वेक्षणों में भारतीय जनता को आज या कल के किसी निकट भविष्य में सच्चाई दिखाई जाएगी, इसकी संभावना बहुत क्षीण है। जिस दौर में हम हैं, उस तथाकथित “पोस्ट ट्रुथ” काल में कोई “ट्रुथ” को सोशल मीडिया पर भी “पोस्ट” कर देने की हिम्मत दिखायेगा, ऐसा होता तो नहीं दिखता।

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