इस्लाम न कबूलने पर जिनके 80 वर्षीय पिता की हत्या: दिल्ली के अंतिम हिन्दू शासक ‘हेमचन्द्र विक्रमादित्य’, बेहोशी की स्थिति में काटा था सिर

उन्होंने गोहत्या पर प्रतिबंध लगाया और भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए कठोर कदम उठाए

हेमू, हेमचन्द्र विक्रमादित्य

हेमू ने 6 अक्टूबर, 1556 को तुगलकाबाद में मुगलों की सेना को निर्णायक रूप से हराया

भारत की धरती पर एक से बढ़कर एक योद्धाओं ने जन्म लिया। ये इतिहास पुरुष बन चुके हैं। उन्हीं में से एक नाम हेमचंद्र विक्रमादित्य या हेमू का है। दिल्ली के इस अंतिम हिंदू सम्राट को मध्यकाल का नेपोलियन के रूप में भी जाना जाता है। उनकी वीरता और रणनीतिक कौशल के कारण उनका नाम इतिहास में अमर रहेगा। 5 नवंबर को उनकी पुण्यतिथि है, और यह अवसर उनके अद्वितीय योगदान को याद करने का है।

हेमू का जन्म 1501 में राजस्थान के अलवर जिले के माछेरी गाँव में हुआ था। हालांकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उनका मूल निवास बिहार के सासाराम में था। उनका परिवार एक सामान्य व्यापारी परिवार था, लेकिन हेमू ने अपनी मेहनत और साहस के दम पर एक असाधारण सफलता हासिल की। वह शेरशाह सूरी के शासनकाल में रसद आपूर्ति का कार्य करते थे और जल्द ही उनके करीबी विश्वासपात्र बन गए। शेरशाह की मृत्यु के बाद उसके बेटे इस्लाम शाह ने हेमू को अफगान सेना का सेनापति और प्रधानमंत्री नियुक्त किया।

हेमू की राजनीति और सैन्य क्षमता का परीक्षण तब हुआ जब इस्लाम शाह के बाद सूरीवंश के शासक आदिल शाह ने उनकी सेवाएँ लीं। इस दौरान बाबर के बेटे हुमायूँ ने 1555 में भारत पर फिर आक्रमण किया। 26 जनवरी 1556 को हुमायूँ की मृत्यु के बाद अकबर को गद्दी मिली। अकबर उस समय महज 13 वर्ष का था और बैरम ख़ाँ को उसका अभिभावक नियुक्त किया गया था।

हेमू ने आगरा को मुगलों से छीना, दिल्ली में सत्ता

हेमू ने इस मौके को अपने लाभ में बदलते हुए 1556 के शुरुआत में आगरा को मुगलों से छीन लिया। इसके बाद उन्होंने दिल्ली पर कब्जा करने के लिए अपना अभियान जारी रखा और 6 अक्टूबर 1556 को तुगलकाबाद में मुगलों की सेना को निर्णायक रूप से हराया। अगले दिन यानी 7 अक्टूबर 1556 को उन्होंने दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा कर लिया और खुद को विक्रमादित्य की उपाधि से नवाजा।

दिल्ली पर अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद हेमू ने कई महत्वपूर्ण सुधारों की शुरुआत की। उन्होंने गोहत्या पर प्रतिबंध लगाया और भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए कठोर कदम उठाए। गोहत्या करने वालों को उन्होंने सिर काटने की सजा देने का ऐलान किया। उनका उद्देश्य था कि भारत को मुगलों और अफगानों से मुक्त कराना और एक मजबूत और न्यायपूर्ण शासन स्थापित करना।

उधर, बैरम ख़ाँ ने इस हार को बर्दाश्त नहीं किया और 1556 के अंत में पानीपत की दूसरी लड़ाई की योजना बनाई। हेमू को भी इस हमले का पता चला और उसने अपनी सेना को तैयार कर लिया। पानीपत की यह लड़ाई 6 नवंबर 1556 को लड़ी गई। हेमू की सेना के पास 30,000 अनुभवी घुड़सवार और 500 से 1500 हाथी थे। युद्ध में हेमू ने खुद अपनी सेना का नेतृत्व किया और युद्ध भूमि पर अद्वितीय साहस का प्रदर्शन किया।

एक तीर, और बदल गया भारत का भविष्य

हालाँकि, इस युद्ध में हेमू के भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया। मुगलों की तरफ से चलाया गया एक तीर उनके आंख में जा लगा। इससे वे घायल हो गए। दर्द के बावजूद वे युद्ध भूमि में डटे, लेकिन अत्यधिक खून बहने के कारण वह हाथी के हौदे में ही बेहोश होकर गिर पड़े। बाद में एक शत्रु सैनिक ने उन्हें पहचाना और हाथी सहित हेमू को घायलावस्था में लेकर अकबर के पास गया।

बैरम ख़ाँ ने हेमू को जंजीरों में बांधकर अकबर के सामने पेश किया। फिर बैरम ख़ाँ ने अपने आदेश पर हेमू का सिर काट दिया और उसे काबुल भेज दिया। हेमू के सिर को प्रदर्शनी लगाने के लिए काबुल भेज दिया गया, वहीं उनके धड़ को पुराना किला के बाहर लटका दिया गया। उसी जगह, जहाँ कभी उनका राज्याभिषेक हुआ था। इसके बाद उनके परिवार को भी जलील किया गया और उनके 80 वर्षीय पिता को इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया, लेकिन न मानने पर उनकी हत्या कर दी गई। उनके परिवार और संबंधियों की हत्या करके उससे एक मीनार बनाई गई, ताकि हिंदुओं में दहशत पैदा की जा सके।

इस तरह हेमू का शासन केवल 29 दिन ही चला, लेकिन उनका साहस, नेतृत्व और त्याग भारतीय इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा। उनकी वीरता को इतिहासकारों ने सम्मान दिया, और उनकी आखिरी घड़ी में भी उनका संघर्ष कभी नहीं भूला जा सकेगा। जैसा कि विन्सेंट ए. स्मिथ ने अपनी किताब “The Mughal Empire” में लिखा है, “हेमू क्षत्रिय (राजपूत) नहीं होने के बावजूद युद्ध भूमि में अपने अंतिम क्षण तक लड़े।”

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