मंगलवार (17 दिसंबर, 2024) को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा संविधान चर्चा के दौरान ‘भारत रत्न’ बाबा साहेब आंबेडकर पर दिए गए बयान ने कांग्रेस की पाखंडी राजनीति को एक बार फिर उजागर कर दिया है। कांग्रेस, जो आज ‘आंबेडकर-आंबेडकर’ का राग अलाप रही है, असल में वही पार्टी है जिसने बाबासाहेब को हमेशा हाशिए पर रखा और उनके विचारों को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अमित शाह के बयान पर हंगामा मचाने वाली कांग्रेस ने नेहरू के काल से ही इतिहास में न केवल आंबेडकर का अपमान किया, बल्कि उनके खिलाफ चुनावी साजिशें रचीं और उनकी विरासत को मिटाने का प्रयास किया।
पीएम मोदी और अमित शाह ने इसे कांग्रेस की साजिश करार दिया, और यह सच भी है कि बाबासाहेब के नाम पर राजनीति करने वाली कांग्रेस ने ही उन्हें 2 बार चुनाव हरवाया और भारत रत्न से वंचित रखा। यह विवाद सिर्फ एक बयान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह कांग्रेस की तुष्टीकरण और पाखंड की राजनीति का असली चेहरा उजागर करता है, जो लंबे समय से भारतीय राजनीति और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर भारी पड़ा है।
आंबेडकर Vs नेहरू: एक ऐतिहासिक विवाद
‘जय भीम’ का नारा अलापने वाली कांग्रेस आज तुष्टिकरण की राजनीति के तहत ‘आंबेडकर-आंबेडकर’ कर रही है, लेकिन इतिहास इसका एक अलग ही चेहरा दिखाता है। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और डॉ. भीमराव आंबेडकर के बीच अनेक वैचारिक मतभेद थे, जो कई मौकों पर सार्वजनिक तौर पर उजागर हुए।
पहला आम चुनाव (1952)
देश के पहले आम चुनाव (1952) में यह वैचारिक विरोध चरम पर दिखा। नेहरू ने डॉ. आंबेडकर के खिलाफ बंबई (उत्तर-मध्य) लोकसभा सीट पर नारायण सदाशिव काजोलकर को खड़ा किया। काजोलकर एक साधारण पृष्ठभूमि से थे, जिन्हें नेहरू ने अपना पूरा समर्थन दिया। नेहरू के प्रभावशाली भाषणों और कांग्रेस के प्रचार तंत्र ने काजोलकर को बढ़त दिलाई। परिणामस्वरूप, डॉ. आंबेडकर इस चुनाव में हार गए और चौथे स्थान पर रहे। काजोलकर ने इस चुनाव में 1,38,137 वोट प्राप्त किए, जबकि आंबेडकर को केवल 1,23,576 वोट ही मिले। इस चुनाव के दौरान एक नारा बहुत प्रसिद्ध हुआ: “Ph.D. वाले आंबेडकर के सामने मक्खन बेचने वाला नौसिखिया काजोलकर।”
भंडारा उपचुनाव (1954)
पहले आम चुनाव की हार के बाद, डॉ. आंबेडकर ने भंडारा लोकसभा सीट से उपचुनाव (1954) लड़ा। लेकिन यहां भी उन्हें नेहरू का समर्थन नहीं मिला। कांग्रेस ने इस उपचुनाव में भी आंबेडकर के खिलाफ अपने उम्मीदवार को उतारा और नेहरू ने पूरी ताकत से प्रचार किया। नतीजतन, आंबेडकर को इस उपचुनाव में भी हार का सामना करना पड़ा।
नेहरू का पत्र
नेहरू की आंबेडकर के प्रति असहमति उनकी निजी भावनाओं में भी झलकती थी। नेहरू ने एडविना माउंटबेटन को लिखे एक पत्र में आंबेडकर की हार पर अपनी खुशी जाहिर की थी।
संविधान सभा में विवाद
यह विवाद केवल चुनावों तक सीमित नहीं था। संविधान सभा के दौरान भी नेहरू और आंबेडकर के बीच मतभेद स्पष्ट थे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, नेहरू संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी में आंबेडकर को शामिल करने के खिलाफ थे। लेकिन महात्मा गांधी के दबाव के कारण आंबेडकर को यह जिम्मेदारी दी गई। इसके बावजूद, संविधान निर्माण के दौरान नेहरू और आंबेडकर के बीच कई मुद्दों पर टकराव होता रहा।
NCERT का कार्टून विवाद
संविधान निर्माण में आंबेडकर की धीमी प्रगति को लेकर नेहरू की नाराजगी 11वीं कक्षा की एनसीईआरटी की किताब में दिखाए गए एक कार्टून में भी नजर आती है। इसमें आंबेडकर को एक कछुए पर बैठे दिखाया गया है, जबकि नेहरू चाबुक लेकर उनकी निगरानी कर रहे हैं।
नेहरू और आंबेडकर के बीच मतभेदों का यह इतिहास कांग्रेस की मौजूदा “जय भीम” राजनीति पर सवाल उठाता है। यह घटनाएं दिखाती हैं कि दलितों के अधिकारों और संविधान निर्माण के मुद्दे पर भी दोनों के बीच गहरी असहमति थी। कांग्रेस का वर्तमान “आंबेडकर प्रेम” केवल राजनीतिक तुष्टिकरण का प्रतीक है।
नसरुद्दीन अहमद Vs आंबेडकर
नेहरू ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं द्वारा भी आंबेडकर पर कई जघन्य आरोप लगाए गए हैं। इसमें एक नाम शामिल था संविधान सभा में मुस्लिमों का प्रतिनिधि करने वाले राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता नसरुद्दीन अहमद का। उनका मनना था कि आंबेडकर समेत ड्राफ्टिंग कमेटी के अन्य लोग जो संसद द्वारा दिए गए सुझावों संविधान में चेंज ही नहीं करते थे बल्कि अपने ही ढंग से संविधान को ड्राफ्ट करते थे और उनका आरोप यह भी था की ये ऐसे भी चीज़ें लिख देते थे जो संविधान सभा में डिसकस ही नहीं किया गया था.
इंदिरा गांधी Vs आंबेडकर: एक और उपेक्षा का अध्याय
पंडित नेहरू के बाद भी कांग्रेस आलाकमान ने डॉ. भीमराव आंबेडकर को वह प्रसिद्धि और सम्मान नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे। डॉ. आंबेडकर को राजनीतिक रूप से हाशिए पर रखने की यह परंपरा इंदिरा गांधी के दौर में भी जारी रही।
काजोलकर को पद्म भूषण से सम्मानित करना (1971)
1952 के आम चुनाव में बंबई (उत्तर-मध्य) से डॉ. आंबेडकर को हराने वाले नारायण सदाशिव काजोलकर को इंदिरा गांधी सरकार ने 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। यह सम्मान “सार्वजनिक सेवा” के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए दिया गया।
राजनीतिक समीकरणों का प्रभाव
राजनीति के जानकारों की मानें तो काजोलकर को पद्म भूषण देने का फैसला उनके कांग्रेस से जुड़े पुराने निष्ठा और योगदान से प्रेरित था। कई आलोचकों का मानना है कि यह कदम कांग्रेस पार्टी की उस नीति का हिस्सा था, जिसके तहत डॉ. आंबेडकर के राजनीतिक और वैचारिक प्रभाव को कमतर दिखाने की कोशिश की गई।
कांग्रेस की राजनीति पर सवाल
इंदिरा गांधी के शासनकाल में काजोलकर को यह सम्मान देने को लेकर सवाल उठे कि क्या यह वास्तव में उनकी योग्यता का सम्मान था या डॉ. आंबेडकर के खिलाफ कांग्रेस की पुरानी राजनीतिक दुश्मनी का हिस्सा। यह घटना कांग्रेस द्वारा दलित राजनीति को अपने फायदे के लिए मोड़ने की रणनीति की ओर इशारा करती है।
राहुल गांधी Vs आंबेडकर: विचारधारा और राजनीति का टकराव
पंडित नेहरू के कार्यकाल से लेकर इंदिरा गांधी और 2014 तक सत्ता में रही यूपीए सरकार ने डॉ. भीमराव आंबेडकर को वह सम्मान और स्थान नहीं दिया, जिसके वे असल हकदार थे। 2024 के आम चुनावों के प्रचार के दौरान भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी आंबेडकर की विचारधारा का नाम लेकर जाति आधारित राजनीति को बढ़ावा दे रहे थे और इन दिनों भी वही कर रहे हैं।
जाति विनाश की आंबेडकर की विचारधारा
डॉ. आंबेडकर का जीवन जाति को खत्म करने के लिए समर्पित था। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “जाति का विनाश” (Annihilation of Caste) में उन्होंने जाति व्यवस्था की कड़ी आलोचना करते हुए इसे समाज और मानवता के लिए सबसे बड़ी बाधा बताया।
– आंबेडकर ने स्पष्ट किया कि जाति व्यवस्था समाज को बांटती है और समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे जैसे लोकतांत्रिक सिद्धांतों को नकारती है।
– उन्होंने कांग्रेस पर यह आरोप लगाया था कि उसने कभी भी जातिवाद को खत्म करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए, बल्कि इसे बनाए रखने का काम किया।
राहुल गांधी और जाति की राजनीति
आज राहुल गांधी, जिनका नारा “जाति जाति” करते नहीं थकता, उन्हीं डॉ. आंबेडकर के विचारों को नकारते हुए उनकी विरासत का उपयोग केवल चुनावी फायदे के लिए कर रहे हैं।
– कांग्रेस ने जाति और धर्म के आधार पर तुष्टिकरण की राजनीति का चलन शुरू किया, जो आज भी जारी है।
– राहुल गांधी की रैलियों में संविधान का प्रदर्शन और “आंबेडकर के भारत” का नारा केवल एक दिखावा है।
संविधान का दुरुपयोग
डॉ. आंबेडकर ने जिस संविधान का निर्माण किया, उसे कांग्रेस ने अपने तानाशाही रवैये से बार-बार कुचलने का काम किया।
– संविधान में मनमाने बदलाव और जनता के अधिकारों को कमजोर करने की राजनीति कांग्रेस के शासनकाल की प्रमुख पहचान रही है।
– राहुल गांधी की “संविधान की रक्षा” की बातें केवल एक राजनीतिक हथकंडा हैं।
नेहरू, इंदिरा, और राहुल की कांग्रेस का रवैया
पंडित नेहरू के दौर से शुरू हुई डॉ. आंबेडकर को अनदेखा करने की यह परंपरा इंदिरा गांधी के शासन में भी जारी रही और आज राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस भी उसी राह पर चल रही है।
– कांग्रेस ने आंबेडकर के विचारों को केवल चुनावी फायदे के लिए इस्तेमाल किया, लेकिन उनकी असली विरासत और योगदान को वह सम्मान कभी नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे।
ऐसे में पंडित नेहरू के समय से शुरू हुई डॉ. आंबेडकर को नजरअंदाज करने की यह परंपरा इंदिरा गांधी के दौर में और भी गहराई, और आज राहुल गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस में यह पूरी तरह से स्थापित हो चुकी है। यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि कांग्रेस ने हमेशा डॉ. आंबेडकर के योगदान को केवल एक राजनीतिक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया और उनके विचारों व संघर्षों को सही सम्मान और स्थान देने से कतराती रही। कांग्रेस की यह नीति न केवल आंबेडकर के सिद्धांतों के खिलाफ है, बल्कि यह देश में जातिवाद और सामाजिक भेदभाव को बनाए रखने की उसकी रणनीति को भी उजागर करती है।