बाँध कर नदी में खड़ा कराते, बहती थी गोलियों से भूनी हुई लाशें… भारत ने न बचाया होता तो बांग्लादेश कैसे मनाता ‘विजय दिवस’?

शेख मुजीबुर रहमान की 'आवामी लीग' 167 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, वहीं ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की PPP इसकी आधी से थोड़ी अधिक यानी 86 सीटों पर ही रह गई। कैसे हारा पाकिस्तान और बना बांग्लादेश, पढ़िए 'विजय दिवस' की पूरी कहानी।

पाकिस्तान, बांग्लादेश, 1971 युद्ध, विजय दिवस

भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्म-समर्पण करते पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाजी

16 दिसंबर, यानी ‘विजय दिवस’ का दिन । वो दिन, जब भारत ने पूर्वी पाकिस्तान, यानी बांग्लादेश को पाकिस्तान से आज़ाद करवाया। पाकिस्तानी फ़ौज की क्रूरता से वहाँ की जनता को मुक्ति दिलाई। वो क्षेत्र, जहाँ 1951 में हिन्दू कुल जनसंख्या का 22% हिस्सा हुआ करते थे, लेकिन अब मात्र 8% हैं। अब वहाँ मंदिरों पर हमले होते हैं। ऐसा नहीं है कि मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली फ़ौज समर्थित सरकार के आने के बाद ही ये सब शुरू हुआ है, 2021 में भी दुर्गा पूजा के दौरान एक अफवाह फैला कर सैकड़ों पंडालों पर हमला बोला गया था। अब ये खुलेआम जारी है, अमेरिकी रेटिंग एजेंसियों को भी ये सब दिखाई नहीं देता।

ऐसे में इस ‘विजय दिवस’ पर ये याद करना ज़रूरी है कि कैसे भारत ने पाकिस्तान के दो फाड़ कर के बांग्लादेश को आज़ादी दिलाई थी। वो 26 मार्च, 1971 का दिन था जब शेख मुजीबुर रहमान ने बांग्लादेश की आज़ादी की घोषणा की थी। बाद में वो इस मुल्क के प्रथम राष्ट्रपति बने। आज वहाँ उनकी ही मूर्तियाँ तोड़ी गई हैं। बात तब की है जब अयूब खान पाकिस्तान के राष्ट्रपति हुआ करते थे। उनके खिलाफ देश भर में विरोध प्रदर्शन हो रहे थे। वो 1958 से ही इस पद पर थे, 1968 के अंत में पाकिस्तान में तगड़े विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए।

राष्ट्रपति याह्या खान और पाकिस्तान में 1970 के आम चुनाव

सैन्य तानाशाह अयूब खान को अंततः इस्तीफा देना पड़ा और उस समय सेनाध्यक्ष रहे याह्या खान ने खुद को राष्ट्रपति घोषित कर अपनी सरकार बनाई। इसके लिए उन्होंने 1962 के पाकिस्तान के संविधान को रद्द कर के मार्शल लॉ की घोषणा कर दी थी। लेकिन, समस्या पूरी ताक़त के साथ सतह पर तब आ गई जब पाकिस्तान में 1970 में आम चुनाव हुए। पहली बार पाकिस्तान की जनता ने सीधे वोट देकर सांसद चुने। शेख मुजीबुर रहमान की ‘आवामी लीग’ 167 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, वहीं ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की ‘पाकिस्तान पीपल्स पार्टी’ (PPP) इसकी आधी से थोड़ी अधिक यानी 86 सीटों पर ही रह गई।

PPP की जड़ें पश्चिमी पकिस्तान में थीं तो ‘ऑल पाकिस्तान आवामी लीग’ की पूर्वी पाकिस्तान में। पूर्वी पाकिस्तान में आवामी लीग को प्रतिद्वंद्विता का सामना नहीं करना पड़ा, वहीं पश्चिमी पाकिस्तान में वोट बँटे। इसे इसी से समझ लीजिए कि पूर्वी पाकिस्तान में आवामी लीग मात्र 2 सीटें हारी। 10 दिन बाद हुए प्रांतीय चुनावों में भी PPP ने पूर्वी बांग्लादेश में बड़ी जीत दर्ज की। हालाँकि, याह्या खान ने पूर्वी पाकिस्तान की किसी पार्टी को केंद्र की सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया और बंगाली नेता नुरुल अमीन को प्रधानमंत्री नियुक्त करते हुए उन्हें PPP और आवामी लीग के बीच समझौता कराने का काम सौंपा। नुरुल अमीन पाकिस्तान के सबसे छोटे कार्यकाल वाले प्रधानमंत्री रहे, मात्र 13 दिन। बाद में वो मुल्क के राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति भी बने। पाकिस्तान में उनके अलावा आज तक कोई अन्य उप-राष्ट्रपति नहीं हुआ। वो किसी प्रकार का समझौता नहीं करा सके और मार्च 1971 में याह्या खान के आदेश पर पाकिस्तान फौज ने पूर्वी पाकिस्तान में ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ लॉन्च कर दिया। बंगालियों पर क्रूर अत्याचार शुरू हो गया।

शेख मुजीबुर रहमान ने कर दी बांग्लादेश की आज़ादी की घोषणा

अब वापस आते हैं 26 मार्च 1971 के दिन। भले ही ‘विजय दिवस’ 16 दिसंबर को मनाया जाता है लेकिन ये दिन भी महत्वपूर्ण है। क्योंकि, शेख मुजीबुर रहमान ने याह्या खान की जुंटा (तानाशाह सैन्य समूह) से बांग्लादेश की आज़ादी की घोषणा तो कर दी, लेकिन पूर्वी पाकिस्तान में फौज द्वारा अत्याचार और तेज़ कर दिए गए। अगले 6 महीनों तक पाकिस्तानी फ़ौज का ये अत्याचार जारी रहा। पहली बार आधुनिक दुनिया ने बलात्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जाते हुए देखा। बड़ी संख्या में बांग्लादेशी महिलाओं को शिकार बनाया गया, बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया। पूर्वी पाकिस्तानी यूँ तो 1947 के भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद से ही अलग-थलग कर दिए गए थे, क्योंकि पश्चिमी पाकिस्तान स्थित पंजाबी-सिंधी समुदाय ने ही सत्ता अपने कब्जे में रखी।

प्रशासन से लेकर फौज और न्यायपालिका तक, कहीं भी पूर्वी पाकिस्तान को उसका हिस्सा नहीं दिया गया। पंजाब प्रान्त के उत्तर-पश्चिम में स्थित इस्लामाबाद को राजधानी बनाए जाने का भी फ़ैसला भी पूर्वी पाकिस्तान के खिलाफ गया। विडम्बना ये देखिए कि उस समय पूर्वी पाकिस्तान का भद्रलोक धर्मनिरपेक्षता की बातें करने लगा था और पश्चिमी पाकिस्तान में मजहबी उन्माद वाली राजनीति चरम पर थी। पूर्वी पाकिस्तानियों ने विभाजन के समय जम कर हिन्दुओं का खून बहाया था, नोआखली का दंगा हमें याद ही है। फिर उन्हीं पूर्वी पाकिस्तानियों का जब हक़ मारा जाने लगा तो वो सेक्युलर होने लगे और पश्चिमी पाकिस्तान में बैठी ताक़तों को उनका बंगाली संस्कृति से प्रभावित होना भी रास नहीं आया। मजहब की उनकी परिभाषा में ये भारत की संस्कृति से प्रेरित लोग थे और ये इस्लाम के विरुद्ध था। उससे भी बड़ी विडम्बना आज देखिए कि फिर से वही पूर्वी पाकिस्तान, यानी बांग्लादेश, अब पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी ISI के एजेंडे पर काम कर रहा है, उसने सेक्युलरिज्म का चोला फेंक कर मजहबी उन्माद को अपने व्यवहार का हिस्सा बना लिया है और इन्होंने वापस हिन्दुओं का खून बहाना शुरू कर दिया है।

पूर्वी पाकिस्तान को नज़रअंदाज़ किए जाने का एक कारण उसकी भाषा भी रही। पाकिस्तान की लगभग आधी जनसंख्या जो यहाँ बसती थी, वो बंगाली बोलती थी। लेकिन, मोहम्मद अली जिन्ना ने उर्दू को पाकिस्तान की राजभाषा घोषित कर दिया। स्थिति तब और बदतर हो गई जब 1970 में आए एक तूफान से निपटने में पाकिस्तान की सत्ता विफल रही और इसने पूर्वी पाकिस्तान में 5 लाख जानों को लील लिया। ‘साइक्लोन भोला’ से तबाह पूर्वी पाकिस्तान को जब आम चुनावों में बड़ी जीत के बावजूद सत्ता नहीं सौंपी गई, तो राष्ट्रवादी आंदोलन शुरू हो गया। इस्लामाबाद में बैठी ताकतें ढाका से निकलने वाली हर एक आवाज़ को भारतीय प्रपंच बता कर नकारती रही।

शेख मुजीबुर रहमान ने 6 बिंदु दिए थे, लेकिन उसे अस्वीकार कर दिया गया। 7 मार्च, 1926 को उन्होंने अपने एक जोशीले संबोधन में पूर्वी पाकिस्तान से मार्शल लॉ हटा कर सत्ता सौंपने की माँग की और इस्लामाबाद में बैठे नेताओं को ललकारा। इसका प्रयुत्तर में याह्या खान ने उनकी गिरफ़्तारी का आदेश देते हुए ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ चालू कर दिया। अब समझौता के लिए कोई जगह नहीं बची थी। वापस फिर आ जाती है वो तारीख़ – 26 मार्च, 1971. ‘बंगबंधु’ शेख मुजीबुर रहमान ने आज़ादी की घोषणा कर दी।

‘विजय दिवस’ के साथ-साथ पाकिस्तान की इस क्रूरता को भी कीजिए याद

‘आवामी लीग’ के कई नेताओं ने भारत में शरण ली, वहीं शेख मुजीबुर रहमान को गिरफ्तार कर के पश्चिमी पाकिस्तान में ले जाया गया। बांग्लादेश के गठन तक वो वहीं रहे। पाकिस्तानी फौज ने बड़ी संख्या में रजाकारों की नियुक्ति की, जिसमें बड़ी संख्या में उर्दू बोलने वाले बिहारी मुस्लिम और बांग्ला क्षेत्रों में पाकिस्तान परस्त समूह शामिल था। इन्होंने आम लोगों, बुद्धिजीवियों, बंगाली नेताओं और छात्रों का नरसंहार और बलात्कार शुरू कर दिया। ‘रजाकार’ शब्द भारत के लिए नया नहीं है, क्योंकि हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय से इनकार करते हुए इन्हीं रजाकारों को हिन्दुओं के नरसंहार और बलात्कार के लिए लगाया था।

जर्मन अकादमिक साहित्य पब्लिशर Walter de Gruyter द्वारा जारी किए गए ‘Genocide and Mass Violence in Asia‘ में बताया गया है कि मृतकों की संख्या 10 से 30 लाख तक थी। 2 से 4 लाख महिलाओं के साथ निर्मम बलात्कार किया गया। इस्लामाबाद को लगता था कि पूर्वी पाकिस्तान से बुद्धिजीवियों को मिटा दिया जाएगा तो आंदोलन ख़त्म हो जाएगा। आतंक पैदा करने के लिए बुद्धिजीवियों के बाद आम नागरिकों को निशाना बनाया जाने लगा। एक जगह 6 पाकिस्तानी फौजियों ने एक-एक कर एक नई-नवेली दुल्हन का उसके शौहर के सामने रेप किया।

महिलाओं का बलात्कार किया जाता था, फिर उन्हें बच्चा गिराने भी नहीं दिया जाता था। पाकिस्तानी फौजियों का मानना था कि गर्भपात इस्लाम के खिलाफ है, साथ ही वो ऐसा कर के बंगाली नस्ल का ‘शुद्धिकरण’ करने की सोच भी रखते थे और बंगाली समाज के मन में आतंक भी पैदा करते थे। उन्हें इसका दूरगामी फायदा ये दिखता था कि इसके बाद बंगाली लड़कियाँ और महिलाएँ शादी या फिर बच्चे पैदा करने की काबिल ही नहीं रह जाएँगी। आज उसी बांग्लादेश में बांग्लादेशी कट्टरपंथी हिन्दुओं के साथ यही सब कर रहे हैं। उस बांग्लादेश को याद करना चाहिए कि अगर पाकिस्तान से उसे भारत ने आज़ादी न दिलाई होती तो वो आज ‘विजय दिवस’ भी नहीं मना रहा होता।

न होता तो भारत तो बांग्लादेश नहीं मनाता ‘विजय दिवस’

और उदाहरण के लिए, हरिहरपारा नामक एक जगह की खौफनाक कहानी सुन कर आप चौंक जाएँगे। वहाँ पूर्वी पाकिस्तानियों को कैद करने के लिए एक जेल बनाया गया था, फिर उनके नरसंहार के लिए एक जगह बनाई गई थी और फिर बॉडी को ठिकाने लगाने की व्यवस्था भी की गई थी। नदी किनारे स्थित ‘पाकिस्तान नेशनल ऑइल कंपनी’ के एक गोदाम को ही जेल में तब्दील कर दिया गया था। मार-मार कर लोगों की लाशों को नदी में बहा दिया जाता था। हर रात 7-8 कैदियों को रस्सी से बाँध कर नदी में उतारा जाता था। फिर पाकिस्तानी फौजी उन पर गोलियाँ बरसाते थे। मौत के बाद लाशें नदी में बह जाती थीं। ये प्रक्रिया हर रात चलती थी।

बांग्लादेश में आज़ादी के लिए बनी ‘मुक्ति वाहिनी’ की भारत ने मदद की। RA&W ने उन लड़ाकुओं को पाकिस्तानी फ़ौज के मूवमेंट को लेकर ख़ुफ़िया सूचनाएँ मुहैया कराईं। बौखलाए पाकिस्तान ने भारत के बेसेज पर हमला बोल दिया। भारतीय वायुसेना ने पूर्वी पाकिस्तान के एयरस्पेस को अपने अधीन लिया और नौसेना के साथ मिल कर पूर्वी व पश्चिमी पाकिस्तान के बीच संपर्क को तोड़ दिया। इस युद्ध ने याह्या खान के इस्तीफा की पटकथा भी लिख दी और उसके बाद जुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने। पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए। बांग्लादेश एक अलग मुल्क बना। भारत की सहायता से उसे UN की मान्यता मिली।

2024 के ‘विजय दिवस’ के मौके पर बांग्लादेश को आत्ममंथन करना चाहिए। वो उसी पाकिस्तान की राह पर चल पड़ा है, जिसे पाकिस्तान ने उसके लोगों को अनगिनत घाव दिए। वो उसी भारत के खिलाफ ज़हर उगल रहा है जिसके कारण उसे ‘विजय दिवस’ मनाने का मौका मिला।

Exit mobile version