दिल्ली ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। बर्बर विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण, सियासत के दांव-पेच, राजनीति के गलियारों में गूंजती रिश्तों की मिठास और कड़वाहटों से भरी किस्से-कहानियों की गूंज, अत्याचार, दंगों में जलती दिल्ली, आंदोलन की स्याह काली रातों की यादें, ये सब दिल्ली के दिल में बसी हैं। चुनावी मौसम फिर लौट आया है। 1993 के बाद से कुछ वर्षों की सुख यात्रा के बाद दिल्ली की बेबसी का एक और दौर शुरू हुआ। उस दौर में दिल्ली में भ्रष्टाचार, सरकारी दमखम से आंदोलन को कुचलने का दौर लंबे समय तक चला, ये दौर दिल्ली में कांग्रेस की सरकार का था। कभी नेहरू ने दिल्ली के साथ धोखा किया था, अब चुनाव से पहले केजरीवाल के भ्रष्टाचार के किस्से हैं।
छल और अन्याय के इस दौर से त्रस्त होकर दिल्ली की जनता को फिर एक बहरूपिया ने छल लिया। कहते हैं न “दिल्ली दिल वालों की”। 2025 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली के दिल में क्या है? फिर से चर्चा का विषय बन गया है । लेकिन दिल्ली की बेबसी का आलम कब और कैसे शुरू हुआ इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे। यह सिलसिला भारत की स्वतंत्रता के बाद से शुरू होता है। आजाद देश के संविधान में भारत में तीन तरह के राज्यों की व्यवस्था की गई कैटेगरी ए, बी और सी। दिल्ली को ‘सी’ तरह की कैटेगरी के राज्यों में रखा गया ,यानी जैसे राज्य जहां राज्य का शासन राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त चीफ कमिश्नर के द्वारा चलाया जाता था।
नेहरू ने छीन लिया था दिल्ली की C कैटेगरी का दर्जा
हालांकि दिल्ली में विधानसभा का प्रावधान भी था। 17 मार्च 1952 को पहली कैबिनेट की स्थापना कमिश्नर को शासन चलाने में मदद के लिए की गई और इसके मुखिया थे चौधरी ब्रह्म प्रकाश। यह कांग्रेस का समय था, केंद्र की कमान भी कांग्रेस के हाथ में थी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे, लेकिन चौधरी ब्रह्म प्रकाश अक्सर दिल्ली को पूर्ण राज्य या यूं कहें कि राज्य के रूप में दिल्ली के लिए अधिक शक्तियों की मांग करते रहते थे। फिर खेल शुरू हुआ सियासत का, 1955 में चौधरी ब्रह्म प्रकाश को हटाकर गुरुमुख निहाल सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया गया।
कई बार इस बारे में चौधरी ब्रह्म प्रकाश अपने दोस्तों के साथ चर्चा करते नजर आते थे कि “नेहरू जी और पंत जी ने मुझे मुख्यमंत्री पद से इसलिए हटा दिया था, क्योंकि मैं दिल्ली सरकार के लिए अधिक शक्तियों की बात को हमेशा पटल पर रखता था । क्या यह कोई अपराध था? क्या दिल्लीवासियों के अधिकारों के लिए, दिल्ली के विकास के लिए यह आवाज उठाना कोई अपराध था?”
इसके बाद दिल्ली की असली बेबसी का सफर शुरू हो गया। 1955 में फ़ज़ल अली कमीशन की सिफारिश पर दिल्ली राज्य से ‘सी’ कैटेगरी का दर्जा भी जवाहरलाल नेहरू ने छीन लिया। 1 अक्टूबर, 1956 को दिल्ली विधानसभा समाप्त कर दी गई। इसके पीछे का एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस के केंद्र सरकार का राजधानी दिल्ली पर सीधा-सीधा नियंत्रण रखना था। कांग्रेस की नीति और कूट राजनीति का शिकार बनी दिल्ली की जनता। जो 37 वर्षों तक 1956 से 1993 तक दिल्ली बिना मुख्यमंत्री और बिना विधान सभा के गठन के रही। दिल्ली राज्य के लगभग 350 गांव को विकास की राह पर आगे बढ़ने के लिए इंतजार करना पड़ा। दिल्ली की जनता की इस बेबसी को भाजपा ने सबसे पहले समझा। जनसंघ की स्थापना के साथ ही दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग को मदनलाल खुराना, केदारनाथ साहनी, विजय कुमार मल्होत्रा जैसे जनसंघी भाजपा नेताओं ने भी जोर-शोर से उठाया।
दिल्ली के विकास की चिंता करते हुए इन्होंने धरने-प्रदर्शन कर दिल्ली की जनता की इस मांग को उठाया। अंतत 1987 में बालकृष्ण कमेटी की सिफारिश से 1991 में दिल्ली को राज्य का दर्जा मिला और 37 वर्षों के वनवास के बाद 1993 में दिल्ली को मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री के रूप में मिले, लेकिन कांग्रेस की कूटनीतिक चाल से दिल्ली विधानसभा को कुछ शक्तियां ही मिलीं। तुलनात्मक रूप से भारतीय जनता पार्टी का कार्यकाल दिल्ली में कम रहा।शीला दीक्षित की सरकार और कॉमनवेल्थ घोटालों का दंश झेलने के बाद जब जनता ने परिवर्तन के लिए ‘आम आदमी’ के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले बहरूपिया अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को मौका दिया, तब से दिल्ली की बेबसी की इंतहा ही हो गई।
बरसात में भ्रष्टाचार पीड़ित दिल्ली बन जाती है ‘झीलों का शहर’
दिल्लीवासियों ने जिस अन्याय, भ्रष्टाचार और अहंकारी शासन के विरोध में आम आदमी को चुना था, उसी आम आदमी के नायक के सेवेन स्टार शीश महल और शराब घोटाले में लिप्तता को देखकर उनका ये भ्रम भी दूर हो गया। दिल्ली के लोग वैसे तो बार-बार छले गए, लेकिन इतनी नग्नता के साथ शायद ही उन्हें किसी ने छला था। झूठे वादों की बौछार की कलई खुलीं तो जनता ठगी सी रह गई। पहले तो मुफ्त योजनाओं का ढोल पीटा, लेकिन फिर हजारों रुपये के बिजली के बिल घर आने लगे। मोहल्ला क्लीनिक का आईडिया तो अच्छा था पर वह झांसे के अलावा और कुछ न निकला। यमुना का पानी साफ सुथरा होने की बाट जोहते पूर्वांचली दिल्ली वासी छठ पूजा के लिए कृत्रिम तालाब पर ही निर्भर रहे।
स्वच्छ पेयजल के लिए नल बूंद-बूंद को तरस गए। झीलों का शहर दिल्ली बनाने की घोषणा केवल बरसात के दिनों में ही पूरी होती दिखाई दी, जिसमें सीवर और कूड़ा-करकट से सना पानी अंडरपास की झीलों में मिल देश की राजधानी दिल्ली का सौंदर्य बढ़ाने लगा। शाहीन बाग से हनुमान मंदिर में हनुमान चालीसा के पाठ हो या वैगनआर कार और दो कमरों के घर से शीश महल तक का सफर हो या खांसी, मफलर और चप्पल की आड़ में दिल्ली राज्य के विकास को नेपथ्य में रख दिया गया और पूरा विकास सिर्फ पार्टी के नेताओं और मुख्यमंत्री के शीशमहल पर ही सिमट गया। फिर से चुनाव नजदीक है, ऐसे में प्रश्न यही है कि इस बार दिल्ली की बेबसी खत्म होगी या दिल्ली को जनता को आम आदमी के नाम पर ठगने का यही सबब जारी रहेगा?
(इस लेख को अधिवक्ता व सामाजिक-राजनीतिक एक्टिविस्ट एवं विचारक नेहा धवन ने लिखा है)