BHU बनाने वाले मदन मोहन मालवीय मुफ्त में लड़ते थे गरीबों के मुकदमे; हिंदुओं को देते थे धर्मोपदेश

परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी ना होने के कारण मालवीय की पढ़ाई के लिए उनकी मां ने कंगन गिरवी रख दिए थे

मदन मोहन मालवीय राजनीति और स्वतंत्रता के आंदोलन में लगे थे लेकिन पत्रकारिता को लेकर उनके मन में उत्साह रहता था

मदन मोहन मालवीय राजनीति और स्वतंत्रता के आंदोलन में लगे थे लेकिन पत्रकारिता को लेकर उनके मन में उत्साह रहता था

महान स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, वकील और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना पंडित मदन मोहन मालवीय को उनकी जयंती के अवसर पर भारत याद कर रहा है। अंग्रेजों की नीतियों की मुखरता से आलोचना करने वाले मालवीय को भारत माता के सच्चे सेवक के तौर पर याद किया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई बडे़ राजनेताओं ने मालवीय को याद किया है। पीएम मोदी ने उन्हें याद करते हुए कहा, “महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी को उनकी जयंती पर कोटि-कोटि नमन। वे एक सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ-साथ जीवनपर्यंत भारत में शिक्षा के अग्रदूत बने रहे।” उन्होंने कहा, “देश के लिए उनका अतुलनीय योगदान हमेशा प्रेरणास्रोत बना रहेगा।” मालवीय का जीवन बहुआयामी था और जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में उन्होंने अलग-अलग काम किए थे। 

मालवीय का शुरुआती जीवन

25 दिसम्बर 1861 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (तब इलाहाबाद) में मदन मोहन मालवीय का जन्म हुआ था। उनके पिता पंडित ब्रजनाथ कथा, प्रवचन और पूजा कर्म से परिवार का पालन करते थे। इनका असल उपनाम ‘चतुर्वेदी’ हुआ करता था लेकिन इन पूर्वज मध्य प्रदेश के मालवा से थे, इसलिए उन्हें ‘मालवीय’ कहा जाने लगा था। उन्होंने 5 वर्ष से ही संस्कृत की पढ़ाई शुरू कर दी थी और अंग्रेजी पर भी इनका अच्छी पकड़ थी। इनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी ना होने के कारण उनकी मां ने मालवीय की पढ़ाई के लिए कंगन गिरवी रख दिए थे।

मालवीय ने आठवीं तक की शिक्षा प्रयागराज से ही पूरी की और उन्होंने तब ही ‘मकरंद’ नाम से कविताएं लिखना शुरू कर दिया था। 1884 में उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से बीए की और इलाहाबाद के एक स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया थे। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद वे उससे जुड़ गए और दिसंबर 1886 में दादा भाई नैरोजी की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में उन्होंने परिषदों में प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर भाषण दिया था।

मदन मोहन मालवीय फ्री में लड़ते थे गरीबों के मुकदमे

उत्तर प्रदेश की कालाकांकर रियासत के नरेश इनसे बहुत प्रभावित थे और वे ‘हिंदुस्थान’ नामक समाचार पत्र निकालते थे। नरेश ने मालवीय को बुलाकर इसका संपादक बनाना चाहा तो मालवीय ने शर्त रखी की राजा कभी उनसे शराब पीकर बात नहीं करेंगे और वे ‘हिंदुस्थान’ के संपादक बन गए। एक दिन राजा ने अपनी शर्त तोड़ दी तो मालवीय ने इस्तीफा दे दिया और राजा के माफी मांगने के बाद भी वे अपने फैसले पर डटे रहे। राजा ने उनसे अनुरोध किया वे वकालत पढ़ें और इसका खर्च वे खुद देंगे तो मालवीय इसके लिए तैयार हो गए। 1891 में उन्होंने इलाहाबाद से एलएल.बी. करने के बाद ज़िला अदालत में वकालत शुरू कर दी और दिसंबर 1893 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने लगे। वे झूठे मुकदमे नहीं लेते थे और गरीब लोगों के लिए फ्री में अदालत में केस लड़ा करते थे।

पत्रकार मदन मोहन मालवीय

मालवीय राजनीति और स्वतंत्रता के आंदोलन में लगे थे लेकिन पत्रकारिता को लेकर उनके मन में एक अलग तरह का उत्साह रहता था। मालवीय ने 1907 में एक हिंदी साप्ताहिक के रूप में ‘अभ्युदय’ शुरू किया और 1915 में इसे दैनिक बना दिया। उन्होंने 1910 में एक हिंदी मासिक ‘मर्यादा’ और 1921 में एक और हिंदी मासिक भी शुरू किया। मालवीय ने अक्टूबर 1909 में एक अंग्रेजी दैनिक ‘लीडर’ शुरू किया। वह 1924 से 1946 तक ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के निदेशक मंडल के अध्यक्ष रहे।

गांधी ने उन्होंने बताया था ‘साफ धारा’

पंडित मदन मोहन मालवीय का राजनीतिक करियर कलकत्ता के 1886 के कांग्रेस अधिवेशन से शुरू हो गया था। इसके बाद वे चार बार (1909, 1918, 1930 और 1932) कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। महात्मा गांधी उनका बहुत सम्मान करते थे उन्होंने यंग इंडिया के एक अंक में मालवीय के बारे में लिखा था, “तिलक मुझे हिमालय की तरह लगते थे. जब मुझे लगा कि मेरे लिए इतना ऊंचा चढ़ पाना संभव नहीं होगा तो मैं गोखले के पास गया. वो मुझे एक गहरे समुद्र की तरह लगे।मुझे लगा कि मेरे लिए इतना गहरे उतर पाना संभव नहीं है।” गांधी ने लिखा, “अंत में मैं मालवीय जी के पास गया। वो मुझे एक साफ धारा की तरह लगे और मैंने तय किया कि मैं उस पवित्र धारा में डुबकी लगा लूं।”

महात्मा गांधी ने उन्हें ‘महामना’ की उपाधि दी थी और भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उन्हें ‘कर्मयोगी’ का दर्जा दिया था। गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक दोनों का ही अनुयायी होने के कारण उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में क्रमशः नरमपंथी और गरमपंथी दोनों के बीच की विचारधारा का नेता माना जाता था। वर्ष 1930 में जब महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया, तो उन्होंने इसमें सक्रिय रूप से हिस्सा लिया और गिरफ्तार भी हुए। 1934 में सांप्रदायिक आधार पर चुनाव कराने के फैसले पर वे कांग्रेस के रवैये से नाराज हो गए और पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने एमएस अणे के साथ मिलकर कांग्रेस राष्ट्रीय दल की स्थापना की थी। हालांकि, उन्होंने कई विषयों पर महात्मा गांधी से मतभेद हुए लेकिन उनके प्रति गांधी के मदद में सम्मान कभी कम नहीं हुआ।

BHU की स्थापना

मालवीय तक्षशिला और नालंदा जैसे भारत के प्राचीन शिक्षा केंद्रों और पश्चिम के आधुनिक विश्वविद्यालयों की परंपराओं के साथ मिलकर एक विश्वविद्यालय बनाना चाहते थे। उन्होंने ज्ञान और आध्यात्मिकता की सदियों पुरानी भारतीय परंपरा के केंद्र के रूप में माने जाने वाले बनारस को इस विश्वविद्यालय के लिए चुना। उन्होंने नवंबर 1911 में हिंदू यूनिवर्सिटी सोसायटी की स्थापना की और दिसंबर 1911 में वकालत छोड़कर विश्वविद्यालय के निर्माण के काम में जुट गए। 1915 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय बिल पास हुआ और डॉ. एनी बेसेंट जैसी हस्तियों के सहयोग से फरवरी 1916 में इस विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी गई।

उन्होंने 1912 से ही विश्वविद्यालय के लिए धन संग्रह का व्यापक अभियान चला रखा था और बहुत से राजाओं, नेताओं और विद्वानों ने उन्हें दान दिया था। 1915 के शुरुआती दौर तक चंदे के तौर पर 50 लाख रुपए जमा हो गए थे जिसमें महाराजा बीकानेर, महाराजा जोधपुर और महाराजा कश्मीर ने दान दिया था। बताया जाता है कि मालवीय ने विश्वविद्यालय निर्माण हेतु चंदे के लिए पेशावर से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्रा की थी और इस दौरान उन्होंने कुल 1 करोड़ 64 लाख रुपए जमा किए थे।

हैदराबाद के निजाम को मालवीय ने पढ़ाया पाठ

बीएचयू के निर्माण के दौरान देशभर में चंदा इकट्ठा कर रहे मदन मोहन मालवीय का हैदराबाद के निजाम को सबक सिखाने का किस्सा बहुत मशहूर है। मालवीय चंदा लने के लिए निजाम के पास पहुंचे और उनसे आर्थिक सहयोग देने को कहा जिसके लिए निजाम ने इनकार कर दिया। निजाम ने कहा कि दान में देने के लिए उनके पास सिर्फ जूती है। मालवीय इससे नाराज हो गए और निजाम की जूती उठाकर ले आए और चारमीनार के पास उसकी नीलामी शुरू कर दी। इसकी जानकारी जब निजाम को हुई तो उसे अपमान महसूस हुआ और उसने फिर मालवीय को बुलाया और चंदे के तौर पर भारी राशि देकर उन्हें विदा किया।

चौरी-चौरा और काकोरी के आरोपियों के वकील

मालवीय ने राजनीति में आने के बाद वकालत करना लगभग छोड़ दिया था लेकिन 1922 में उन्होंने चौरी-चौरा में शामिल लोगों को बचाने के लिए फिर वकील का कोट पहना और 172 लोगों में से 153 लोगों को बरी करवाया था। साथ ही, काकोरी ट्रेन एक्शन के दौरान जब मशहूर वकील जगतनारायण मुल्ला ने क्रांतिकारियों की पैरवी करने से मना कर दिया तो पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने सितंबर 1927 में मालवीय को एक पत्र लिखा था। इसके बाद मालवीय ने इस एक्शन में शामिल लोगों की रिहाई के लिए वायसराय को प्रतिवेदन भिजवाया जिस पर 78 लोगों ने हस्ताक्षर किए थे। हालांकि, वायसराय ने इस प्रतिवेदन को अस्वीकार कर दिया था।

मालवीय जीवन भर अपनी हिंदू पहचान से जुड़े रहे और उन्हें धर्म बदलने वाले हिंदुओं को पुन: हिंदू धर्म में वापसी की संकल्पना को शरू किया। 1932 में उन्होंने स्वदेशी विचार के प्रचार के लिए वाराणसी में अखिल भारतीय स्वदेशी संघ बनाया था। वे हमेशा इस बात को लेकर चिंतिंत रहते थे कि हिंदुओं को अपने धर्म की जानकारी कम है और वे इलाहाबाद के माघ मेले में लोगों को धर्म के उपदेश देने जाया करते थे।

आजीवन देश की आज़ादी का सपना देखने वाले भारत माता के इस लाल का 12 नवंबर 1946 को 84 वर्ष की आयु में निधन हो गया था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मालवीय को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, “वह उन महान लोगों में से एक थे जिन्होंने आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की नींव रखी और इस पर एक-एक ईंट तथा एक-एक पत्थर रखकर भारतीय स्वतंत्रता का शानदार भवन खड़ा किया।” मालवीय को 2014 में मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था।

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