ओशो का नाता कई विवादों से रहा जिनमें अमरीका प्रवास को लेकर उठा विवाद बेहद प्रमुख है। साल 1981 से 1985 के बीच वो अमेरिका में रहे। अमरीकी प्रांत ओरेगॉन में उन्होंने आश्रम की स्थापना की तथा इस आश्रम की विशेषता ये थी कि यह 65,000 एकड़ में फैला था।
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बचपन में ही मृत्यु को देखा, डेढ़ लाख पुस्तकें पढ़ डालीं…मध्य प्रदेश के चंद्रमोहन जैन ऐसे बन गए थे ओशो

'संभोग से समाधि की ओर' पुस्तक में ओशो ने काम ऊर्जा का विश्लेषण कर उसे अध्यात्म की यात्रा में सहयोगी बताया है

architsingh द्वारा architsingh
11 December 2024
in इतिहास, चर्चित
ओशो ने 'लाआत्सु पुस्तकालय' नाम से अपनी एक लाइब्रेरी भी बनाई थी

ओशो ने 'लाआत्सु पुस्तकालय' नाम से अपनी एक लाइब्रेरी भी बनाई थी

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दुनिया में अलग–अलग समय पर अनेक ऐसी विभूतियाँ हुईं जिन्होंने अपनी विलक्षणता के कारण इस विश्व में अपनी अलग पहचान स्थापित की। इन महान विभूतियों ने अपने विचारों के माध्यम से तत्कालीन समाज को तो जाग्रत किया है आज भी इनके विचार मनुष्य के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उन्हीं अनेक महान व्यक्तित्वों में से एक थे ओशो। आज उनकी जयंती के अवसर पर हम अपनी चर्चा उन्हीं के इर्द गिर्द केंद्रित करेंगे।

ओशो व आचार्य रजनीश के नाम से प्रसिद्ध इस महान विचारक व दार्शनिक का जन्म 11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश के एक छोटे से गाँव कुचवाड़ा में हुआ था। बचपन में इनका नाम चंद्रमोहन जैन था। इनके जन्म के संबंध में एक रोचक प्रसंग हमें मिलता है। अपने जन्म के तीन दिनों तक ओशो न तो रोए तथा न ही हंसे। ओशो के नाना–नानी इस बात को लेकर काफी चिंतित थे किन्तु तीन दिन बाद जब ओशो हंसे तथा रोए, तब इनके नाना–नानी ने राहत की सांस ली। ओशो के नाना–नानी ने नवजात अवस्था में ही इनके चेहरे पर एक अद्‌भुत आभामण्डल देखा था। जन्म से जुड़े इस प्रसंग का जिक्र ओशो ने अपनी किताब ‘स्वर्णिम बचपन की यादें‘ (‘ग्लिप्सेंस ऑफड माई गोल्डन चाइल्डहुड’) में किया है।

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ओशो के बचपन की चर्चा करते समय एक और रोचक प्रसंग हमें मिलता है जो इनकी कुंडली से जुड़ा है। बनारस के जिस ब्राह्मण ने ओशो की कुंडली बनाई उसने जन्म के समय कहा था कि यह बालक सात वर्ष की आयु तक ही जीवित रहेगा, यदि उससे अधिक आयु तक जीवित रह तो जरूर कोई महान व्यक्तित्व बनेगा। अतः उसने जन्म के समय ओशो की कुंडली इसीलिए नहीं बनाई कि सात वर्ष बाद उसका कोई लाभ नहीं रहता। कहा जाता है कि जन्म के सात वर्ष पश्चात ओशो को मृत्यु का अहसास हुआ किन्तु वे बच गए। सात वर्ष पश्चात जब पंडित ने कुंडली बनाई तो उसने कहा कि जीवन के 21 वर्ष तक प्रत्येक सातवें वर्ष में इस ओशो को मृत्यु का योग है।

ओशो अपने नाना और नानी से अत्यधिक प्रेम करते थे तथा उन्हीं के पास अधिकांश समय व्यतीत किया करते थे। जब ओशो 14 वर्ष के हुए तो उन्हें इस बात की जानकारी थी कि पंडित ने कुण्डली में मृत्यु का उल्लेख किया हुआ है। इसी को ध्यान में रखकर ओशो शक्कर नदी के पास स्थित एक पुराने शिव मंदिर में चले गए और सात दिनों तक वहाँ लेटकर मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। सातवें दिन मंदिर में ओशो को एक सर्प दिखा तो उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि यही उनकी मृत्यु है किन्तु सर्प वहाँ से चला गया। इस घटना के माध्यम से ओशो का मृत्यु से प्रत्यक्ष साक्षात्कार हुआ तथा उन्हें मृत्युबोध हुआ।

इनका बचपन इनके नाना–नानी के साथ गाडरवारा में बीता तथा इनकी उच्च शिक्षा जबलपुर में हुई। शिक्षा पूरी करने के बाद वे जबलपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भी रहे। कुछ समय पश्चात ही उन्होंने नौकरी त्याग दी और सन्यासी जीवन की ओर अग्रसर हुए। वास्तव में यहीं से ओशो के व्यक्तित्व का वह हिस्सा उभर कर आया जिसे आज कोई आध्यात्मिक गुरु तो कोई भगवान रजनीश या आचार्य रजनीश के नाम से जानता है।

सन्यासी जीवन में प्रवेश करने के पश्चात ओशो के आध्यात्मिक विचारों ने क्रांति फैला दी। कई बार ये विवादों में भी घिरे किन्तु इनकी ख्याति भारत से लेकर विदेशों तक में फैलती रही। ओशो को समझने के लिए ओशो को पढ़ना और सुनना आवश्यक हो जाता है। इनके द्वारा लिखा गया अधिकांश साहित्य वस्तुतः इनके प्रवचनों का ही संकलन है। आज भी डिजिटल मीडिया पर ओशो के विचारों को सुना जा सकता है तथा सच तो ये है कि वर्तमान में भी इनके अनेक अनुयायी हैं। ओशो को समझने के लिए बाजार में इनकी अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं, यहाँ यह जान लेना भी अपेक्षित है कि इनकी पुस्तकें वास्तव में लोगों के मध्य खूब लोकप्रिय हैं। हालाँकि इनके प्रवचनों पर आधारित अनेक पुस्तकें आज उपलब्ध हैं किंतु यहाँ हम उनकी कुछ प्रमुख पुस्तकों पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे।

‘ध्यान योग, प्रथम और अंतिम मुक्ति‘ नामक शीर्षक से उपलब्ध यह पुस्तक ओशो द्वारा ध्यान पर दिए गए गहन प्रवचनों का संकलन है। इसमें ध्यान की अनेक विधियों का वर्णन है, जो हमारी सहायता कर सकती हैं। इस पुस्तक को ध्यान के लिए मार्गदर्शक की तरह प्रयोग किया जा सकता है किंतु यह तभी सम्भव होगा जब इसे प्रथम से अंतिम पृष्ठ तक पढा जाएगा। 

‘कृष्ण स्मृति‘ शीर्षक से प्रकाशित एक पुस्तक ओशो द्वारा कृष्ण के बहु–आयामी व्यक्तित्व पर दी गई 21 वार्ताओं और नवसंन्यास पर दिए गए एक खास उद्बोधन का विशेष संकलन है। यही वह प्रवचनमाला है, जिसके दौरान ओशो के साक्षित्व में संन्यास ने नए शिखर को छूने के लिए उत्प्रेरणा ली और ‘नव–संन्यास अंतरराष्ट्रीय‘ की संन्यास दीक्षा का सूत्रपात हुआ। इस दृष्टि से यह ओशो की महत्वपूर्ण पुस्तकों में से एक है। 

‘प्रेम–पंथ ऐसो कठिन‘ ओशो की यह पुस्तक प्रेम के तीन रूपों – प्रेम में गिरना, प्रेम में होना और प्रेम ही हो जाना को बहुत सटीकता के साथ स्पष्ट करती है। ओशो एक प्रश्नोत्तर प्रवचनमाला शुरू करते हैं और प्रेम व जीवन से जुड़े सवालों की गहरी थाह में श्रोताओं/पाठकों को गोता लगवाने लिए ले चलते हैं। यह विरह की, पीड़ा की, आनंद की, अभीप्सा की तथा तृप्ति की एक इंद्रधनुषी यात्रा जैसी है। आज भी युवाओं से लेकर प्रत्येक वर्ग में यह पुस्तक बेहद लोकप्रिय है।

इनकी कुछ पुस्तकें विवादित भी रहीं। ‘संभोग से समाधि की ओर‘ इनकी ऐसी ही एक बहुचर्चित और विवादित पुस्तक है, जिसमें ओशो ने काम ऊर्जा का विश्लेषण कर उसे अध्यात्म की यात्रा में सहयोगी बताया है। साथ ही यह किताब काम और उससे संबंधित सभी मान्यताओं और धारणाओं को एक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है। बतौर ओशो ‘काम पाप नहीं है बल्कि यह भगवान तक पहुंचने का पहला पायदान है।‘

चूँकि ओशो ने अनेक पुस्तकें लिखीं ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि ओशो ने कितनी पुस्तकें पढ़ी हैं। एक डॉक्यूमेंट्री में ओशो खुद बताते हैं कि उन्होंने लगभग डेढ़ लाख पुस्तकों का अध्ययन किया। उन्होंने ‘लाआत्सु पुस्तकालय‘ नाम से अपनी एक लाइब्रेरी भी बनाई। ओशो अपने वक्तव्यों में कई बार उपनिषदों आदि के संदर्भ भी देते हैं, उन्होंने अनेक भारतीय विचारकों से लेकर प्लेटो, अरस्तू, नीत्शे आदि पाश्चात्य दार्शनिकों को भी पढ़ा। उन्होंने हिंदी साहित्य के एक प्रमुख साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘ का उपन्यास ‘नदी के द्वीप‘ भी पढ़ा, जिससे वे काफी प्रभावित हुए। उन्होंने इसकी काफी प्रशंसा भी की। उनके शब्दों में ही कहें तो बतौर ओशो ‘इस हिन्दी उपन्यास का अब तक अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हुआ है। ये अजीब है कि मेरे जैसा आदमी इसका जिक्र कर रहा है। इसका हिन्दी टाइटल नदी के द्वीप है, ये अंग्रेजी में ‘आईलैंड्स ऑफ अ रिवर बाय सच्चिदानंद हीरानंद’ नाम सेे हो सकता है। ये किताब उनके लिए है, जो ध्यान करना चाहते हैं। ये योगियों की किताब है। इसकी तुलना न तो टालस्टाय के किसी उपन्यास से हो सकती है और न ही चेखव के। इसका दुर्भाग्य यही है कि इसे हिन्दी में लिखा गया है। ये इतनी बेहतरीन है कि मैं इसके बारे में कुछ कहने से अधिक इसे पढ़कर इसका आनंद लेना उचित होगा। इतनी गहराई में जाकर बात करना बहुत मुश्किल है।’

निश्चित रूप से ओशो की ये पुस्तकें हमें ओशो के विचारों से अवगत कराती हैं, किन्तु इनकी फेहरिस्त बहुत लंबी है। ओशो को जानने के इच्छुक लोग इनके प्रवचनों पर आधारित पुस्तकों को तो पढ़ ही सकते हैं साथ ही ओशो के जीवन पर लिखी गयी अनेक पुस्तकों का अध्ययन भी कर सकते हैं। वसंत जोशी द्वारा लिखी ओशो की जीवनी ‘द ल्यूमनस रेबेल लाइफ़ स्टोरी ऑफ़ अ मैवरिक मिस्टिक’ में ओशो के जीवन के अनेक पक्ष हमारे सामने आते हैं। ओशो की सचिव रहीं आनंद शीला की आत्मकथा ‘डोंट किल हिम, द स्टोरी ऑफ़ माई लाइफ़ विद भगवान रजनीश’ को भी पढ़ा जा सकता है। इन पुस्तकों के अतिरिक्त भी अनेक पुस्तकें ओशो के जीवन पर लिखी गईं, जिन्हें पढ़कर ओशो के जीवन के अनेक अनछुए, अनसुने पक्षों को भी जाना जा सकता है।

ओशो का नाता कई विवादों से रहा जिनमें अमरीका प्रवास को लेकर उठा विवाद बेहद प्रमुख है। साल 1981 से 1985 के बीच वो अमेरिका में रहे। अमरीकी प्रांत ओरेगॉन में उन्होंने आश्रम की स्थापना की तथा इस आश्रम की विशेषता ये थी कि यह 65,000 एकड़ में फैला था। ओरेगॉन में ओशो के शिष्यों ने उनके आश्रम को रजनीशपुरम नाम से एक शहर के तौर पर रजिस्टर्ड कराना चाहा किन्तु स्थानीय लोगों ने तथा वहाँ के शासन ने इसका काफी विरोध किया। अमेरिकी सरकार ने उनपर अप्रवास नियमों का उल्लंघन करने के मामले में कई केस भी दर्ज किए, जिसके तहत उन्हें वहाँ जेल भी जाना पड़ा। कहा जाता है कि इसी दौरान उन्हें जेल में अधिकारियों ने थेलियम नामक धीरे असर वाला जहर दे दिया था। इसके बाद ओशो अमेरिका छोड़कर भारत लौट आए और पूना के आश्रम में रहने लगे। साल 1990 की 19 जनवरी को यहीं ओशो ने अंतिम सांस ली।

स्रोत: ओशो, आचार्य रजनीश, कृष्ण, ओशो पुस्तकें, ओशो के विचार, ओशो जीवनी, मृत्यु, संभोग से समाधि की ओर, Osho, Acharya Rajneesh, Krishna, Osho books, Osho's thoughts, Osho biography, death, sambhog se samadhi ki Aur,
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बिहार की राजनीति में जब “जंगलराज” शब्द उभरा, तो यह किसी विपक्षी नेता की गढ़ी हुई परिभाषा नहीं थी। यह उस दौर की सच्चाई थी,...

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