राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) के मंदिर-मस्जिदों पर दिए हालिया बयान को लेकर खूब चर्चा हो रही है। भागवत ने अपने बयान में हर जगह मंदिर ना ढूंढने और इससे जुड़े नए विवादों को ना उठाने की सलाह दी है। इस दौरान उन्होंने कहा कि अयोध्या के राम मंदिर (Ram Mandir) के निर्माण के बाद कुछ लोग यह मानने लगे हैं कि वे इस तरह के मुद्दों को उठाकर ‘हिंदुओं के नेता’ बन सकते हैं।
मोहन भागवत के इस बयान को नेताओं के राजनीतिक प्रदर्शन से जोड़कर भी देख जा रहा है उनके इस बयान के कुछ ही समय बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) ने काशी, अयोध्या, संभल, भोजपुर आदि जगहों पर मंदिरों को तोड़ने की बात कही है। इन दिनों काशी, मथुरा, संभल, अजमेर, भोजपुर, धार, बदायूं और जौनपुर जैसी जगहों पर मंदिर तोड़कर अन्य धर्म स्थल बनाए जाने के मामले चल रहे हैं और इन जगहों पर हिंदू मंदिर होने के कई साक्ष्य भी मौजूद हैं।
इस बयान के बाद ना केवल कांग्रेस, सपा जैसी पार्टियां बल्कि शिया पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे मुस्लिम संगठन के प्रमुख भी भागवत का समर्थन और उनके बयान का स्वागत कर रहे हैं। यही लोग सीएम योगी आदित्यनाथ के बयानों की आलोचना करते रहे हैं। मोहन भागवत के इस बयान को नेताओं के राजनीतिक प्रदर्शन से जोड़कर भी देख जा रहा है उनके बयान को अलग-अलग तरह से पेश किया जा रहा है और तमाम लोग उनके बयान से अपने-अपने समर्थन के तर्क ढूंढ रहे हैं। कुछ लोगों ने इन बयानों को लेकर भागवत और योगी के बीच विरोध जैसे तर्क भी दिए हैं। संघ प्रमुख का ऐसा बयान पहली बार नहीं आया है बल्कि जून 2022 में वह हर मंदिर के नीचे शिवलिंग ना ढूंढने की बात कह चुके हैं।
साथ ही, मोहन भागवत के इस बयान को नेताओं के राजनीतिक प्रदर्शन से जोड़कर भी देख जा रहा है उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि देश में कोई अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक नहीं हैं बल्कि सभी समान हैं। इसके ज़रिए भागवत ने सभी लोगों के भारतीयकरण की वकालत की है। देश में पिछले कुछ समय में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के नाम पर अलग-अलग तरह के विवाद सामने आते रहे हैं। जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों का बनना और वहां पर हिंदुओं की शोभायात्राओं पर हमले या पथराव की खबरें लगभग आम हो गई हैं। देश में मुस्लिम बहुल इलाके बन रहे हैं और इनमें अलग-अलग तरह की मांगे भी उठती रहती हैं।
अल्पसंख्यकों के नाम पर तुष्टिकरण का इतिहास दशकों पुराना है और भागवत इस विवाद की तरफ ही इशारा कर रहे हैं। देश के दूसरी सबसे बड़े धार्मिक समूह को विशेष अधिकारों के नाम पर तमाम तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं। अल्पसंख्यकों के लिए अलग मंत्रालय भी है। देश में इस समय मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन समुदाय को अल्पसंख्यक माना जाता है लेकिन उनके बीच आबादी का अंतर बहुत बड़ा है। जहां मुस्लिमों की आबादी 15% से ज़्यादा है वहां बाकी समुदायों में किसी की भी आबादी 3% तक भी नहीं है। ऐसे में अल्पसंख्यकों के नाम पर दूसरे बहुसंख्यक समुदाय को देखा जाने पर भी यह एक सवाल है।
मोहन भागवत-योगी की जोड़ी
इन बयानों के ज़रिए भागवत VS योगी के मुद्दे को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे लोगों को यह समझना भी ज़रूरी है कि योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री के तौर पर RSS की पसंद माना जाता है। हाल ही में जब योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने को लेकर जब अटकलें लगाई जा रही थीं तो मोहन भागवत ने मथुरा का दौरा किया था और इसमें उनके और योगी के बीच कई घंटों तक बातचीत हुई थी। जिसके बाद इन अटकलों पर विराम लग गया था।
ऐसे में भागवत के बयान के खिलाफ योगी का बयान देने की मंशा के पीछे कोई तर्क नहीं है। बल्कि यह सोची समझी रणनीति ज़रूर हो सकती है। RSS हिंदू संस्कृति से जुड़ा सबसे बड़ा संगठन है और उसका दायरा केवल भारत तक की सीमित नहीं है बल्कि पूरी दुनिया में संघ की बात को सुना जाता है और उस पर विचार-विमर्श किया जाता है ऐसे में भागवत शायद RSS को बहुत अधिक आक्रमक संगठन तौर से पेश करने से बच रहे हैं और अपना संदेश पूरी दुनिया में पहुंचा रहे हैं।
वहीं, योगी आदित्यनाथ की छवि शुरुआत से ही एक आक्रामक हिंदुत्ववादी नेता के तौर पर रही है और वे उसी रास्ते पर चलकर संगठन को आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसे में ये स्थितियां दोनों नेताओं के अनुकूल हैं। भागवत ने अपने बयान में कहा कि रामकृष्ण मिशन में क्रिसमस मनाया जाता है और केवल हम ही ऐसा कर सकते हैं क्योंकि हम हिंदू हैं। इसके ज़रिए भागवत जहां दुनिया को हिंदुत्व की सहिष्णुता का पाठ पढ़ा रहे हैं वहीं योगी हिंदुओं की विलुप्त विरासतों पर दावा ठोक रहे हैं। जिन मंदिरों को लेकर मौजूदा विवाद है उनमें से कई उत्तर प्रदेश में हैं ऐसे में योगी आदित्यनाथ अपने बयान के ज़रिए वोट बैंक भी साध रहे हैं।
भागवत का नेताओं के लिए संदेश
भागवत के इस बयान को नेताओं के राजनीतिक प्रदर्शन से जोड़कर भी देखा जा रहा है। मंदिर और मस्जिद का संघर्ष एक सांप्रदायिक मुद्दा है और कुछ लोग केवल इन्हीं पर बयानबाज़ी के ज़रिए नेता बनना चाहते हैं या बनते जा रहे हैं। ऐसे में भागवत की यह सीख उन लोगों के लिए यह संदेश भी है। आरएसएस-बीजेपी के बड़े नेताओं का ज़मीन पर काम करने का दशकों का अनुभव है। चाहें खुद भागवत हों, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या अन्य बड़े नेता हों सभी का अनुभव कई-कई दशकों का है। ऐसे में भागवत का यह संदेश हो सकता है कि केवल एक ही मुद्दे के आधार पर जो नेता खुद को राजनीति में स्थापित करना चाहते हैं उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरह के अनुभव लेने चाहिए।
जब भारत 21वीं सदी में खुद को सुपर पावर के तौर पर स्थापित करने में लगा है तो देश की बड़ी ऊर्जा केवल हिंदू-मुस्लिम के मुद्दे में ना खपे यह भी भागवत का एक संदेश हो सकता है। भारत में सभी तरह के विवादों के लिए अदालतें हैं और इनमें से अधिकतर विवाद फिलहाल अदालतों में लंबित भी हैं। भागवत का संदेश हिंदू-मुस्लिम विवाद को देश का मुख्य मुद्दा ना बनाकर देश के अधिकतम संसाधनों का इस्तेमाल विकास जैसे विषयों पर करने का भी हो सकता है।