मंगलवार (10 दिसंबर, 2024) की सुबह आई बेंगलुरु के इंजीनियर अतुल सुभाष(Atul Subhash) की आत्महत्या की खबर ने पूरे देश को झकझोर के रख दिया है। इस खबर के सुर्खियां बटोरते ही सोशल मीडिया पर वोक फेमिनिज्म, और लचर कानून व्यवस्था के साथ साथ पुरुषों के मनोवैज्ञानिक संघर्ष का मुद्दा भी तूल पकड़ रहा है। शोध और आंकड़ों की मानें तो पुरुषों में आत्महत्या की दर महिलाओं से कहीं अधिक है। अब इसे विरोधाभास कहें या कुछ और?
एक ऐसा समाज जहां पुरुषों को महिलाओं पर हुए कथित शोषण के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता रहा हो, वहीं जीवन ने पुरुषों को महिलाओं की तुलना में कहीं अधिक दबाव में डाल रखा है। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज (IIPS) के अध्ययन में सामने आई जानकारी के अनुसार, भारतीय पुरुषों में आत्महत्या की दर भारतीय महिलाओं की तुलना में 2.5 गुना अधिक है।
पुरुषों में आत्महत्या की अधिक दर
आत्महत्या के मामले में भारतीय पुरुषों की संख्या में चिंताजनक वृद्धि हुई है। The Lancet Regional Health की रिपोर्ट के अनुसार, 2014 में 89,129 पुरुषों ने आत्महत्या की, जबकि महिलाओं की संख्या 42,521 थी। 2021 में यह अनुपात और बढ़कर 2.64 गुना हो गया, जिसमें 1,18,979 पुरुषों ने आत्महत्या की, जबकि महिलाओं की संख्या 45,026 रही।
आश्चर्य की बात है कि, यह आंकड़े पुरुषों के मानसिक संघर्ष को उजागर करते हैं, जो अक्सर नजरअंदाज कर दिए जाते हैं। वहीं, यह उन तथाकथित ‘वोक फेमिनिज़्म’ पर भी सवाल उठाता है, जो पुरुषों को समाज में अपराधी ठहराकर महिलाओं के शोषण का सारा दोष उन पर थोपता है। जब हम समाज में महिलाओं के शोषण की बात करते हैं, तो क्यों पुरुषों के मानसिक संकट और आत्महत्या के मामलों पर उतनी ही चर्चा नहीं होती?
हैरत की बात तो यह है कि इस रिपोर्ट में शादीशुदा पुरुषों में आत्महत्या की दर 2021 में महिलाओं के मुकाबले तीन गुना अधिक बताई गयी है। आत्महत्या की दर में शादीशुदा पुरुषों में 2021 में प्रति लाख 24.3 की दर थी, जो महिलाओं के मुकाबले तीन गुना अधिक थी, जहाँ यह आंकड़ा का 8.4 था। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि पारिवारिक समस्याएं पुरुषों में आत्महत्या के प्रमुख कारण के रूप में सामने आईं। इस आंकड़े ने यह सवाल उठाया है कि जब समाज पुरुषों को अपनी भावनाओं और दर्द को व्यक्त करने की इजाजत नहीं देता, तो उनके मानसिक स्वास्थ्य पर इसका क्या असर पड़ता है?
वहीं, महिलाओं के मामलों में इस मानसिक स्वास्थ्य संकट को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। समाज और सिस्टम का यह रूख पुरुषों को शोषणकर्ता के रूप में पेश करता है, जबकि असल में पुरुषों की मानसिक स्थिति को भी समझने और उनका समर्थन करने की आवश्यकता है। पुरुषों में बढ़ती आत्महत्या की दर यह संकेत देती है कि मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर चर्चा की दिशा में समानता की जरूरत है, न कि किसी एक पक्ष को दोषी ठहराने की।