सभ्यताओं का कब्रगाह अफगानिस्तान: जहाँ अफगानों ने ब्रिटिश सेना के 16500 लोगों को गाजर-मूली की तरह काटा, ज़िंदा बचे इकलौते डॉक्टर ने सुनाई थी कहानी

बुरी तरह से घायल डॉक्टर विलियम ब्राइडन सप्ताह भर घोड़े पर चलने के बाद 13 जनवरी 1842 को पाकिस्तान के जलालाबाद पहुँचे थे

चित्र: एलिज़ाबेथ बटलर की 'द रेमनेंट्स ऑफ एन आर्मी' पेंटिंग

चित्र: एलिज़ाबेथ बटलर की 'द रेमनेंट्स ऑफ एन आर्मी' पेंटिंग

बात तब की है, जब भारत पर अंग्रेजों की हुकूमत थी। अंग्रेज एक-एक करके भारत और उसके आसपास के क्षेत्रों को जीतते जा रहे थे। हालाँकि, आज के अफगानिस्तान में उन्हें वो सबक मिला, जिसे इंग्लैंड और अंग्रेज आज तक नहीं भूला पाए हैं। जिन अफगानी लड़ाकों को मुगलकाल में राजा मानसिंह ने नेस्तानाबूद कर भारत से दूर कर दिया था, वो अंग्रेजों की चढ़ाई से बिफर उठे। 10 दिनों तक चली लड़ाई में अफगान लड़ाकों ने 16,500 अर्दली, महिलाओं और बच्चों को काट डाला था। इनमें से अधिकतर भारतीय थे। इस भीषण कत्लेआम में सिर्फ एक शख्स बचा था और उसने जिंदा लौटकर इस कत्लेआम से दुनिया को अवगत कराया था। इस शख्स का नाम था विलियम ब्राइडन। वह ब्रिटिश सेना में डॉक्टर था।

दरअसल, भारत उस समय ब्रिटिश साम्राज्य का अंग था। उसके बगल में रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण अफगानिस्तान स्वतंत्र था। वहाँ पर ब्रिटेन का प्रतिद्वंद्वी रूस अपनी पैठ बनाना चाह रहा था। इसको देखते हुए ब्रिटेन अफगानिस्तान को अपने भारतीय साम्राज्य में मिलाने या वर्तमान सुल्तान को हटाकर एक ब्रिटिश समर्थक पूर्व शासक शाह शुजा को सिंहासन पर बैठाना चाहता था। इसके लिए भारत की ब्रिटिश हुकूमत ने सन 1837 में अफगानिस्तान के सुल्तान, जिसे अमीर कहा जाता था, दोस्त मोहम्मद खान का समर्थन हासिल करने के लिए अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में एक दूत भेजा।

शुरू में अमीर दोस्त मोहम्मद अंग्रेजों के साथ गठबंधन के पक्ष में था, लेकिन पेशावर को वापस पाने में अंग्रेजों ने दोस्त मोहम्मद की मदद नहीं की। इसके बाद दोस्त मोहम्मद का झुकाव रूस की ओर हो गया। पेशावर पर सिखों ने 1834 में कब्जा कर लिया था। दोस्त मोहम्मद के रूस की ओर झुकाव देखकर भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड ऑकलैंड ने उसे ब्रिटिश विरोधी करार दे दिया था। इसी दौरान रूस समर्थित फारसी (वर्तमान में ईरानी) सेना ने अफगानिस्तान के पश्चिमी शहर हेरात को घेर लिया। इसलिए अंग्रेजों ने दोस्त मोहम्मद की जगह एक पूर्व शासक शाह शुजा को लाने का फैसला किया, जिन्हें ज्यादा विनम्र माना जाता था।

अंत में सन 1839 के वसंत में जनरल सर जॉन कीन के नेतृत्व में 20,000 सैनिकों वाली ब्रिटिश-भारतीय सेना की ‘सिंधु सेना’ बोलन और खोजक दर्रे से होकर अफगानिस्तान की ओर बढ़ चली। इन सैनिकों की सेवा के लिए 38,000 नौकर, मोची, दर्जी, नाई आदि लोग एवं उनका परिवार था। इलाका कठिन था और अंग्रेजों को रास्ते में आदिवासियों द्वारा परेशान किया गया, लेकिन उन्हें कोई बड़ा प्रतिरोध नहीं मिला। ब्रिटिश सेना जैसे ही कंधार के पास पहुँची वहाँ के शासक दोस्त मोहम्मद का भाई काबुल भाग गया। इसके बाद ब्रिटिश सेना ने काबुल पर अधिकार कर लिया। मेजर-जनरल सर विलियम नॉट के नेतृत्व में वहाँ एक गैरीसन छोड़कर मुख्य सेना उत्तर-पूर्व में काबुल की ओर कूच कर गई।

हालाँकि, काबुल के रास्ते में गजनी था, जो अंग्रेजों के लिए एक बड़ी मुसीबत था। गजनी की बेहद मोटी और 60 फुट ऊँची दीवारों को भेदने के लिए अंग्रेजों के पास भारी तोपखाना नहीं था। ये अप्रैल का महीना था। हालाँकि, अंग्रेजी सेना ने 23 जुलाई 1839 को अंग्रेजों ने गजनी पर हमला कर दिया। दरअसल, अंग्रेजों के उसका कश्मीरी दुभाषिया, अंग्रेजों के जासूस और राजनीतिक अधिकारी कैप्टन सर अलेक्जेंडर बर्न्स के सहायक पंडित मोहन लाल ने आकर जानकारी दी थी कि एक द्वार की रक्षा बहुत है और इस रास्ते से हमला किया जा सकता है। इसके बाद अंग्रेजों ने इस किले पर कब्जा कर लिया। इस लड़ाई में अंग्रेजों ने 500 अफगानों को मार गिराया और 1600 को पकड़ लिया। हालाँकि, लड़ाई में अंग्रेजों के 200 लोग भी घायल हुए थे। इस तरह गजनी के किले पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। अब अंतिम लक्ष्य काबुल की ओर अंग्रेज बढ़ चले।

दोस्त मोहम्मद को जब इसकी जानकारी मिली तो वह काबुल से भाग गया। अंग्रेजों ने शाह शुजा को अमीर बना दिया। कुछ समय के बाद अंग्रेजों ने एक छोटी सी सेना और राजनीतिक दूत को छोड़कर अपने सभी सैनिकों को वापस बुला लिया। हालाँकि, ब्रिटिश सेना के कैंप में हजारों की संख्या में भारतीय नौकर काम कर रहे थे। इनकी कुल संख्या 16,500 हजार थी। इतनी बड़ी सेना को ब्रिटिश भारत के लाहौर से काबुल जाने में आठ महीने का वक्त लगा था। ये 450 मील की दूरी को पूरा कर काबुल पहुँचे थे।

इस बीच दोस्त मोहम्मद के बेटे मुहम्मद अकबर खान ने शाह शुजा के खिलाफ लोगों को भड़काना शुरू किया और फिर विद्रोह कर दिया। इस दौरान सर विलियम मैकनागटन सहित ब्रिटिश राजनयिकों की हत्या कर दी गई। आखिकार वहाँ जो छोटी सी टुकड़ी थी, उसने भी अकबर खान के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। ब्रिटिश कमांडर जनरल सर विलियम एलफिंस्टन ने अकबर खान से इन सैनिकों को वापस भेजने के लिए बातचीत की। अकबर खान ने ये शर्त रखी कि अंग्रेज अपने बारूद के भंडार और अपनी अधिकांश तोपों को उसे सौंप देंगे। जनरल विलियम एलफिंस्टन इसके लिए तैयार हो गए। आखिरकार 6 जनवरी 1842 में 4,500 ब्रिटिश, उनकी पत्नियाँ एवं बच्चे और भारतीय सैनिकों की काबुल वाली टुकड़ी और 12,000 अन्य लोगों को सुरक्षित भारत जाने की अनुमति दी गई। 12,000 लोगों में ब्रिटिश अधिकारियों के लिए मोची, बावर्ची, दर्जी जैसे जरूरी कामों को करने वाले लोग और उनका परिवार शामिल था।

हालाँकि, जब अंग्रेज सैनिक और उनके नौकर आदि काबुल से निकले तो उन्हें ना ही पर्याप्त भोजन और ईंधन दिया गया और ना ही अन्य तरह की व्यवस्था की गई। ये कड़ाके की सर्दियों का मौसम था कठिन पहाड़ों एवं दर्रों को पारकर भारत जाना था। ऐसे में इस सैन्य टुकड़ी को वापस काबुल लौटने का अनुरोध किया गया। हालाँकि, जनरल एलिफिस्टन इसके लिए तैयार नहीं हुए और उन्होंने सैन्य टुकड़ी को आगे बढ़ते रहने का आदेश दिया।

ठंड और पहाड़ी इलाकों से संघर्ष करते हुए यह टुकड़ी आगे बढ़ी तो पहाड़ी कबायलियों ने इस पर हमला कर दिया। यहाँ कुछ सैनिक आगे बढ़ गए और कुछ पीछे छूट गए। सैनिकों के पास गोला-बारूद भी खत्म हो चुका था। हथियार भी गिने-चुने रह गए थे। मुख्य रूप से 44वीं फ़ुट रेजिमेंट के अधिकारियों और सैनिकों ने गंडामक दर्रे के आसपास अंतिम लड़ाई लड़ने की ठानी, लेकिन वे सफल नहीं हुए। गंडामक में बचे हुए लोगों के पास बचे हथियारों में से लगभग एक दर्जन काम करने वाली बंदूकें, अधिकारियों की पिस्तौलें और कुछ तलवारें थीं। कबायलियों ने सारे सैनिकों एवं लोगों का नरसंहार कर दिया गया। जो कुछ सैनिक और उनके भारतीय नौकर बच गए, उन्हें पकड़ कर काबुल के गुलाम बाज़ारों में बेच दिया गया। बंदी बनाए गए लोगों में लेफ्टिनेंट थॉमस अलेक्जेंडर सूटर भी शामिल थे।

अफगानों के हमले के दौरान दो ब्रिटिश महिलाएँ मुस्लिम बन गईं और उन्होंने जुब्बारखेल गिलजई कबीले के मुस्लिम पुरुषों से शादी कर लीं। इन लोगों ने इन ब्रिटिश महिलाओं की जान बचाई थी। इन दोनों महिलाओं की कहानियाँ आज भी गिलजई लोककथाओं में जीवित हैं। हालाँकि, इस पर संशय है और कहा जाता है कि इन दोनों अफगानों ने इन ब्रिटिश महिलाओं का अपहरण करके जबरन निकाह कर लिया था।

जनरल सेल के दामाद कैप्टन स्टर्ट की भी अपनी कहानी है। स्टर्ट एक ब्रिटिश बच्चे को बचाने के लिए गया था। वह बच्चा अपनी मृत माँ के बगल में पड़ा था। स्टर्ट ने जैसे ही उसे उठाया, उसे अफगानों ने गोली मार दी। यह गोली स्टर्ट के दिल में लगी थी। स्टर्ट की इस लड़ाई से ठीक एक महीना पहले मार्च काबुल में मिस सेल से हुई थी। इन 16,500 लोगों में यहाँ से बचकर सिर्फ एक ही व्यक्ति बचकर जलालाबाद पहुँचा और वह था डॉक्टर विलियम ब्राइडन।

बुरी तरह से घायल विलियम ब्राइडन सप्ताह भर घोड़े पर चलने के बाद 13 जनवरी 1842 को पाकिस्तान के जलालाबाद पहुँचे। जलालाबाद के बाहरी इलाके में थके हुए टट्टू पर सवार एक अकेला आदमी को अफगानिस्तान से आते हुए देखकर ब्रिटिश किले की दीवारों पर तैनात एक युवा अधिकारी चौंका। उसने बचाव दल को भेजा। जब वे उस व्यक्ति के पास पहुँचे, तो वह बेजान लग रहा था और उसके सिर पर एक घाव था। उसकी वर्दी खून से लथपथ थी और उससे खून रिस रहा था।

बचाव दल ने उस व्यक्ति को जगाया और पूछा, “सेना कहाँ है?” सहायक सर्जन विलियम ब्राइडन ने उत्तर दिया, “मैं सेना हूँ।” बचाव दल उनके लेकर किले में पहुंचा और इलाज शुरू किया गया। उन्होंने आगे बताया, “(कबायलियों के हमले के दौरान) मुझे मेरे घोड़े से खींच लिया गया और एक अफगान चाकू से सिर पर वार करके गिरा दिया गया। अगर मैंने अपनी टोपी में ब्लैकवुड की मैगज़ीन का एक हिस्सा नहीं रखा होता तो शायद मेरी मौत हो जाती। वैसे भी, मेरी खोपड़ी से हड्डी का एक टुकड़ा कट गया था। जैसे ही अफगान ने दूसरा वार करने के लिए झपट्टा मारा, ब्राइडन ने पहले अपनी तलवार की धार से उस पर वार किया, जिससे हमलावर की उंगलियाँ कट गईं। जब उसका हमलावर भाग गया, तो ब्राइडन बैरिकेड के पीछे छिपे बचे हुए ब्रिटिश सैनिकों के साथ फिर से जुड़ गए। फिर उन्होंने एक मरे हुए एक घुड़सवार का घोड़ा लिया और अंधेरी रात में अकेले ही निकल गए।”

ब्राइडन ने बताया कि वे आगे बढ़े तो गंडामक दर्रे के पास हमला कर दिया गया। उन्होंने आगे की कहानी बताई, “सौभाग्य से मेरे हाथ में सिर्फ़ एक ही गोली लगी थी। तीन गोली मेरे कंधे के पास से गुज़र गईं, लेकिन मुझे कोई चोट नहीं आई। हम पर गोली चलाने वाला दल हमसे पचास गज से ज़्यादा दूर नहीं था। हमें उनसे बचना था। नज़ारा बेहद भयानक था। हर तरफ खून की घिनौनी गंध और लाशें पड़ी थीं। उनसे नज़र हटाना नामुमकिन था। मुझे अपने घोड़े को इस तरह से चलाना पड़ा कि वह शवों पर न चढ़ जाए।” रास्ते में जगह-जगह अफगानों द्वारा उन पर पत्थरों, चाकुओं और डंडों से हमला करने की कोशिश की जाती और वे बचकर निकल जाते। एक अफगान ने गोली चलाई जिससे ब्राइडन की तलवार क्षतिग्रस्त हो गई और उनका टट्टू घायल हो गया।

ब्राइडन ने बाद में याद करते हुए कहा, “जाँच करने पर पता चला कि मेरे सिर और बाएँ हाथ के अलावा मेरे बाएँ घुटने पर भी तलवार का घाव था और एक गोली मेरी पतलून के बीच से होकर त्वचा को छूती हुई निकल गई थी।” इतना ही नहीं, जब ब्राइडन टट्टू पर बैठकर भाग रहे थे, तब एक अफगान ने उनके टट्टू की पूँछ पकड़ ली और उसे रोकने की रोकने की कोशिश करने लगा। इस प्रक्रिया में वह टट्टू का पूँछ पकड़ कर लगभग आठ मील तक दौड़ता रहा। यह बात ब्राइडन ने बताई थी।

उधर, इस नरसंहार के बाद अंग्रेजों ने मेजर-जनरल जॉर्ज पोलक के नेतृत्व में भारत से एक सैन्य टुकड़ी भेजी। उधर जलालाबाद से मेजर जनरल रॉबर्ट सेल एक टुकड़ी लेकर खैबर दर्रे से आगे बढ़े। वे 7 अप्रैल 1842 को अकबर खान की सेना पर भीषण हमला किया। इस हमले में अंग्रेजों ने अकबर खान के शिविर को भारी क्षति पहुँचाई। इसी दौरान मेजर जनरल पोलक भी एक टुकड़ी के साथ आ गए। आगे बढ़ते हुए पोलक ने जगदालक और तेज़ीन में अकबर खान को हराया और आखिरकार सितंबर 1842 में काबुल पहुँच गया। काबुल में पोलक ने 95 ब्रिटिश बंधकों को बचाया। इसके साथ ही वहाँ के किलों और बाज़ार को पूरी तरह नष्ट कर दिया।

12 अक्टूबर 1842 को पोलक जलालाबाद और ख़ैबर दर्रे के रास्ते भारत के लिए रवाना हुआ। इधर पोलक भारत पहुँचा और उधर अकबर खान के समर्थकों ने अमीर शाह शुजा की हत्या कर दी। उधर, आत्मसमर्पण के बाद अंग्रेजों के कारागार में नवंबर 1840 से बंद दोस्त मोहम्मद खान को चुपचाप रिहा कर दिया गया। दोस्त मोहम्मद अफ़गानिस्तान लौटा और सन 1863 में अपनी मृत्यु तक राज राज किया। इस दौरान वह ब्रिटेन का सहयोगी बना रहा। बाद में दोस्त मोहम्मद के बेटे शेर अली ने गद्दी संभाली और वह भी अपने पिता की नीतियों पर चलते हुए अंग्रेजों का सहयोगी बना रहा।

इधर 1842 की घटना ने भारतीयों में यह आत्मविश्वास भर दिया कि ब्रिटिश सेना को हराया जा सकता है। इतना ही नहीं, अफगानिस्तान में मारे गए 90 प्रतिशत सैनिक और उनके नौकर भारतीय थे, जो गुलाम बाजार में बेच दिए गए थे। इनमें महिलाएँ और बच्चे भी शामिल थे। इसको लेकर भी भारतीयों में असंतोष पनप उठा और आखिरकार यह असंतोष 1857 के सिपाही विद्रोह के रूप में सामने आया। इस विद्रोह को अंग्रेजों के खिलाफ भारत का पहला और सबसे मजबूत विद्रोह माना जाता है।

सभ्यताओं का कब्रगाह (Graveyards of civilisation) के नाम से कुख्यात अफगानिस्तान से बचने में ब्राइडन का भाग्य ने साथ दिया। अफगानिस्तान में कितनी ही सभ्याएँ और सत्ता दबकर रह गईं, लेकिन ब्राइडन इसमें से बच निकलने में कामयाब रहे। बाद में उन्होंने कई युद्धों में अंग्रेजों की तरफ से हिस्सा लिया। साल 1852 के दूसरे एंग्लो-बर्मा युद्ध में भी वे शामिल हुए। वे 1857 के विद्रोह में लखनऊ की प्रसिद्ध घेराबंदी से मुश्किल से बच पाए थे। बाद में उन्होंने अपना शेष जीवन शांति से बिताया और आखिरकार 1873 में उनकी मृत्यु हो गई।

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