जन्मदिन विशेष: मानस नेत्रों से समाज को प्रकाशित करने वाले नेत्रहीन संत ‘रामभद्राचार्य’

रामभद्राचार्य ने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से नव्य व्याकरणाचार्य, विद्या वारिधि (पी-एच.डी) और विद्या वाचस्पति (डी.लिट) जैसी उपाधियाँ प्राप्त कीं

स्वामी रामभद्राचार्य ने 15 दिन में ही गीता और श्रीरामचरित को कंठस्थ कर लिया था

स्वामी रामभद्राचार्य ने 15 दिन में ही गीता और श्रीरामचरित को कंठस्थ कर लिया था

ये सृष्टि ईश्वर की सबसे सुंदर और अनूठी रचना है, जहां हर छोटीबड़ी वस्तु अपने अलग और सहज अस्तित्व के साथ विद्यमान है। जहां हर रंग अपनी संपूर्ण विशेषता के साथ मौजूद है। लेकिन सोचिए अगर किसी के पास ईश्वर की इस सुंदर सृष्टि को देख सकने की सहूलियत ही न हो?

आप उस व्यक्ति को इस मायने में अधूरा मानेंगे, क्योंकि वो चीज़ों को स्पष्ट रूप से न तो वैसे देख सकता है और न ही अनुभव कर सकता है, जैसी कि वो हैं। लेकिन रामभद्राचार्य जैसे संत ने इस धारणा को न सिर्फ ग़लत साबित किया है, बल्कि सनातन के इस दर्शन को भी सत्य साबित किया है कि नश्वर नेत्रों से तो सिर्फ वो देखा जा सकता है जो प्रत्यक्ष हैऔर अगर प्रत्यक्ष से परे देखना है, तो वो अंत:दृष्टि से ही संभव है

जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य ऐसे ही संत हैं, जिन्होने मन की आंखों से जो देखा उसे न सिर्फ समाज को बताया, बल्कि राह भी दिखलाई।

2 माह का उम्र में गँवाई आँखों की रौशनी, फिर रामकथा से रौशन हुआ जीवन

स्वामी रामभद्राचार्य का जन्म यूपी के जौनपुर ज़िले के शादी खुर्द गाँव में 14 जनवरी, 1950 को पं. राजदेव मिश्र एवं शचीदेवी के घर में हुआ था। जन्म के समय ही ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी कर दी थी कि ये बालक अति प्रतिभावान होगा, लेकिन महज़ दो माह की आयु में ही उनकी आंखों में रोहु रोग हो गया। आजादी के ठीक बाद का वक्त था, तब न तो उतने योग्य डॉक्टर्स थे और न ही अस्पताल। गांवोंकस्बों में लोगों का स्वास्थ्य नीमहकीमों के भरोसे ही रहता था।

अच्छा इलाज न मिल सकने की वजह से बालक की आंखों की रौशनी हमेशा के लिए चली गयी। पूरे घर में शोक छा गया; हालांकि रामभद्राचार्य ने अपने मन में कभी भी निराशा के अंधकार को स्थान नहीं दिया। चार वर्ष की आयु होते होते वो कविताएं लिखने और सुनाने लगे। स्मरण शक्ति कमाल की थी। उन्होंने सिर्फ 15 दिन में ही गीता और श्रीरामचरित को कंठस्थ कर लिया। चौपाल पर बैठ कर रामकथा कहने की ललक बचपन से ही थी और छोटी उम्र से ही वो भागवत, महाभारत जैसे ग्रन्थों की भी व्याख्या करने लगे।

इसके बाद इन्होंने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से नव्य व्याकरणाचार्य, विद्या वारिधि (पीएच.डी) और विद्या वाचस्पति (डी.लिट) जैसी उपाधियाँ प्राप्त कीं।

जब समाजसेवा के लिए घर बाधा बनने लगा, तो इन्होंने 1983 में घर ही नहीं, अपना नाम गिरिधर मिश्र भी छोड़ दिया। बचपन से ही राम नाम की लगन थी, तो वो चित्रकूट पहुँच गए, जहां श्री राम के वनवास का बहुत बड़ा हिस्सा व्यतीत हुआ था। चित्रकूट में ही युवा गिरिधर मिश्र को रामभद्राचार्य का नया नाम मिला। 1987 में स्वामी रामभद्राचार्य ने चित्रकूट में ही तुलसी पीठ की स्थापना की और फिर  1998 के कुम्भ में उन्हें जगद्गुरु तुलसी पीठाधीश्वर घोषित किया गया।

सनातनराष्ट्र को समर्पित 80 से ज्यादा ग्रंथों की रचना

छात्र जीवन में पढ़े एवं सुने गये सैकड़ों ग्रन्थ उन्हें आज इस उम्र में भी कण्ठस्थ हैं। हिन्दी, संस्कृत व अंग्रेजी सहित 14 भाषाओं के वे ज्ञाता हैं। अध्ययन के साथसाथ मौलिक लेखन के क्षेत्र में भी स्वामी जी का काम अत्यंत अद्भुत है। इन्होंने एक दो नहीं बल्कि 80 ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें उत्कृष्ट दर्शन और गहन अध्यात्मिक चिन्तन के दर्शन होते हैं। उन्होंने अपना लेखन सिर्फ सनातन दर्शन या साहित्य तक केंद्रित नहीं रखा, बल्कि उन्होने राष्ट्र दर्शन और राष्ट्र प्रेम पर भी लेखनी चलाई और कारगिल विजय पर भारतीय जांबाज़ों के शौर्य और बलिदान को समर्पित उनका नाटकउत्साहइसका स्पष्ट उदाहरण है।

स्वामी रामभद्राचार्य ने सभी प्रमुख उपनिषदों का भाष्य लिखा है औरप्रस्थानत्रयी’ (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता, उपनिषद) पर लिखे गए उनके भाष्य का विमोचन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वयं किया था। तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा के आग्रह पर स्वामी रामभद्राचार्य ने ने इंडोनेशिया में आयोजित अंतरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व किया। इसके बाद वे मारीशस, सिंगापुर, ब्रिटेन और दूसरे देशों के प्रवास पर भी गए।

चित्रकूट में विश्व की पहली आवासीय दिव्यांग यूनिवर्सिटी की स्थापना

स्वयं नेत्रविहीन होने के कारण स्वामी रामभद्राचार्य दिव्यांगों के कष्ट एवं उनकी चुनौतियों के बारे में अच्छे से पता है, और इसीलिए उन्होंने चित्रकूट में विश्व का पहला आवासीय दिव्यांग विश्वविद्यालय स्थापित किया। इस यूनिवर्सिटी में सभी प्रकार के दिव्यांग शिक्षा प्राप्त करते हैं। इसके अलावा उनके द्वारा देश के अन्य हिस्सों में भी अस्पताल, स्कूल और ब्लड बैंक संचालित किए जाते हैं।

स्वामी रामभद्राचार्य जी अपने जीवन दर्शन को कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं।

मानवता है मेरा मन्दिर, मैं हूँ उसका एक पुजारी,
हैं दिव्यांग महेश्वर मेरे, मैं हूँ उनका एक पुजारी…

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