गढ़ा काल्पनिक किरदार, नाम दिया ‘फातिमा शेख’, बना दिया ‘पहली मुस्लिम शिक्षक’: दिलीप मंडल की ‘कहानी’ को लेकर हंगामा

भीम-मीम के लिए दिलीप मंडल ने रच दिया था काल्पनिक किरदार?

दिलीप मंडल फातिमा शेख

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में मीडिया सलाहकार दिलीप मंडल (Dilip Mandal) के एक दावे से सोशल मीडिया से लेकर राजनीति तक में खलबली मची हुई है। दिलीप मंडल ने पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका के तौर पर जानी जाने वाली फातिमा शेख (Fatima Sheikh) को काल्पनिक पात्र करार दिया है। साथ ही कहा कि उन्होंने ही यह कहानी गढ़ी थी। दिलीप मंडल के इस दावे के चलते सोशल मीडिया पर एक नई बहस शुरू हो गई। कई लोगों ने फातिमा शेख से जुड़े अलग-अलग तथ्य सोशल मीडिया पर शेयर किए हैं।

दिलीप मंडल ने एक्स पर एक पोस्ट लिखकर दावा किया कि फातिमा शेख उनके द्वारा बनाया गया एक काल्पनिक पात्र है,और वह कोई ऐतिहासिक पात्र नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि काल्पनिक होने के चलते ही फातिमा शेख की कोई तस्वीर भी नहीं है और फातिमा के जिस स्केच का इस्तेमाल किया जा रहा है, वह भी काल्पनिक है।

मंडल ने अपने एक्स पर पोस्ट शेयर करते हुए लिखा, “मुझे माफ़ कीजिए। दरअसल फ़ातिमा शेख कोई थी ही नहीं। यह ऐतिहासिक चरित्र नहीं है। ये मेरी निर्मिती है। मेरा कारनामा। ये मेरा अपराध या गलती है कि मैंने एक ख़ास दौर में शून्य से यानी हवा से इस नाम को खड़ा किया था। इसके लिए किसी को कोसना है तो मुझे कोसिए। आंबेडकरवादी वर्षों से इस बात के लिए मुझसे नाराज़ हैं। माननीय अनिता भारती से लेकर डॉक्टर अरविंद कुमार खुलकर मेरे प्रति नाराज़गी जता चुके हैं। मत पूछिए कि मैंने ये क्यों किया था। वक्त वक्त की बात है।”

उन्होंने आगे लिखा, “एक मूर्ति गढ़नी थी सो मैंने गढ़ डाली। हज़ारों लोग गवाह हैं। ज़्यादातर लोगों में ये नाम पहली बार मुझसे जाना है। मैं जानता हूँ कि यह कैसे करते हैं, छवि कैसे बनाते हैं। मैं इसी विधा का मास्टर हूँ तो मेरे लिए मुश्किल भी नहीं था। मैं मूर्तियाँ बनाता हूँ। मेरा काम है। भारत में फ़ातिमा शेख की पहली जयंती मेरी पहल पर मनाई गई। मैंने ही पहली बार ये नाम लिया। एक काल्पनिक स्केच बनाया गया क्योंकि कोई पुरानी फ़ोटो तो थी नहीं। क़िस्से गढ़े मैंने। तो इस तरह बन गई फ़ातिमा शेख।”

दिलीप मंडल ने यह भी कहा, “बात फैलनी तो फैलती चली गई। क्योंकि फैलाई गई। मैंने किया। जिनको ये समीकरण चाहिए था, उन्होंने आग की तरह बात फैला ली। आप समझ सकते हैं कि सावित्री बाई फुले के साथ फ़ातिमा शेख नामक काल्पनिक चरित्र को जोड़ने में किनका फ़ायदा है। ज्योतिबा फुले या सावित्रीबाई फुले का पूरा लेखन प्रकाशित है। उनमें कहीं ये नाम नहीं है कि फ़ातिमा शेख पढ़ाती थीं। बाबा साहब ने भी यह नाम नहीं लिया है। जबकि ज्योतिबा फुले बाबा साहब के गुरु थे।”

इस पोस्ट में उन्होंने आगे लिखा, “महात्मा फुले या सावित्रीबाई फुले के किसी जीवनीकार में नहीं लिखा फ़ातिमा शेख का नाम। न महाठी, न हिंदी, न इंग्लिश में। मुसलमानों को तो पता भी नहीं था कि कोई फ़ातिमा शेख भी है। मैं शर्त लगाता हूँ। 2006 से पहले इस नाम का कहीं भी कोई ज़िक्र दिखा दे! किसी मुस्लिम स्कॉलर ने भी 15 साल पहले तक इस नाम का ज़िक्र नहीं किया है। ब्रिटिश दस्तावेज़ों में फुले दंपत्ति के शिक्षा कार्यों का उल्लेख है। लेकिन फ़ातिमा शेख जैसा कोई नाम नहीं है। कहीं नहीं है साहब। कहीं नहीं मिलेगा। सबूत के तौर मेरे पुराने ट्वीट और फ़ेसबुक पोस्ट, लेख और वीडियो मत निकालिए। फ़ातिमा शेख का नाम सबसे ज़्यादा मैंने ही लिया है। मैं तो मान रहा हूँ। पर वो थीं नहीं।”

दिलीप मंडल के इस पोस्ट सामने आने के बाद सोशल मीडिया और मीडिया में फातिमा शेख (Dilip Mandal Fatima Sheikh) को लेकर नई बहस शुरू हो गई। इसमें यूट्यूबर श्याम मीरा सिंह ने लिखा, “आप कह रहे हो, 2006 से पहले फ़ातिमा शेख़ का कहीं कोई ज़िक्र नहीं था। उन्हें आपने काल्पनिक रूप से गढ़ा। कोई किताब दिखा दो। मैं आपको 1991 की किताब दिखा रहा हूँ। इसमें स्पष्ट लिखा है कि फ़ातिमा शेख़ सावित्री बाई फूले जी की सहयोगी थीं। अब अपना मुंह बंद रखना। आया बड़ा शर्त लगाने।”

श्याम मीरा सिंह के इस पोस्ट पर जवाब देते हुए दिलीप मंडल ने लिखा, “इसमें कहां लिखा है कि फ़ातिमा शेख पढ़ाती थी। उसमें तो पूरा नाम तक नहीं है। क्या सहयोग करती थी, ये भी नहीं लिखा है। सावित्री बाई फुले अपने दौर की महान समाज सुधारक थीं। ज्योतिबा फुले समाज सुधारक के साथ ही सफल बिज़नेसमैन और भवन तथा पुल निर्माता थे। सहयोगी सैकड़ों रहे होंगे। कई तरह के काम होते हैं। सिर्फ डेढ़ सौ साल पुरानी बात है। कोई ठोस प्रमाण लाइए। ये नहीं चलेगा। अंग्रेजों के समय की बात है। वे बहुत रिकॉर्ड रखते थे। वास्तविक चरित्र होता तो कहीं तो ज़िक्र होता इस नाम का।”

एक यूजर ने मंडल द्वारा लिखे गए एक लेख को दिखाते हुए पोस्ट किया, “तो फिर क्यूँ लिखे इसे?? दादा जी”

एक अन्य यूजर ने लिखा, “अपनी गलती स्वीकार करने के लिए धन्यवाद। माफी मांगने के लिए साहस की आवश्यकता होती है।”

कांग्रेस के राष्ट्रीय मीडिया पैनलिस्ट सुरेन्द्र राजपूत ने लिखा, “ये मंडल हैं। उदाहरण के तौर पर खुद को भगवान लक्ष्मी का भार हो गया है। रेडी फिल्म के परेश रावल की तरह। अब ये कह रहे हैं कि फातिमा शेख इनकी गढ़ा बेटियां हैं। पासी समाज की नेत्री उदा देवी को भी यह बड़ा मतलबी और लालची व्यक्ति होने का दावा है। यह दलित समाज के निदेशकों को ऐसे ही खरिज कहते हैं, इसलिए यह सच है सबके सामने ले लीजिए। इस पाखंडी पर भरोसा किया जाएगा।”

इस पर जवाब देते हुए मंडल ने कहा, “सावित्री बाई फुले कोई हड़प्पा युग की चरित्र नहीं हैं। हमारे समय की महान समाज सुधारक हैं। डेढ़ सौ साल से उनकी गाथा गाई जा रही है। पुराने अख़बार लाइब्रेरी में हैं। फ़ातिमा की जयंती 2006 से पहले मनाए जाने का एक ज़िक्र निकाल लीजिए। मैं मान लूंगा कि फ़ातिमा को मैंने नहीं बनाया है।”

एक यूजर ने साल 2024 में फातिमा शेख के आस्तित्व को नकार दिया था। यूजर ने लिखा था, “फातिमा शेख नाम की ऐसी कोई महिला शिक्षिका exist नहीं करती थी जो माई सावित्री की साथी रही हो। अभी तक ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है। कुछ लोगों ने तुष्टीकरण के चक्कर में यह झूठ फैलाया है।”

इस पोस्ट को शेयर करते हुए दिलीप मंडल ने लिखा, “आपने तो 2024 में ही लिख दिया था। फ़ातिमा शेख को ख़ास राजनीतिक समीकरण के लिए पैदा किया गया था। ऐसी कोई टीचर नहीं थी। अगर होती तो सर सैय्यद अहमद को माथे पर लेकर घूमने वाले किसी मुसलमान इतिहासकार ने एक लाइन तो इन पर लिखी होती। वैसे, मैं भी गुनहगार हूँ।”

दिलीप मंडल के इस दावे और सोशल मीडिया पर चल रही बहस को देखें तो एक तरफ जहां मंडल यह कह रहे हैं कि फातिमा शेख का कैरेक्टर उन्होंने गढ़ा था। वहीं, सोशल मीडिया के कुछ यूजर्स मंडल के इस दावे का समर्थन और कुछ विरोध करते नजर आए। हालांकि सच्चाई देखें तो साल 1991 में प्रकाशित हुई किताब ‘Women Writing in India: 600 B.C. to the early twentieth century’ में फातिमा शेख, ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का एक साथ जिक्र किया गया है। सूसी जे. थारू और के ललिता द्वारा संपादित इस पुस्तक को सिटी यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क के फेमिनिस्ट प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया था।

इस किताब में फातिमा के नाम का जिक्र 4 बार किया गया है। इसमें लिखा गया है, “पुणे में जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने जो स्कूल शुरू किए थे, वे खास तौर पर निचली जाति की लड़कियों के लिए थे। उनकी सहकर्मी फातिमा शेख एक मुस्लिम महिला थीं।” इसके अलावा अन्य जगहों पर भी कहीं भी यह नहीं कहा गया कि फातिमा टीचर थीं।

साथ ही इस बात का जिक्र नहीं है कि शिक्षा के क्षेत्र में उनका कोई भी योगदान था। इसके चलते ही लोग फातिमा शेख को पहली मुस्लिम टीचर मानने से इनकार कर रहे हैं। बेशक फातिमा फुले दंपति के साथ थी लेकिन वह शिक्षक थी या नहीं। इसका जिक्र नहीं मिलता। यही कारण है कि दिलीप मंडल द्वारा कथित तौर पर ‘प्रथम मुस्लिम महिला कहानी वाली कहानी’ गढ़े जाने से पहले इंटरनेट पर इस बारे में अधिक जानकारी नहीं थी।

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