महाकुंभ में भगदड़ मची है, लेकिन उस पर चर्चा से पहले एक चीज समझनी होगी, जिसका नाम है – Civic Sense. सीधे शब्दों में कहें तो हमें एक समाज के रूप में कैसा व्यवहार करना चाहिए, ख़ासकर सार्वजनिक स्थानों पर – इसे ही Civic Sense का नाम दिया गया है। इसके तहत क्या आता है? इसके तहत आता है ऐसा व्यवहार करना जिससे हमारे अगल-बगल में जो लोग हैं उन्हें कोई परेशानी न हो, पुलिस-प्रशासन द्वारा जो दिशानिर्देश दिए गए हैं उनका पालन करना, और केवल आसपास के लोग ही नहीं बल्कि प्रकृति और स्थान का भी सम्मान करना।
भारत में Civic Sense की कमी एक बड़ी समस्या
जैसे, आप अपनी कार में बैठे हैं और ड्राइव नहीं कर रहे हैं तो आप अपने फोन में सिनेमा देख सकते हैं। यही काम आप मंदिर में नहीं कर सकते। यही है Civic Sense. आप अपने घर के किचन में खाना पका सकते हैं, लेकिन आप सड़क पर गैस सिलिंडर और चूल्हा कनेक्ट कर के खाना पकाना शुरू नहीं कर सकते। यही है Civic Sense. इन चीजों की समझ होना ही है Civic Sense. लेकिन, हम उस देश में रहते हैं जहाँ धार्मिक आयोजनों में भगदड़ की स्थिति पैदा हो जाती है और दर्जनों लोग मारे जाते हैं। हर कुछ महीने या वर्ष पर ऐसी घटनाएँ दोहराई जाती हैं, फिर वही सब होता है।
ताज़ा मामला प्रयागराज का है। बुधवार (29 जनवरी, 2025) को रात के डेढ़ बजे अचानक से संगम तट पर भगदड़ मच गई। रात के डेढ़ बजे भगदड़ का मतलब समझ रहे हैं आप? सबको वहीं स्नान करना था जहाँ गंगा और यमुना का मिलान होता है। सबको मौनी अमावस्या के ब्रह्ममुहूर्त में ही स्नान करना है। लोग नदी किनारे बिछे पुआल पर सोए हुए थे। अचानक से अफवाह उड़ी कि नागा साधु आ रहे हैं, फिर लोग भागने लगे। क्या नागा साधु कोई भूत-पिशाच हैं? श्रद्धालुओं को ये सोचना चाहिए था कि क्या आज तक किसी नागा साधु का नाम किसी हत्या में आया है? वो भी आम लोगों की तरह ही हैं, बस उनकी वेशभूषा अलग है और वो रहते अलग हैं।
अगर नागा साधु आ ही रहे होते, तो इसमें चौंकने वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए थी। हाँ, ये सच है कि महाकुंभ 2025 में उत्तम व्यवस्थाओं और सुगम सुविधाओं को लेकर सरकारी स्तर पर काफ़ी प्रचार-प्रसार हुआ था। पोस्टरों-बैनरों और विज्ञापनों के माध्यम से बड़ी संख्या में लोगों को आमंत्रित किया गया था। इससे जनता आश्वस्त थी कि भले ही आसमान गिर जाए, सरकार तो सँभाल ही लेगी। ये आश्वस्तता और ये निश्चिंतता का भाव – यही काल है। हमें अपनी सामूहिक जिम्मेदारियों को नहीं भूलना चाहिए – चाहे सरकार किसकी भी हो, व्यवस्थाएँ कितनी भी अच्छी हों, सुविधाएँ कितनी भी फाइव स्टार हों, अधिकारी कितने भी मुस्तैद हों और मौका कितना भी शुभ हो।
महाकुंभ भगदड़: 15 दिन की वाहवाही, 1 दिन की आलोचना
आपका आकलन आपके द्वारा सेट किए गए स्टैण्डर्ड के आधार पर ही किया जाता है। एक फैक्टर ये भी है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने अपने कार्यों से, उन कार्यों के प्रचार-प्रसार से और पिछली सरकारों की नाकामियों के कारण अपने लिए स्टैंडर्ड काफी ऊँचा सेट कर रखा है। फिर आपकी आलोचना अगर उसी स्टैंडर्ड के हिसाब से हो रही है तो आपको उस आलोचना को स्वीकार करने की क्षमता का प्रदर्शन भी करना होगा। पिछले 15 दिनों से वाहवाही आपकी हो रही थी, तो अपयश भी आपको लेना पड़ेगा।
हमने पुलिस-प्रशासन या फिर सरकार की तारीफों के पुल बाँधे थे, जब गीताप्रेस के टेंट्स में आग लगी थी और मात्र 4 मिनट के भीतर महकमा वहाँ मुस्तैद हो गया था। मात्र 10 मिनट के भीतर आग बुझा ली गई थी। योगी सरकार और पुलिस-प्रशासन प्रशंसा की पात्र इसीलिए भी है कि ताज़ा भगदड़ के बावजूद मौनी अमावस्या के दिन स्नान सुचारू रूप से चल रहा है, जबकि भीड़ अब भी है, करोड़ों लोग वहाँ अब भी इकट्ठे हैं। माहौल इतनी जल्दी नियंत्रित कर लिया गया और सब कुछ सामान्य है, इसके लिए प्रशंसा होनी चाहिए। उन साधु-संतों और अखाड़ों की भी प्रशंसा होनी चाहिए जिन्होंने अपना ‘अमृत स्नान’ स्थगित किया। लेकिन, इसका एक पहलू ये भी है कि जो गलतियाँ हुईं उन पर भी मंथन होना चाहिए।
मंथन करने का कार्य केवल सरकार का नहीं है। आम लोग भी चर्चा करते हैं, आजकल सोशल मीडिया पर अधिकतर करते हैं। मीडिया भी करती है, विश्लेषक भी करते हैं। इन विश्लेषणों और आलोचनाओं से घबराने वाले लोकतंत्र में नहीं टिकते हैं, न ही इन्हें दबाने वाले टिकते हैं। गिद्ध तो बैठे ही हुए हैं। कांग्रेस, सपा या फिर हिन्दू विरोधी गिरोह – सब के सब बैठे ही हुए थे कि कोई अनहोनी हो और उसे वो बढ़ा-चढ़ा कर पेश करें। आग वाली घटना में उन्हें वो मसाला नहीं मिला, अब मिल गया है। अंदर ही अंदर तो वो हँस ही रहे होंगे, टीवी डिबेट्स में उनका अब वो रूप देखने को भी मिलेगा। सरकार बैकफुट पर है, क्योंकि दुरुस्त व्यवस्थाओं और सामान्य स्थिति के बारे में कितना भी समझाया जाए ये मौतों की भरपाई नहीं कर सकता। एक दाग लगना था, जो लग गया है।
ग्रामीण महिलाओं की आस्था प्रबल, उन्हें रोकना असंभव
हमें ये भी समझना पड़ेगा कि धार्मिक आयोजनों में भीड़ में महिलाएँ बड़ी संख्या में होती हैं। उनकी आस्था के इतर उन्हें कुछ भी समझाना व्यर्थ है। उनके परिजन भी वहीं करेंगे, जो वो कहेंगी। उन्हें कहा जाएगा कि संगम पर स्नान न करें, फिर भी वो वहीं करना चाहेंगी। उन्हें कहा जाएगा कि पर्व के दिन स्नान न करें, लेकिन वो करेंगी। उन्हें कहा जाएगा कि ब्रह्ममुहूर्त में न करें स्नान, लेकिन वो करना चाहेंगी। कारण – महिलाओं की आस्था प्रबल होती है। पीढ़ियों में एक बार मिलने वाला एक मौका वो नहीं छोड़ सकतीं, न हो वो चाहती हैं कि उनके परिवार के लोग इससे वंचित हों।
इनमें भी कई ऐसी भी होती हैं, जिन्हें शिक्षित होने का मौका नहीं मिला। ऐसे में माइक से होने वाले अनाउंसमेंट्स उनके लिए मायने नहीं रखते, उन्होंने गाँव-समाज में जो देखा है उसी हिसाब से उनका व्यवहार रहता है। इनमें कई बुजुर्ग महिलाएँ होती हैं, जो वहाँ आते-आते थक जाती हैं। जहाँ जगह मिला, वहीं आराम कर लिया – एकदम गाँव-जवार की तरह। वो थकी-हारी होती हैं, उस हिसाब से फ़ैसले लेती हैं।
जहाँ तक भीड़ की बात है, प्रयागराज से सैकड़ों किलोमीटर दूर के शहरों में स्टेशनों पर भी हालात ठीक नहीं है। प्रयागराज जाने के लिए लंबी लाइनें लगी हुई हैं। सबको ट्रेन पकड़ना है। भारत अभी भी एक ग़रीब देश है, हमें ये नहीं भूलना चाहिए। यहाँ पैसों की क़ीमत जान से ज़्यादा है। लोग चंद रुपए बचाने के लिए किसी भी तरह का शॉर्टकट आजमा सकते हैं। इस मानसिकता को बदलने में समय लगेगा। जहाँ तक VIP ट्रीटमेंट की बात है, मौका मिलने पर कोई इसे छोड़ना भी नहीं चाहता और दूसरे इसका फ़ायदा उठाएँ तो जलन भी होती है। भारत में लाखों मुखिया, हजारों विधायक, सैकड़ों सांसद और सैकड़ों मंत्री हैं। उनके रिश्तेदार भी लाखों की संख्या में हैं। सब किसी न किसी प्रकार की पैरवी लगाते हैं।
धार्मिक आयोजनों में भगदड़ और मौतें नई बात नहीं
हम उस देश में रहते हैं जहाँ बस का सौ रुपए का किराया बचाने के लिए भी रिश्तेदार के रिश्तेदार से पैरवी कराते हैं। ग़रीबी ऐसी है कि कहीं कुछ बँट रहा हो तो लेने के लिए लोग बड़ी संख्या में लपकते हैं और भगदड़ हो जाती है। याद कीजिए, 2010 में कृपालु महाराज के आश्रम में कपड़ा और भोजन लेने के लिए इतनी लोग इकट्ठे हो गए कि 63 की मौत हो गई थी। ये ऐसी कोई पहली घटना थोड़े ही न है। 2013 के कुंभ में भी स्टेशन पर भगदड़ में 40 श्रद्धालु मारे गए थे। 1954 के कुंभ में नेहरू के पहुँचने के बाद 1000 से अधिक लोग मारे गए थे। भारत में ऐसी घटनाएँ एकदम आम हो चली हैं।
महाकुंभ में भगदड़ के बाद एक महिला अपने परिजन को सांस देने की कोशिश करते हुए…हृदय विदारक pic.twitter.com/leNbV2G4Y9
— Abhinav Pandey (@Abhinav_Pan) January 29, 2025
समाधान क्या है? समाधान ये है कि आम लोगों को Civic Sense का प्रशिक्षण दिया जाए। स्कूलों में बच्चों को इसके बारे में पढ़ाया जाए, समझाया जाए, Demo दिखाया जाए। समाधान ये है कि धार्मिक उत्सवों या धर्मस्थलों का प्रचार-प्रसार इसे ध्यान में रख कर किया जाए कि भारत आस्था और अध्यात्म का देश है, 150 करोड़ की जनसंख्या वाला देश है। व्यवस्थाएँ उसी अनुरूप हों, तभी उसका प्रचार-प्रसार कीजिए और इतनी बड़ी संख्या में लोगों को आमंत्रित कीजिए। समाधान ये है कि अगर आप 45 करोड़ लोगों को बुला रहे हैं तो व्यवस्थाएँ उसी अनुरूप होनी चाहिए।