पाकिस्तान को लेकर क्या थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विचार?

बोस आज़ाद हिंद सरकार और आज़ाद हिंद फौज को अखंड भारत की सरकार और सेना मानते थे

जिन्ना के साथ सुभाष चंद्र बोस

जिन्ना के साथ सुभाष चंद्र बोस

भारत की आज़ादी के साथ-साथ जहां एक और खुशी की लहर दौड़ रही थी तो वहीं दूसरी और देश ने विभाजन की विभीषिका भी देखी थी। ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता मिलने के साथ ही देश दो भागों में विभाजित हो गया- भारत और पाकिस्तान। धार्मिक आधार पर हुए इस विभाजन के चलते हिंदू-मुस्लिमों के बीच तनाव कई जगहों पर नफरत की हद तक पहुंच गया था। इसके चलते हिंसा, बलात्कार व हत्या के कई भयावह दृश्य सामने आए और लाखों लोगों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इस विभाजन ने लोगों को ऐसे दर्दनाक घाव दिए जो आज भी लोगों के दिलों में ज़िंदा हैं। इसका एक पहलू यह भी है कि ब्रिटिश शासन द्वारा लाए गए विभाजन के प्रस्ताव को कांग्रेस ने आधिकारिक रूप से स्वीकार किया था। जो गांधी कहते थे कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा उन्हें भी विभाजन स्वीकार करना पड़ा था।

बोस ने किया पाकिस्तान योजना का विरोध

पाकिस्तान बनाए जाने की मांग लंबे समय से उठ रही थी जो देश की आज़ादी के साथ ही पूरी हो गई। नेताजी सुभाष चंद्र बोस आज़ादी से पहले ही 1945 में रहस्यमयी तरीके से गायब हो गए थे लेकिन वे कभी भी पाकिस्तान बनाए जाने के समर्थन में नहीं थे। बोस आज़ाद हिंद सरकार और आज़ाद हिंद फौज को अखंड भारत की सरकार और सेना मानते थे। बोस ने 12 सितंबर 1944 को बर्मा से एक प्रसारण में कहा था, “मित्रों! हमने दृढ़ संकल्प लिया है कि हम अखंड और स्वतंत्र भारत बनाएंगे। इसीलिए हम उसे बांटने और टुकड़ों में विभाजित करने की सभी प्रयासों का विरोध करते हैं…मैं पाकिस्तान योजना का पुरजोर तरीके से विरोध करता हूं क्योंकि यह योजना हमारी मातृभूमि का विखण्डन कर रही है।

‘कांग्रेस पाकिस्तान बनाने के सुझाव को ना स्वीकारे’

इतिहासकार प्रो. कपिल कुमार ने अपनी किताब नेताजी, आज़ाद हिंद सरकार और फौज: भ्रांतियों से यथार्थ की ओर’ में लिखा है, “नेताजी पाकिस्तान के निर्माण के विचार के बिल्कुल खिलाफ था। उन्होंने बार-बार कांग्रेस से अनुरोध किया कि वह पाकिस्तान बनाने के सुझाव को स्वीकार ना करे। नेताजी को हमेशा जिन्ना की हर चाल की सूचना रही और उन्होंने रोडियो से अपने प्रसारणों में देश को हमेशा जिन्ना के साथ गांधी की किसी भी बात के प्रति सचेत रहने को कहा था। नेताजी एक अखंड भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे ना कि भारत और पाकिस्तान को बांटकर दो डोमिनियन बनाने की।”

मुसलमानों से की मुस्लिम लीग का विरोध करने की अपील

नेताजी बोस मानते थे कि जिन्ना पाकिस्तान की वकालत कर भारत के हितों का नुकसान कर रहा है और मुस्लिमों को गुमराह कर रहा है। जिन्ना को वे ऐसे मुस्लिम ज़मींदारों और पूंजीपतियों से घिरा मानते थे जिनकी वफादारी ब्रिटिश सरकार के प्रति थी। साथ ही, मुस्लिम लीग में पाकिस्तान की मांग को लेकर बढ़ते प्रेम पर भी उन्होंने सवाल उठाए थे।

नेताजी ने 12 सितम्बर 1944 को कहा था, लीग कभी भी अंग्रेजों से नहीं लड़ेगी, जैसे कि हम लड़ा करते हैं। वह केवल यह चाहती है भारत का हिन्दू और मुसलमान राज्यों में बंटवारा हो जाए। चार मुस्लिम राज्य बनेंगे, जो ब्रितानी हुकूमत के साए में रहेंगे। इसलिए एक अकेले गुलाम भारत के बजाय, चार नए गुलाम मुसलमान राज्य हमारे सामने होंगे जो ब्रिटेन का पक्ष लेंगे और उसको बढ़ावा देंगे। मैं भारत में करोड़ों मुस्लिम नौजवानों से सवाल करता हूं, क्या आप अपनी मातृभूमि को टुकड़ों में काटने में भागीदार बनना चाहेंगे? विभाजित भारत में आपकी क्या स्थिति होगी? इसलिए मेरे दोस्तों! तुम्हें यह याद रखना होगा कि अगर तुम्हें आज़ादी चाहिए तो आपको लड़ना चाहिए और अंग्रेज़ों को धक्के मारकर बाहर निकाल देना चाहिए। ब्रिटेन के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिए। हमारी मातृभूमि के टुकड़े नहीं होंगे।

धार्मिक कट्टरवाद का बोस ने किया विरोध

नेताजी ने ना केवल पाकिस्तान की मांग का विरोध किया था बल्कि उन्होंने मुस्लिम लीग के कारण बढ़ रहे धार्मिक कट्टरवाद पर भी सवाल उठाए हैं। मुस्लिम लीग ने 1908 में अपने दूसरे अधिवेशन से ही वंदे मातरम का विरोध करना शुरू कर दिया था। 1937 आते-आते मुस्लिम लीग ने असेम्बलियों में वंदे मातरम् गाए जाने का विरोध किया था। हालांकि, जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस कार्यसमिति ने अपील की कि वंदे मातरम के पहले दो छंद ही इस्तेमाल किए जाएं लेकिन नेताजी ने लीग का इस मांग का खुलकर विरोध किया था।

नेताजी ने इसे लेकर नेहरू को एक पत्र लिखा था। नेताजी ने लिखा था, “साम्प्रदायिक मुसलमानों ने समय समय पर फालतू की बातें उठाने की आदत बना ली है। कभी मस्जिदों के सामने संगीत, कभी मुसलमानों के लिए उपयुक्त नौकरियां न होना और अब वंदे मातरम्। यद्यपि राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा उठाए गए संशयों और कठिनाइयों से जूझने को मैं खुशी से तैयार हूं, मेरी उस ओर ध्यान देने की तनिक भी अभिलाषा नहीं है जो साम्प्रदायिक लोग उठाते हैं। यदि आप आज उन्हें वंदे मातरम के मुद्दे पर सन्तुष्ट भी कर देते हैं तो वह समय दूर नहीं जब कल वो कोई नया सवाल लेकर उठ खड़े होंगे, क्योंकि उनका उद्देश्य मात्र साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़का कर कांग्रेस को परेशान करना है।”

अंग्रेज़ों के खिलाफ नेताजी की लड़ाई हमेशा अखंड भारत की ही रही थी। हालांकि, वे हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे उन्होंने आज़ाद हिंद फौज में एकता और बंधुत्व की भावना को बढ़ाने के लिए भी हिंदू-मुस्लिम एकता को बनाए रखना ज़रूरी समझा था। अगर 1947 तक नेताजी राजनीति के केंद्र में रहते तो शायद भारत का स्वरूप मौजूदा स्वरूप से अलग भी हो सकता था।

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