अंग्रेजों के भारत में कदम रखते ही हर प्रांत में उनके खिलाफ विद्रोह की ज्वाला धधक उठी थी। 1857 का संग्राम भले ही पहला संगठित विद्रोह माना जाता है, लेकिन उससे पहले भी कई वीरों ने ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिला दी थीं। उन्हीं में से एक अप्रतिम योद्धा और क्रांतिकारी थे वीर सुरेंद्र साय जिनकी क्रांति ने अंग्रेजों को उनकी ही हुकूमत में बेचैन कर दिया।
उड़ीसा का यह वीर सपूत अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष और बलिदान का प्रतीक बन गया। उन्होंने गुरिल्ला युद्धनीति अपनाकर ब्रिटिश सेना को जंगलों और पहाड़ों में खदेड़ दिया। उनका साहस और मातृभूमि के प्रति अटूट निष्ठा ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अमर नायक बना दिया। 1857 की क्रांति से पहले ही उनके विद्रोह ने अंग्रेजों की जड़ें हिलाकर रख दी थीं, लेकिन अफसोस, इतिहास के पन्नों में उन्हें वह स्थान नहीं दिया गया, जिसके वे वास्तविक हकदार थे। आज उनकी पुण्यतिथि पर हमें इस महान योद्धा को नमन करना चाहिए, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। उनका जीवन और संघर्ष हर राष्ट्रभक्त के लिए एक अनमोल प्रेरणा है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
वीर सुरेंद्र साय: बचपन से ही संघर्ष की राह पर अग्रसर
23 जनवरी 1809, उड़ीसा के सम्बलपुर जिले के खिण्डा गांव में जन्मे वीर सुरेन्द्र साय चौहान राजवंश के उस गौरवशाली वंश के उत्तराधिकारी थे, जिन्होंने अन्याय के सामने कभी सिर नहीं झुकाया। उनका गांव सम्बलपुर से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित था। बचपन से ही उनमें संघर्ष और नेतृत्व के गुण स्पष्ट दिखाई देते थे। युवावस्था में उनका विवाह हटीबाड़ी के जमींदार की पुत्री से हुआ, जो उस समय गंगापुर राज्य के प्रमुख थे। आगे चलकर उनके घर में एक पुत्र मित्रभानु और एक पुत्री का जन्म हुआ, लेकिन उनका असली परिचय एक महान क्रांतिकारी योद्धा के रूप में होने वाला था।
1827 में सम्बलपुर के राजा का निधन हुआ, लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी। वंश परंपरा के अनुसार सुरेन्द्र साय ही गद्दी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे। लेकिन अंग्रेज जानते थे कि अगर उन्हें गद्दी मिल गई, तो वे कभी भी उनके हाथ की कठपुतली नहीं बनेंगे। इसलिए अंग्रेजों ने षड्यंत्र रचते हुए राजा की विधवा, मोहन कुमारी को राज्य का प्रशासक बना दिया। यह फैसला पूरी तरह से ब्रिटिश हितों की रक्षा के लिए था, क्योंकि मोहन कुमारी शासन-काज की अधिक समझ नहीं रखती थीं और अंग्रेजों के लिए राजनीतिक मोहरा बन गईं।
अंग्रेजों की इस चालबाजी से सम्बलपुर के स्थानीय जमींदार और प्रजा में भारी असंतोष फैल गया। वे इस अन्याय को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्हें एक ऐसा नेतृत्व चाहिए था, जो अंग्रेजों की दमनकारी नीति के खिलाफ खड़ा हो सके—और वह नाम था वीर सुरेन्द्र साय। जमींदारों ने एकमत होकर सशस्त्र विद्रोह की घोषणा की और सुरेन्द्र साय को अपना नेता चुना।
धीरे-धीरे, यह संघर्ष एक बड़ी क्रांति का रूप लेने लगा। सुरेन्द्र साय और उनके समर्थकों ने अंग्रेजी सत्ता को खुली चुनौती दी, जिससे ब्रिटिश हुकूमत बुरी तरह हिल गई। उनके बढ़ते प्रभाव और विद्रोही तेवरों से अंग्रेज बौखला गए और उन्हें कुचलने के लिए लगातार षड्यंत्र रचने लगे। लेकिन सुरेन्द्र साय उन योद्धाओं में से नहीं थे जो अन्याय के सामने झुक जाएं—उनकी लड़ाई अभी शुरू ही हुई थी!
शहादत का वो दिन
1837 का वर्ष, जब वीर सुरेन्द्र साय, उदन्त साय, बलराम सिंह और लखनपुर के जमींदार बलभद्र देव डेब्रीगढ़ में रणनीतिक विचार-विमर्श कर रहे थे, तभी अंग्रेजों ने अचानक धावा बोल दिया। इस हमले में बलभद्र देव को बेरहमी से मार दिया गया, लेकिन बाकी तीनों किसी तरह बच निकलने में सफल रहे। यह हमला उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों को रोकने का एक प्रयास था, लेकिन इसके बजाय आज़ादी की लड़ाई और तेज़ हो गई। वीर सुरेन्द्र साय और उनके साथियों की विद्रोही कार्रवाइयाँ लगातार जारी रहीं, जिससे अंग्रेजों की बेचैनी बढ़ गई।
ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें पकड़ने के लिए स्थानीय गद्दारों और मुखबिरों की मदद ली और आखिरकार 1840 में विश्वासघात का शिकार होकर वीर सुरेन्द्र साय, उदन्त साय और बलराम सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और हजारीबाग जेल भेज दिया गया। यह तीनों क्रांतिकारी केवल योद्धा ही नहीं, बल्कि आपस में रिश्तेदार भी थे, जो मातृभूमि की मुक्ति के लिए अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे।
लेकिन उनके साथियों ने हार नहीं मानी। 30 जुलाई, 1857, जब पूरा देश 1857 की क्रांति की ज्वाला में जल रहा था, उसी दौरान सैकड़ों क्रांतिकारियों ने हजारीबाग जेल पर हमला किया और वीर सुरेन्द्र साय को 32 अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ छुड़ा लिया। आज़ाद होते ही उन्होंने सम्बलपुर पहुँचकर अंग्रेजों के खिलाफ फिर से सशस्त्र संघर्ष छेड़ दिया। यह आंदोलन पहले से भी अधिक शक्तिशाली और संगठित हो गया। अब ब्रिटिश सेना और सुरेन्द्र साय के क्रांतिकारी योद्धाओं के बीच लगातार झड़पें होने लगीं। कभी एक पक्ष हावी रहता, तो कभी दूसरा, लेकिन एक बात तय थी—अंग्रेजों को चैन से शासन करने नहीं दिया गया।
23 जनवरी, 1864, जब वीर सुरेन्द्र साय अपने परिवार के साथ सो रहे थे, ब्रिटिश सेना ने रात में अचानक छापा मारकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन्हें परिवार सहित रायपुर ले जाया गया, और अगले ही दिन नागपुर की असीरगढ़ जेल में कैद कर दिया गया। वहाँ अंग्रेजों ने उन पर शारीरिक और मानसिक यातनाओं की कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन इस वीर योद्धा ने ब्रिटिश शासन के आगे झुकने से साफ इनकार कर दिया।
अपनी 37 साल की जिंदगी जेल की अंधेरी कोठरी में बिताने वाले वीर सुरेन्द्र साय ने 28 फरवरी, 1884 को असीरगढ़ किले की जेल में अंतिम सांस ली। उनका पूरा जीवन मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए समर्पित था। उनका संघर्ष और बलिदान भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज रहेगा, क्योंकि वह योद्धा जिसने कभी हार नहीं मानी, जिसने कभी सिर नहीं झुकाया, और जो आखिरी सांस तक भारत माता की आज़ादी के लिए लड़ता रहा।