झारखंड के हज़ारीबाग में बुधवार (26 फरवरी) को महाशिवरात्रि समारोह के दौरान झंडा व लाउडस्पीकर लगाने को लेकर हिंसक झड़प हो गई। एक समुदाय विशेष के लोगों को एक खंभे पर भगवान शिव के लिए झंडा लगाया जाना भी इतना नागवार गुज़रा की वहां पथराव कर दिया गया। इस हिंसक झड़प में करीब आधा दर्जन लोग घायल हो गए हैं और तीन बाइक्स व एक कार में उपद्रवियों ने आग लगा दी है। इस घटना के बाद हालातों को सामान्य करने के लिए 150 से अधिक पुलिसकर्मियों को मौके पर भेजा गया जिसके बाद स्थिति को नियंत्रित किया जा सका। इस मामले में पुलिस ने तीन लोगों को गिरफ्तार कर लिया है और अन्य लोगों को पकड़ने की कोशिश की जा रही है। हज़ारीबाग की यह घटना केवल कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है, यह एक मानसिकता के तहत हिंदुओं के खिलाफ बनता जा रहा पैटर्न है।
कट्टरपंथी मानसिकता और तुष्टिकरण का कॉकटेल
बीते कुछ वर्षों में हिंदुओं के धार्मिक जुलूसों और शोभायात्राओं पर हमलों की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। चाहे वह रामनवमी हो, हनुमान जयंती हो या दुर्गा प्रतिमा विसर्जन, हर साल देश में अलग-अलग जगहों पर ऐसे धार्मिक आयोजनों के दौरान हिंसा भड़क उठती है। जिस पैटर्न में इन हमलों को अंजाम दिया जाता है, उससे लगता है कि यह केवल संयोग तो नहीं हो सकता कि जब-जब हिंदू समुदाय अपने धार्मिक आयोजन करे तब-तब ही हिंसा, विवाद या झड़प जैसी स्थिति बने या कहें तो बनाई जाए।
इन हमलों के पीछे एक गहरी साजिश नज़र आती है, जिसमें एक वर्ग विशेष की कट्टरपंथी मानसिकता सबसे अहम कारण है और सिर्फ इतना ही नहीं ऐसे तत्वों को कुछ राजनीतिक दलों द्वारा तुष्टिकरण नीति की नीति के तहत पाला पोसा जाता है। हाल ही में हुए दिल्ली चुनाव में AIMIM द्वारा दंगों के आरोपियों को टिकट दिया जाना इस बात की ओर संकेत करता है कि ऐसी ताकतों के पीछे राजनीतिक शक्तियां भी खड़ी हैं।
आइडेंटिटी क्राइसिस से बनती आक्रामकता!
महाशिवरात्रि के दौरान ही उत्तर प्रदेश में दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक आयोजन महाकुंभ का अंत हुआ है। इसमें 66 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं ने संगम में आस्था की डुबकी लगाई लेकिन कहीं आक्रामकता की खबर नहीं सुनाई दी। कहीं ना तो किसी के खिलाफ ज़बरदस्ती नारेबाज़ी की गई और ना ही किसी ने शक्ति प्रदर्शन की चेष्टा दिखाई। यह भारत के मूल यानि सनातन की संस्कृति है। इससे स्पष्ट है कि सनातन को अपनी पहचान दिखाने के लिए या कुछ साबित करने के लिए कोई शक्ति प्रदर्शन की ज़रूरत नहीं है। यहां लोगों के लिए धर्म एक व्यक्तिगत और आध्यात्मिक मामला है ना कि शक्ति प्रदर्शन का माध्यम।
वहीं, दूसरी और एक ऐसा वर्ग भी है जो अपनी पहचान को लेकर इतना असुरक्षित महसूस करता है कि ना केवल अपनी धार्मिक यात्राओं बल्कि दूसरे धर्मों की यात्राओं के दौरान भी उस वर्ग का उग्र व्यवहार देखने को मिलता है। उस वर्ग के लिए धर्म एक व्यक्तिगत आस्था से ज़्यादा अस्मिता को प्रदर्शित करने और दूसरों पर प्रभाव जमाने का तरीका है। यह समस्या धार्मिक ना होकर आइडेंटिटी क्राइसिस यानी पहचान के संकट से जुड़ी हुई है। जब किसी वर्ग को अपनी जड़ों पर संदेह होने लगे या उसे अपनी पहचान को लेकर असुरक्षा महसूस होने लगे, तो वह इसे आक्रामकता और दिखावे से छिपाने की कोशिश करता है। ऐसे ही लोग दूसरों के धार्मिक आयोजन पर हमला करते हैं, पत्थरबाज़ी करते हैं और फिर दंगे-फसाद की स्थिति पैदा करने की कोशिश करते हैं।
सुनियोजित रणनीति के तहत होते हैं हिंदुओं पर हमले
हिंदुओं के धार्मिक जुलूसों पर होने वाले ये हमले अक्सर अचानक नहीं होते हैं, इसके पीछे एक सुनियोजित रणनीति या कहें तो साज़िश नज़र आती है। आम तौर पर जो एक पैटर्न इन हमलों में नज़र आता है वो है पथराव का। धार्मिक आयोजन से जुड़े ज़्यादातर हमलों में घरों या विशेष इमारतों की छतों से पथराव किया जाता है। दिल्ली के जहांगीर पुरी से लेकर राजस्थान, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में आपको ऐसी सैकड़ों घटनाएं मिलेंगी जिनमें शोभायात्राओं पर पथराव किया गया हो। पथराव के लिए जाहिर है कि कोई ताज़ा-ताज़ा दीवारों को तो नहीं तोड़ता होगा, इसके लिए पत्थरों को इकट्ठा भी किया जाता होगा और अलग-अलग जगहों पर जमा भी किया जाता होगा। यह समझना कोई मुश्किल नहीं है कि यह एक सोची-समझी साज़िश है।
इसके अलावा हिंसा से पहले या बाद में सोशल मीडिया पर भड़काऊ पोस्ट किए जाते हैं और माहौल को तनावपूर्ण बनाने की पूरी कोशिश की जाती है। पिछले साल जब यूपी के बहराइच में दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान हिंसा हुई थी तो वहां सोशल मीडिया के जरिए माहौल बिगाड़ने की लगातार कोशिश की गई कई सोशल मीडिया अकाउंट्स से फर्जी दावों के साथ पोस्ट शेयर किए जाने लगे जिससे माहौल और ज़्यादा बिगड़ सकता था। वहीं, पिछले साल नवंबर में संभल में कथित मस्जिद के सर्वे के दौरान हुई हिंसा के बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश तक के सोशल मीडिया अकाउंट माहौल बिगड़ने की साजिश में लगे थे, वहां से गलत दावों के साथ पोस्ट किए जा रहे थे। हिंसा के बाद आजकल इसी के चलते इंटरनेट पर बैन भी लगा दिया जाता है।
समाधान क्या है?
जिन समुदायों की पहचान बाहरी प्रभावों से बनी वे अपनी मौलिक पहचान को लेकर अक्सर असुरक्षित रहते हैं। यही कारण है कि वे बार-बार अपनी खुद की पहचान को साबित करने के लिए शक्ति प्रदर्शन और उन्माद का सहारा लेते हैं। यदि भारत में हर धर्म को समान अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त है, तो किसी एक वर्ग को अपनी असुरक्षा के कारण दूसरे धर्म की स्वतंत्रता बाधित करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। इस तरह के हमलों को रोकने का सबसे महत्वपूर्ण समाधान कठोर न्याय ही है। जो उपद्रवियों इस तरह की गतिविधियों में लिप्त हैं उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई किया जाना ज़रूरी है।
साथ ही, साज़िशकर्ताओं को भी कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए। कुछ राजनीतिक दलों को तुष्टिकरण की नीति छोड़कर निष्पक्ष रूप से कानून के साथ खड़ा होना चाहिए क्योंकि यह समस्या कब उन पर टूट पड़ेगी इसका अंदाज़ा भी उन्हें नहीं होगा। हिंदू संगठनों को भी जागरूक और संगठित होना होगा। कई बार प्रशासन की लापरवाही के कारण जुलूसों पर हमला करने वाले अपराधी बच निकलते हैं तो हिंदू संगठनों को कानूनी और लोकतांत्रिक तरीके से प्रशासन को जवाबदेह बनाना होगा।