स्वामी सहजानंद सरस्वती ने इस दौरान 'डंडावाद' के लिए जाना गया, यानी आत्मरक्षा के लिए किसानों को डंडे के प्रयोग के लिए उत्साहित करना। वो इसे हिंसा और आक्रामकता से अलग मानते थे।
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‘फाँसी पर लटकी पूर्ण स्वतंत्रता’: डंडावादी दंडी संन्यासी नौरंग राय, जिन्होंने किसानों को दिलाए उनके अधिकार; कांग्रेस को दफ़न करने के थे पक्षधर

स्वामी सहजानंद सरस्वती ने इस दौरान 'डंडावाद' के लिए जाना गया, यानी आत्मरक्षा के लिए किसानों को डंडे के प्रयोग के लिए उत्साहित करना। वो इसे हिंसा और आक्रामकता से अलग मानते थे।

Anupam K Singh द्वारा Anupam K Singh
22 February 2025
in इतिहास, ज्ञान
स्वामी सहजानंद सरस्वती, नेताजी बोस

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने स्वामी सहजानंद सरस्वती को बताया था नायक

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स्वामी सहजानंद सरस्वती – उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर के जखनियाँ स्थित देवा गाँव में जन्मे नौरंग राय को आज हम इसी नाम से जानते हैं। एक आध्यात्मिक संत, एक किसान नेता, एक स्वतंत्रता सेनानी – स्वामी सहजानंद सरस्वती पूर्वांचल में केवल एक नाम नहीं, नायकत्व का नाम है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था कि स्वामी सहजानंद सरस्वती इस धरती पर एक जादुई नाम है, वो किसान आंदोलन के सर्वोपरि नेता हैं, जनता के आराध्य देव हैं और लाखों लोगों ने ‘हीरो’ हैं। उन्होंने 28 अप्रैल, 1940 को उनकी गिरफ़्तारी वाले दिन को ‘अखिल भारतीय स्वामी सहजानंद दिवस’ के रूप में मनाने का ऐलान किया था।

20 अप्रैल, 2940 को ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ पत्रिका में प्रकाशित लेख में नेताजी बोस ने सलाह दी थी कि हमें सहजानंद सरस्वती से जीवन के संघर्ष, सेवा और बलिदान का सबक सीखना चाहिए। अंग्रेजी सरकार ने अप्रैल 1940 में पटना, बाँकीपुर और बिहारशरीफ में उन पर उत्तेजक भाषण देने का आरोप लगाते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया था। स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 1936 में ‘ऑल इंडिया किसान सभा’ की स्थापना की। हालाँकि, आज ये CPI का राजनीतिक किसान प्रकोष्ठ बनकर रह गया है। भारत की आज़ादी के बाद भी जब नेहरू सरकार में किसानों की स्थिति दयनीय ही बनी रही, तब स्वामी सहजानंद सरस्वती ने ‘जय किसान, जय मजदूर’ का नारा दिया।

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गाँधी और कांग्रेस के रुख से परेशान थे सहजानंद सरस्वती

उन्होंने ‘जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब वही क़ानून बनाएगा’ का नारा दिया। वो अंतिम दिनों में वामपंथी हो गए थे, लेकिन आज वाले वामपंथी नहीं जो चीन की तरफदारी करते हैं और हिन्दू देवी-देवताओं को गाली देते हैं। शाहाबाद के ढकाइच में आयोजित ‘बिहार प्रांतीय किसान सम्मेलन’ में मार्च 1949 में दिया गया उनका भाषण इस दौरान विशेष उल्लेखनीय है, जिसमें उन्होंने कहा था कि पूर्ण स्वतंत्रता अबतक फाँसी पर लटकी है। उन्होंने भारत और कश्मीर के विभाजन पर भी मुखर होकर विरोध किया था। वो नेहरू की विदेश नीति पर भी सवाल उठाते थे, ख़ासकर ब्रिटेन-अमेरिका से नज़दीकी पर।

किसान-मजदूर राज्य की बात करने वाले स्वामी सहजानंद सरस्वती महात्मा गाँधी के इन विचारों से सहमत थे कि अब कांग्रेस को दफना देने का वक़्त आ गया है। उन्होंने कांग्रेस को ‘भोगियों का मठ’ बताते हुए उन्होंने कांग्रेसियों को कुकर्मी करार दिया था। ख़ास बात ये है कि आज़ादी की लड़ाई में कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू और स्वामी सहजानंद सरस्वती, दोनों को अंग्रेजों ने देहरादून की जेल में ही एक साथ बंद कर के रखा था। 1930 में नमक क़ानून तोड़ने में भी उन्होंने हिस्सा लिया। सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण फिर हजारीबाग के जेल में डाले गए।

दंडी संन्यासी स्वामी सहजानंद सरस्वती ने हजारीबाग जेल में बंद होने से पहले मात्र 27 दोनों में बिहार में 438 सभाएँ की थीं। रामगढ़ में नेताजी सुभाष चंद्र बोस और स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में समझौता विरोधी आंदोलन का बिगुल फूँका गया, अर्थात आज़ादी के अलावा किसी भी प्रकार के समझौते का विरोध किया गया। एक तरह से उन्होंने पूर्वांचल के किसानों-मजदूरों को अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ कर दिया। स्वतंत्रता के तुरंत बाद स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 18 संगठनों को इकट्ठा कर के एक समाजवादी मोर्चा बनाया।

गीता से लिया ज्ञान, ‘डंडावाद’ के लिए जाने गए

वो श्रीमद्भगवद्गीता के 16वें अध्याय के श्लोक संख्या 9-12 को उद्धृत करते थे, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने उन आसुरी बुद्धि वालों के बारे में बताया था जिनकी बुद्धि सदा भोग में लिप्त रहती है। उन्होंने जमींदारी प्रथा ख़त्म करने के लिए आंदोलन चलाया। किसान तो पहले से ही नाराज़ थे। 1855-56 का संथाल विद्रोह, 1899-1901 का मुंडा विद्रोह, और 1907 में नील की खेती के ख़िलाफ़ आंदोलन – ये घटनाएँ बताती हैं कि किसानों को एकजुट करना कितना आवश्यक था। साम्यवाद की तरफ उनके झुकाव का कारण था गाँधीवाद से उनका मोहभंग। 1934 में बिहार में भयंकर भूकंप के बाद राहत कार्य के लिए उन्होंने महात्मा गाँधी से बातचीत की थी, जो असफल रही।

स्वामी सहजानंद सरस्वती ने इस दौरान ‘डंडावाद’ के लिए जाना गया, यानी आत्मरक्षा के लिए किसानों को डंडे के प्रयोग के लिए उत्साहित करना। वो इसे हिंसा और आक्रामकता से अलग मानते थे। उनकी कई माँगें क्रांतिकारी थीं, जैसे – चक्रवृद्धि ब्याज पर रोक, ऋण-लगान-राजस्व न चुकाने पर सज़ा-जुर्माना से माफ़ी, महाजनों के लिए लाइसेंस लेना ज़रूरी, भूमिहीन किसानों के लिए सरकारी जमीन की व्यवस्था, कृषि सामान के परिवहन दरों में कमी और सुविधाओं का विकास, ईंख के लिए न्यूनतम मूल्य की व्यवस्था, मवेशी-बीमा। ग्राम पंचायत की स्थापना भी उनकी एक बड़ी माँग थी। दूरदृष्टि से भरी ये माँगें उन्होंने 1936 में लखनऊ में आयोजित किसान-सभा में ही रख दी थी।

संक्षेप में स्वामी सहजानंद सरस्वती के बारे में बताएँ तो उनका जन्म 22 फरवरी, 1989 में हुआ था, वहीं 26 जून, 1950 में उन्होंने बिहार के मुजफ्फरपुर में अंतिम साँस ली। उन्होंने पटना के दानापुर स्थित बिहटा में अपना आश्रम स्थापित किया था और अपने जीवन के अंतिम वर्षों में यहीं से सारे कामकाज निपटाते रहे। भूमिहार ब्राह्मण परिवार में जन्मे नौरंग राय को उनकी चाची ने पाला था, क्योंकि बचपन में ही माँ का देहांत हो गया था।

स्वामी सहजानंद सरस्वती का जीवन और बकाश्त आंदोलन

किशोरी प्रसन्न सिंह, सुभाष चन्द्र बोस और सहजानंद सरस्वती (बाएँ से दाएँ)

उन्हें मुख्यतः बिहार में 1936-37 में हुए बकाश्त जमीन आंदोलन के लिए जाना जाता है। बकाश्त वो जमीनें होती हैं, जो मुख्यतः उस पर खेती कर रहे लोगों के स्वामित्व वाली होती है लेकिन कर्ज न चुका पाने की स्थिति में जमींदार उनपर कब्ज़ा कर लेते थे। फिर जमींदारों के लिए उन जमीनों पर मजदूरों को खेती करनी पड़ती थी। मुंगेर के बरहियाताल से 1930 में शुरू हुआ ये आंदोलन फिर प्रदेश भर में फैल गया। बकाश्त आंदोलन ब्रिटिश नीतियों के विरोध में था, जमींदारी प्रथा के विरोध में था। जमींदारों ने छोटे किसानों द्वारा बकाया न चुकाने पर उनकी जमीनों पर जो कब्ज़ा किया था, उसके ख़िलाफ़ था।

संस्कृत भाषा के विद्वान रहे स्वामी सहजानंद सरस्वती ‘ब्रह्मर्षि वंश बिरतर’ नामक पुस्तक लिखकर ब्रह्मर्षि समाज के इतिहास की जानकारी दी। 1937 में उनके ही जोर देने पर डॉ श्रीकृष्ण सिंह बिहार के प्रीमियर बने थे, आज़ादी के बाद वो बिहार के मुख्यमंत्री बने। हालाँकि, स्वामी सहजानंद सरस्वती के कई अनुयायियों के लिए ये एक पहेली रही कि जीवन के अंतिम वर्षों में वो साम्यवादी हो गए थे, और कांग्रेस से मतभेद के बावजूद 1948 तक कांग्रेस में टिके रहे थे। खैर, जो भी हो विचारधाराओं के कारण स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा किसानों-मजदूरों और ख़ासकर बिहार के ग़रीबों के लिए किए गए उनके कार्यों को नकारा नहीं जा सकता, वो सम्मान के पात्र हैं।

स्रोत: Swami Sahajanand Saraswati, स्वामी सहजानंद सरस्वती, Bihar, बिहार, किसान आंदोलन, Farmers Protest
Tags: BiharfarmersSahajanand Saraswatiकिसानबिहारस्वामी सहजानंद सरस्वती
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