जब कभी नरक की कल्पना की जाती है तो उसमें बताया जाता है कि धरती पर किए गए पापों के हिसाब के लिए वहां अंतहीन प्रताड़ना झेलनी पड़ती है और असीमित कष्ट दिए जाते हैं। प्रताड़नाओं के जिस स्तर की कहानियां लोगों को सुनाई जाती हैं उसे सुनकर ही लोगों का कलेजा कांप उठता है लेकिन सोचिए धरती पर अगर ऐसी जगह हो तो, धरती पर ऐसी यातनाओं लोगों को झेलनी पड़ें जिनकी कल्पना करना भी मुश्किल हो तो ऐसे लोगों पर क्या बीतती होगी। अंडमान निकोबार की ‘सेलुलर जेल’ ऐसा ही एक जीवंत नरक थी। सागर के विस्तार में लहरों की गूंज के बीच यह एक ऐसा अंधकार था जहां पहुंचने पर रोशनी भी दम तोड़ देती थी। आज जानेंगे अंडमान की सेलुलर जेल की पूरी कहानी जहां नरक की परिभाषा साकार हो उठी थी।
यह जेल केंद्र शासित प्रदेश अंडमान और निकोबार द्वीप समूह बनाने वाले 572 द्वीपों में से एक दक्षिण अंडमान में स्थित है, इन 572 में से केवल 37 द्वीप स्थाई रूप से बसे हुए हैं। 2000 वर्षों से बसे इस द्वीप पर 18वीं शताब्दी के मध्य में यूरोपीय लोगों ने कब्ज़ा कर लिया था। कुछ वर्षों बाद ब्रिटिशों ने चौथम द्वीप पर एक नौसैनिक अड्डा और दंडात्मक बस्ती स्थापित की और बाद में इसे वाइपर द्वीप पर स्थानांतरित कर दिया गया था। भारत की आज़ादी के लिए 1857 में स्वतंत्रता संग्राम हुआ जिसने अंग्रेज़ों की चूलें हिला दी थीं। भारत के बड़े हिस्सा पर राज कर रहे अंग्रेज़ों को अलग-अलग हिस्सों में सशस्त्र विद्रोह का सामना करना पड़ा और उनके मन में कब्ज़ा छिनने का भय सताने लगा था। इसके बाद अंग्रेज़ों ने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पर लोगों को दंडित करने के लिए एक ‘दंडात्मक बस्ती’ बनाने का खयाल आया। दंडात्मक बस्ती एक ऐसी जगह होती है जहां अपराधियों या राजनीतिक बंदियों को सजा के रूप में भेजा जाता है और वहां उसने जबरन काम कराया जाता है।
अंग्रेज सरकार द्वारा बनाई गई विशेषज्ञों की एक समिति ने दिसंबर 1857 में इन द्वीपों का सर्वे किया और जनवरी 1858 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। चारों और समुद्र, खतरनाक जंगली जानवर और जनजातियों से भरे इन द्वीपों पर रहना किसी के लिए भी बुरे सपने जैसा ही थी। इस जगह से किसी कैदी का भागना नामुमकिन था।अंतत: अंग्रेज़ों को तो भारतीयों को कष्ट देने ही थे और इस जगह को कारावास के लिए चुन लिया गया था। इस स्थान की साफ-सफाई करना भी दुष्कर काम था और इसके लिए भी भारतीय बंदियों को ही चुना गया था। आज ही के दिन यानी 10 मार्च को 1858 में जे. पी. वॉकर के नेतृत्व में 200 बंदियों का पहला जत्था पोर्ट ब्लेयर पहुंचा था। 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन को तो दबा दिया गया था लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति की ज्वाला जलती रही। जगह-जगह लोगों के आंदोलन चल रहे थे और अंग्रज़ों का कहर भारतीयों पर टूट रहा था। जल्द ही, वहाबी आंदोलन, मणिपुरी विद्रोह और थारवाडा से बड़ी संख्या में बर्मी लोगों को सज़ा के तौर पर इन द्वीपों पर भेज दिया गया था।
भारत के अलग-अलग हिस्सों से 1858 और 1860 के बीच करीब 2,000-4,000 स्वतंत्रता सेनानियों को अंडमान निर्वासित कर दिया गया था। उनमें से कई लोग इन कठिन परिस्थितियों को सह नहीं पाए और मारे गए, जिन लोगों ने भागने की कोशिश की तो उनमें से भी कोई जिंदा नहीं बच सका था। इन कैदियों को शुरुआत में खुले बाड़ों में रखा जाता था लेकिन धीरे-धीरे इन बस्तियों का आकार बढ़ता गया था और तब तक अंग्रेज़ों को समझ आ गया था कि लोगों को इस तरह रखना संभव नहीं है। अंग्रेज़ों को वहां एक बड़ी जेल की आवश्यकता हुई जिसमें कैदियों को एकांतवास में रखा जा सके।
1890 में चार्ल्स जे लायल और एएस लेथब्रिज की दो सदस्यीय समिति ने पोर्ट ब्लेयर का दौरा किया और वहां एक जेल बनाने की सिफारिश की थी। इसके बाद 13 दिसंबर 1893 को वहां जेल बनाए जाने का आदेश जारी किया गया और इसका निर्माण 1906 में जाकर पूरा हुआ। दिलचस्प बात यह भी है कि इस जेल के निर्माण के लिए केवल कैदियों का ही श्रमिक के तौर पर इस्तेमाल किया गया था और इसकी निर्माण सामग्री बर्मा (अब म्यांमार) से लाई गई थी।
इस जेल का डिज़ाइन ‘पैनोप्टिकॉन’ के विचार पर आधारित था। यह विचार ग्रीक पौराणिक कथाओं से जुड़े एक विशालकाय ‘अर्जोस पैनॉप्टिस’ के नाम पर आधारित था जिसकी कई आंखें होती थीं और जो हर जगह पर देख सकता था, इसे पहरेदार या रक्षक के रूप में जाना जाता था। 18वीं शताब्दी में अंग्रेज दार्शनिक जेरेमी बेंथम ने पैनोप्टिकॉन की अवधारणा को विकसित किया था। इसमें जेल ऐसी होती थी कि एक केंद्रीय वॉच टॉवर से सभी कैदियों को देखा जा सकता था। अंडमान की सेलुलर जेल एक विशाल तीन मंज़िला संरचना था जिसमें सात पंख जैसी संरचनाएं थीं और ये सभी संरचनाएं एक केंद्रीय निगरानी टॉवर से निकलती थीं। इसमें एक ही या अलग-अलग पंखों में कैद कैदियों के बीच किसी भी तरह के संचार की कोई संभावना नहीं थी। इसे मृत्युदंड के बाद दूसरा सबसे कठोर दंड माना जाता था।
छोटी-छोटी सेल जैसी कोठरियां होने के कारण इसका नाम ‘सेलुलर जेल’ दिया गया था। सेलुलर जेल के लिए लिए ‘काला पानी’ का भी इस्तेमाल किया जाता था जो जेल के चारों ओर समुद्र के पानी और मृत्यु भयावहता से जुड़ा हुआ था। इस जेल में जेलर और सहायक जेलर सहित अधिकारियों के लिए आवास की व्यवस्था इमारत के भीतर की गई थी। इस जेल में 4 फीट चौड़े बरामदे के साथ अलग-अलग कोठरियां एक पंक्ति में बनाई गई थीं। हर कोठरी की माप 13-1/2 फीट x 7 फीट होती थी। जो विशेष रूप से डिज़ाइन की गई कुंडी प्रणाली के साथ एक भारी लोहे की ग्रिल के दरवाज़े के साथ सुरक्षित होती थी। जेल के निर्माण में लगभग 20,000 क्यूबिक फीट स्थानीय पत्थर और कैदियों द्वारा बनाई गई 30,00,000 ईंटों का इस्तेमाल किया गया था। इस जेल में कुल 693 कमरे थे और बस छत के पास एक रोशनदान हुआ करता था।
इन कैदियों को दिए जाने वाले कामों को तय समय में पूरा करना होता था जो लगभग असंभव होता था। ऐसे में जो कैदी इन कार्यों को समय से पूरा नहीं कर पाते थे उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं। कैदियों को बैल की तरह कोल्हू में जोता जाता था और उन्हें हर रोज़ 30 पाउंड तेल निकालना पड़ता था और अगर थकान के चलते कोई काम करना बंद कर देता था तो उसे कौड़े मारे जाते थे। अंग्रेज़ों का इरादा किसी भी तरह इन लोगों की इच्छाशक्ति को समाप्त करना था। तेल निकालने के अलावा वहां लोगों को, नारियल छीलने, नारियल की जटा को पीसने, रस्सी बनाने, पहाड़ काटने, दलदल भरने, जंगलों को साफ करने, सड़कें बिछाने आदि के लिए भेजा जाता था।
कहा जाता है कि वहां कैद लोगों के लिए सबसे ज़्यादा डर ‘ओकम’ चुनने से था। यह रामबन घास से ‘रस्सी बनाने की कला’ थी जिसमें उच्च अम्लता होती थी और इसे करने के दौरान लगातार खुजली होती थी, खरोंच आ जाती थीं और खून बहता रहता था। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को भूखे पेट कठोर श्रम करवाया जाता था और खाना इतना कम या खराब होता था कि कई कैदी कुपोषण का शिकार हो गए थे। लोगों को लोहे के त्रिकोणीय फ्रेम पर लटका दिया जाता, बैर फेटर्स, क्रॉसबार फेटर्स, गले में रिंग, पैरों में लोहे की चेन जैसी चीज़ों से लोगों को यातनाएं दी जाती थीं। सेलुलर जेल की किसी भी कोठरी में शौचालय तक की सुविधा नहीं थी।