12 मार्च 1930 की सुबह मोहनदास करमचंद गांधी गुजरात के अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम के अपने कमरे से 6 बजकर 10 मिनट पर बाहर आ गए। गांधी के साथ प्रभाशंकर पाटनी, महादेव देसाई और उनके सचिव प्यारेलाल थे। गांधी ने प्रार्थना की और घड़ी में समय देखा, घड़ी की सुइयां जैसे ही 6 बजकर 30 मिनट पर पहुंचीं उन्होंने 78 स्वयंसेवकों के साथ ‘नमक सत्याग्रह‘ की शुरुआत कर दी। अपनी चिरपरिचित मुस्कान के साथ गांधी स्वयंसेवकों के इस समूह का नेतृत्व कर रहे थे। उनका लक्ष्य 241 मील (386 किलोमीटर) दूर समुद्र के किनारे स्थित दांडी गांव था जहां जाकर वे समुद्र के जल से नमक बनाकर ब्रिटिश नीति का उल्लंघन करना चाहते थे। मोतीलाल नेहरू ने इस यात्रा को लेकर कहा था कि ‘रामचंद्र की लंका की ऐतिहासिक यात्रा की तरह दांडी यात्रा भी यादगार होगी’।

दिसंबर 1929 में कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता के उद्देश्य की घोषणा कर दी थी और इसके बाद 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया गया था और लोगों ने ‘पूर्ण स्वराज’ के लिए लड़ने की प्रतिज्ञा की थी। फरवरी 1930 में साबरमती आश्रम में कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक हुई और सविनय अवज्ञा कार्यक्रम शुरू करने के लिए गांधी को समय और स्थान चयन करने के लिए अधिकृत कर दिया गया था। इसके बाद गांधी ने 2 मार्च को वायसराय लॉर्ड इरविन को पत्र लिखा और अल्टीमेटम दिया कि अगर मांगों को नज़रअंदाज़ किया तो उनके पास सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं बचेगा। सविनय अवज्ञा आंदोलन को देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग रूप में शुरू किया गया था और नमक मार्च भी अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन का हिस्सा था।
गांधी द्वारा यह मार्च शुरू किए जाने से पहले लॉर्ड इरविन को लिख गए पत्र को ऐतिहासिक पत्र माना जाता है। सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय के खंड 43 में इस पत्र का उल्लेख किया गया है। इस पत्र में गांधी ने लॉर्ड इरविन को प्रिय मित्र कहकर संबोधित किया है। गांधी इस पत्र में लिखते हैं-
“इसके पहले कि मैं सविनय अवज्ञा शुरू करूं और शुरू करने पर जिस जोखिम को उठाने के लिए मैं इतने सालों से हिचकिचाता रहा हूं, उसे उठाऊँ, इस उम्मीद से मैं आपको यह पत्र लिखने जा रहा हूं कि अगर समझौतेका कोई रास्ता निकल सके तो उसके लिए कोशिश कर देखूं। यद्यपि अंग्रेजी सल्तनत को मैं एक अभिशाप मानता हूं, लेकिन मैं यह कभी नहीं चाहता कि एक भी अंग्रेज को या भारत में उपार्जित उसके एक भी उचित हित को किसी तरहका नुकसान पहुंचे। मैं अंग्रेजी राज्य को अभिशाप-रूप क्यों मानता हूं? इस कारण से कि इस राज्य ने क्रमिक शोषण की प्रणाली के द्वारा और अपने तन्त्र के तबाह कर डालने वाले फौजी और दीवानी खर्च के द्वारा, जिसे कि यह देश कभी बरदाश्त नहीं कर सकता, इस भूमि के करोड़ों मूक मानवों को दरिद्र बना दिया है।”
राजनैतिक दृष्टि से इस राज्य ने हमें लगभग गुलाम बनाकर रख छोड़ा है। इसने हमारी संस्कृति और सभ्यता की बुनियादको हिला दिया है और लोगों से हथियार छीन लेने की सरकारी नीति ने तो हमारी आत्मा को कुचल ही डाला है। अब तो बस यही शेष रह गया है कि हममें से किसी को कोई मामूली-से-मामूली हथियार भी ना रखने देने का कानून बना दिया जाए। आन्तरिक शक्ति से रहित हम लोगों पर इस नीति का प्रभाव यह हुआ है कि हम लगभग कायरताजन्य असहायावस्था में पहुंच गए हैं।
जिस मालगुजारी से सरकारको इतनी अधिक आमदनी होती है, उसी के भारसे रैयत का दम निकला जा रहा है। जिस स्थायी बन्दोबस्त की तारीफ के पुल बांधे जाते हैं, उससे सिर्फ मुट्ठी-भर धनवान जमींदारों को ही फायदा पहुंचता है, रैयत को नहीं। रैयत तो अब भी पहलेकी ही तरह असहाय हैं। ब्रिटिश सरकार की नीति तो रैयतको चूसकर निष्प्राण बना देने की प्रतीत होती है। यहां तक कि उसके जीवनके लिए आवश्यक नमक-जैसी चीज़ पर भी इस तरह कर लगाया जाता है कि उसका सबसे अधिक भार उन्हीं पर पड़ता है भले ही उसका कारण यही क्यों न हो कि यह कर लगाते हुए निष्ठुरतापूर्ण निष्पक्षता बरती गई है। नमक ही एक ऐसी चीज है, जिसे गरीब लोग व्यक्तिके रूप में और समूहके रूप में भी धनवानों के मुकाबले अधिक खाते हैं। इस बातका विचार करने से तो यह कर गरीबों के लिए और अधिक भार-रूप जान पड़ता है। शराब और दूसरी नशीली चीजोंसे होनेवाली आमदनी का जरिया भी ये गरीब ही हैं। ये चीजें लोगोंकी तन्दुरुस्ती और नैतिकता दोनों की जड़ें खोखली करनेवाली हैं।
यह जाहिर है कि मौजूदा विदेशी सरकार दुनिया में सबसे ज्यादा खर्चीली है और इसे बनाये रखने की गरज से ही ये सारे अन्याय किये जा रहे हैं। आप अपने वेतन को ही ले लीजिए। वह माहवार 21,000 रुपये से भी ज्यादा है। इसके सिवा उसमें भत्ता और दूसरे सीधे टेढ़े आमदनी के जरिये हैं ही। इंग्लैंडके प्रधानमंत्री को सालाना 5,000 पोंड, यानी, मौजूदा विनिमय दरके हिसाब से माहवार 5,400 रुपये से कुछ अधिक मिलता है। जिस देश में हर एक आदमी की औसत रोजाना आमदनी 2 आने से भी कम है, उसमें आपको रोजाना 700 रुपये से भी अधिक मिलते हैं। उधर इंग्लैंड के बाशिन्दों की औसत दैनिक आय लगभग 2 रुपये है और वहां के प्रधानमन्त्री को रोजाना सिर्फ 180 रुपये ही मिलते हैं। इस तरह आप अपनी तनख्वाह के रूप में 5,000 से भी अधिक भारतीयों की औसत कमाई का हिस्सा ले लेते हैं; उधर इंग्लैंड के प्रधानमंत्री सिर्फ 90 अंग्रेजोंकी कमाई ही लेते हैं। मैं आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूं कि आप इस आश्चर्यजनक विषमता पर ध्यानपूर्वक थोड़ा विचार कर देखें। एक कठोर लेकिन सच्ची हकीकत को ठीक से समझाने के लिए मुझे आपका व्यक्तिगत उदाहरण पेश करना पड़ा है।
मेरे इस पत्र का आप पर कोई असर न होगा तो इस महीने की ग्यारहवीं तारीख को मैं अपने आश्रमके जितने साथियों को ले जा सकूंगा, उतने साथियों के साथ नमक-सम्बन्धी कानून को तोड़ने के लिए कदम बढ़ाऊंगा। गरीबों के दृष्टिकोण से यह कानून मुझे सबसे ज्यादा अन्यायपूर्ण मालूम होता है। आज़ादी की यह लड़ाई खासकर देश के गरीब से गरीब लोगों के लिए है। अतः यह लड़ाई इस अन्याय के विरोध से ही शुरू की जायेगी। आश्चर्य तो यह है कि हम इतने सालों तक इस क्रूरतापूर्ण एकाधिकारको स्वीकार करके चलते रहे। मैं जानता हूं कि मुझे गिरफ्तार करके मेरी योजना को निष्फल बना देना आपके हाथ में है, परन्तु मुझे उम्मीद है कि मेरे बाद लाखों आदमी अनुशासित ढंग से इस काम को अपने सिर उठा लेंगे और नमक-कानून को, एक ऐसे कानूनको तोड़ने के लिए दिया जानेवाला सारा दण्ड खुशी-खुशी भोगेंगे जो विधान-पुस्तक को विरूपित कर रहा है और इसलिए जो कभी बनाया ही नहीं जाना चाहिए था।”
गांधी ने यह पत्र रेजिनाल्ड रेनॉल्ड्स के हाथों भेजा था। रेजिनाल्ड एक ब्रिटिश पत्रकार थे जो आज़ादी के प्रति भारत के आंदोलन से सहानुभूति रखते थे और गांधी के करीबी सहयोगी बन गए थे।

इस मार्च के दौरान गांधी को हिंसा और खून-खराबा होने का डर भी सता रहा था, उन्होंने मार्च शुरू करने से पहले 9 मार्च को नवजीवन में लिखा-
“लोगों में जबरदस्त जागृति उत्पन्न होने के अवसरों पर खून-खराबा होने का भय तो हमेशा बना ही रहता है। हमारा यह अहिंसात्मक युद्ध भी इस भय से मुक्त नहीं है। पर जहां हिंसा का सवाल ही नहीं है, यदि वहां खून-खराबा हो तो किसी को दुःख नहीं होता। बहुत से लोग तो उसका स्वागत भी करते हैं। लेकिन इस युद्ध में ऐसे लोगोंका एक बड़ा समुदाय है जो खून-खराबी का स्वागत करने के बजाय उसे रोकना ही अपना धर्म समझता है।
इस डर के कारण अब तक मैं स्वयं सविनय अवज्ञा टालता रहा था, और सर्व-साधारणको भी वैसा करने से रोकने की कोशिश करता रहा था। लेकिन अब खून-खराबे का जोखिम उठाकर भी मैं इस बार आखिरी कदम उठाने के लिए तैयार हो गया हूं। क्योंकि मैं देखता हूं कि फिलहाल किसी दूसरे तरीके से मैं जनता को युद्धके लिए तैयार नहीं कर सकता। दूसरी ओर मैं यह देखता हूं कि सरकार की संगठित हिंसा दिन-प्रति-दिन बढ़ती जाती है, और उतनी ही तेजी से इस संगठित हिंसा का हिंसा से प्रतिकार करनेवाला दल भी शक्तिशाली होता जा रहा है। अतः यदि अहिंसा में हिंसा को रोकने की शक्ति हो या मुझमें अहिंसा है तो इस दोहरी हिंसा को रोकने का कोई अहिंसक मार्ग मुझे मिल ही जाना चाहिए।”
गांधी की 241 मील की दांडी की यह यात्रा अंततः 5 अप्रैल 1930 को खत्म हो गई। गांधी और स्वयंसेवकों के दल ने 22 जगहों पर रात के लिए यात्रा को रोका था। 5 अप्रैल को उन्होंने दांडी में भाषण दिया-
“कल नमक-कर कानून की सविनय अवज्ञा की जायेगी। सारे भारत में व्यापक सविनय अवज्ञा शुरू हो और उसे वह सह ले तो इसका सही मतलब होगा कि नमक-कर अब नहीं रहा। मैने तो तभी यह मान लिया था कि नमक-कर समाप्त हो गया है, जब हमने नमक-कानून तोड़ने का संकल्प किया और जब हममें से कुछ लोगोंने यह प्रतिज्ञा की कि जबतक स्वाधीनता न मिले तब तक अपने प्राणोंको संकट में डालकर भी हम इस प्रयत्न में लगे ही रहेंगे। इस आन्दोलन के द्वारा हम अन्त में जहां पहुंचना चाहते हैं, हमारा वह लक्ष्य तो बहुत दूर है। हमारी यात्रा का गंतव्य फिलहाल दांडी है किन्तु अन्त में तो हमें स्वतन्त्रता देवी के धाम तक पहुंचना है। जब तक हमें स्वतन्त्रता-देवी के दर्शन नहीं होते तब तक न तो हम स्वयं चैन लेंगे और न सरकार को चैन लेने देंगे।”
6 अप्रैल को दांडी में तनावपूर्ण माहौल था, गांधी ने प्रार्थना से दिन की शुरुआत की और तय किया कि अगर उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है तो अब्बास तैयबजी और सरोजनी नायडू इस सत्याग्रह का नेतृत्व करेंगे। गांधी ने अपने अनुयायियों के साथ समुद्र में स्नान किया और सुबह 8.30 बजे उन्होंने नमक की एक डली उठाकर नमक कानून का उल्लंघन किया। नमक कानून तोड़ने के बाद जारी एक बयान में गांधी ने कहा, “अब जबकि नमक कानून का औपचारिक उल्लंघन हो चुका है, अब यह किसी भी व्यक्ति के लिए खुला है जो नमक कानून के तहत अभियोजन का जोखिम उठाएगा, जहां भी वह चाहे और जहां भी सुविधाजनक हो, नमक का निर्माण कर सकता है।”
6 अप्रैल को गांधी द्वारा सभा को संबोधित किए जाने के बाद लगभग 2 तोला नमक जो उन्होंने दांडी में सुबह उठाकर उन्होंने साफ किया था उसे नीलाम किया गया और अहमदाबाद के एक मिल मालिक सेठ रणछोड़ शोधन ने 525 रुपये इसे खरीद लिया था। नमक भारत की आज़ादी की इच्छा का प्रतीक बन गया था और उसी दिन पूरे भारत में 5,000 से ज़्यादा सभाओं में कम से कम 50 लाख लोगों ने नमक कानून को तोड़ा था। इस यात्रा के दौरान गांधी जहां भी रुकते थे वहीं पर वह लोगों को संबोधित किया करते थे। उनके भाषणों के चलते लोगों के मन में अंग्रेज़ी शासन के प्रति घृणा का भाव पैदा हो गया था और यह भाव स्थाई था जो समय के साथ अधिक गहरा होता गया।

सविनय अवज्ञा के खिलाफ अंग्रेज़ी सरकार का आतंक भी लगातार जारी था। 31 मार्च तक 95,000 से अधिक लोगों को जेल में डाल दिया गया था। इसके जवाब में कराची, कलकत्ता, पेशावर जैसी कई जगहों पर अंग्रेज़ों के खिलाफ हिंसा भड़क उठी थी। पुलिस ने कलकत्ता, मद्रास और कराची में गोलियां चलाईं और पूरे देश में अंग्रेज़ सरकार की क्रूरता चरम पर पहुंच गई थी। 4 मई को गांधी को दांडी से 3 मील दूर कराडी में देर रात करीब 12:30 बजे उनकी कुटिया से सोते समय गिरफ्तार कर लिया गया था। गांधी ने पंडित खरे नामक सत्याग्रही को उनका पसंदीदा भजन ‘वैष्णव जन’ सुनाने को कहा और साथियों ने प्रणाम करके गांधी को विदाई दी। करीब एक घंटे बाद उन्हें एक लॉरी में बिठाकर यरवदा सेंट्रल जेल ले जाया गया।
जून में इलाहाबाद में कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक हुई और सविनय अवज्ञा जारी रखने, विदेशी कपड़ों का पूर्ण बहिष्कार, कर-मुक्ति अभियान की शुरुआत, नमक कानून का साप्ताहिक उल्लंघन, ब्रिटिश बैंकिंग, बीमा, शिपिंग और अन्य संस्थानों का बहिष्कार और शराब की दुकानों पर धरना देने जैसी कई सिफारिशें उसमें की गई थीं। सविनय अवज्ञा आंदोलन का भारत के विभिन्न हिस्सों में व्यापक प्रभाव हुआ था। पूर्वी भारत में चौकीदारी कर का भुगतान करने से इनकार कर दिया गया और बिहार में नो-टैक्स अभियान लोकप्रिय हुआ। महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर वन कानूनों की अवहेलना की गई। इस दौरान सैकड़ों की संख्या में प्रदर्शनकारी जेल गए।
बंबई में कांग्रेस ने 30 करोड़ रुपये के विदेशी कपड़े को सील कर दिया था। 1930 की सर्दियों तक सूती कपड़ों का आयात पिछले साल की तुलना में एक तिहाई से एक चौथाई रह गया था और सिगरेट की कीमतों में भारी गिरावट दर्ज हुई थी। बंबई में ब्रिटिश स्वामित्व वाली 16 मिलें बंद हो गई थीं और खादी का उत्पादन बढ़ गया था। खादी का उत्पादन पूरे देश में 63 लाख गज से बढ़कर 113 लाख गज हो गया था। 1929 में देश में खादी स्टोर की जो संख्या 384 थी वो 1930 के अंत तक आते-आते 600 तक पहुंच गई थी।
25 जनवरी को 1931 को गांधी और कार्यसमिति के सदस्यों को बिना शर्त रिहा कर दिया गया। लॉर्ड इरविन ने एक बयान जारी किया, “सरकार इन रिहाइयों पर कोई शर्त नहीं लगाएगी क्योंकि हम महसूस करते हैं कि शांतिपूर्ण स्थिति की बहाली की सबसे अच्छी उम्मीद लोगों द्वारा बिना शर्त स्वतंत्रता की शर्तों के तहत की जाने वाली चर्चा में निहित है।” दांडी मार्च को भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे प्रभावशाली आंदोलनों में से एक माना जाता है और इसके बाद स्वतंत्रता के लिए अंग्रेज़ों पर दबाव बढ़ता ही गया था।