औरंगज़ेब की कब्र हटाने को लेकर जारी विवाद के बीच अब उसके भाई दारा शिकोह को लेकर भी चर्चा शुरू हो गई है। दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने बेंगलुरु में औरंगज़ेब को लेकर एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि दारा शिकोह को कभी आइकॉन नहीं बनाया गया। औरंगज़ेब के भाई दारा शिकोह को शाहजहां का असल उत्तराधिकारी माना जाता है। एक और जहां औरंगज़ेब की कट्टरता की चर्चा होती तो वहीं दारा को उदार और भारतीय संस्कृति के साथ तालमेल बनाकर चलने वाला माना जाता है।
RSS ने क्या कहा?
संघ की तीन दिवसीय अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक के तीसरे दिन प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान दत्तात्रेय होसबाले से औरंगज़ेब की कब्र हटाने से जुड़े मामले को लेकर सवाल पूछा गया था। दत्तात्रेय होसबाले ने इस पर कहा, “दिल्ली में औरंगज़ेब मार्ग था उसको बदलकर अब्दुल कलाम रोड किया तो उसका कुछ मकसद है। भारत में क्या हो गया है कि औरंगज़ेब के भाई दारा शिकोह को आइकॉन नहीं बनाया। जो गंगा-जमुनी संस्कृति की बात करते हैं उन्होंने कभी दारा शिकोह को आगे लाने की कोशिश नहीं की।”
होसबाले ने कहा, “यह है कि भारत में क्या हमारे लोकाचार के विरुद्ध चले हुए व्यक्ति को आइकॉन बनाकर चलना है या यहां की मिट्टी, यहां की संस्कृति, यहां की परंपरा के साथ जो लोग रहे हैं उनको आइकॉन बनाना है। औरंगज़ेब उस स्थिति में नहीं बैठते हैं जबकि उनके भाई दारा शिकोह उस स्थिति में बैठते हैं।” साथ ही, उन्होंने कहा कि आक्रामणकारी मानसिकता के लोग देश के लिए खतरा है। होसबाले का कहना है कि यह विदेशी बनाम स्वदेशी या धर्म का सवाल नहीं है बल्कि देश की संस्कृति के साथ खुद को आत्मसात करने का मामला है।
कौन था दारा शिकोह?
दारा शिकोह, मुगल सम्राट शाहजहां का सबसे बड़े पुत्र थे। शाहजहां चाहते थे कि वही अगला सम्राट बनें लेकिन सत्ता की इस दौड़ में उनके अपने ही भाई औरंगज़ेब ने उन्हें हरा दिया और उसकी हत्या कर दी गई। दारा शिकोह केवल एक राजकुमार ही नहीं बल्कि एक विद्वान और आध्यात्मिक विचारक भी थे। उसने संस्कृत और फारसी में गहरी रुचि ली और वेदांत तथा इस्लाम के दर्शन को समझने के लिए विद्वानों, संतों और सूफियों की संगति की। वह मानता थे कि हिंदू और इस्लामी परंपराओं में गहरी समानता है और इस विषय पर उसने कई महत्वपूर्ण ग्रंथ भी लिखे।
अजमेर में जन्मे दारा शिकोह के जन्म के लिए उसके पिता शाहजहां ने ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती से प्रार्थना की थी। बचपन से दारा को मुगल साम्राज्य के भावी शासक के रूप में तैयार किया गया था और जब उनके भाइयों को प्रशासक के रूप में प्रशासक के रूप में सुदूर प्रांतों में भेजा गया था लेकिन दारा को शाही दरबार में ही रखा गया था। सैन्य अभियानों में दारा की रूचि नहीं तो उनका सारा समय आध्यात्मिक खोज में लग गया था। ‘दारा शिकोह, द मैन हू वुड बी किंग’ के लेखक अवीक चंदा ने बीबीसी से बातचीत के दौरान बताया कि शाहजहां दारा को अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए इतने तत्पर थे कि उन्होंने उसके लिए अपने दरबार में एक खास आयोजन किया था जिसमें उन्होंने दारा को अपने पास तख्त पर बिठाया और उन्हें ‘शाहे बुलंद इकबाल’ का खिताब दिया। उन्होंने बताया कि शहज़ादे के रूप में दारा को शाही खजाने से दो लाख रुपये एक मुश्त दिए गए और उन्हें रोज़ 1,000 रुपये का दैनिक भत्ता दिया जाता था।
जब दारा शिकोह 7 साल के थे तब उनके पिता शहजादा खुर्रम ने अपने दो बड़े भाइयों के होते हुए भी तख्त पर कब्जा करने के लिए अपने ही पिता सम्राट जहांगीर के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। 4 वर्ष बाद शहजादे खुर्रम को शाही परिवार में फिर से जगह दी गई है। जहांगीर ने खुर्रम के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए दारा शिकोह और उनके भाइयों को बंदी बना लिया गया था और उनकी सौतेली दादी नूरजहां की निगरानी में रखा गया था।
दारा ने अपनी पहली पुस्तक सफ़ीनात-उल-औलियालिखी 25 वर्ष की उम्र में लिखी थी जिसमें पैगंबर और उनके परिवार, खलीफाओं और सूफी संघों से संबंध रखने वाले संतों के जीवन का विवरण था। दारा शिकोह के आध्यात्मिक मार्गदर्शक मुल्ला शाह थे जिन्होंने उन्हें सूफियों के कादरी संघ में दीक्षित किया था। मुल्ला शाह ने युवा दारा शिकोह की तारीफ में एक गज़ल में कहा था-
“पहले और दूसरे साहिब किरान (अमीर तैमूर और शाहजहाँ) भव्यता के राजा हैं,
हमारा दारा शिकुह दिल का साहिब किरान है।
कायनात से, दोनों जहां के कानून से, वो अपने दिल के सौदे की वजह से
गिरफ्त में है”
दारा की सबसे प्रसिद्ध पुस्तक के तौर पर ’सिर-ए-अकबर’ (महान रहस्य) को देखा जाता है, यह उपनिषदों के पचास अध्यायों का अनुवाद था जिसे दारा ने काशी के पंडितों और संन्यासियों के सहयोग से पूरा किया था। इस ग्रंथ में उन्होंने तर्क दिया था कि हिंदू एकेश्वरवाद की उपेक्षा नहीं करते हैं बल्कि उपनिषद एक प्राचीन कार्य है जो एकेश्वरवाद का स्रोत है। कुछ इतिहासकार दारा को ‘भगवद गीता’ के अनुवाद का भी श्रेय देते हैं।
दारा की एक प्रसिद्ध पुस्तक ‘मजमा-उल-बहरीन’ थी इसका अर्थ था ‘दो दरियाओं का मिलाप’। इस पुस्तक में दारा ने विश्लेषणात्मक रूप से इस्लाम और हिंदू धर्म के पहलुओं की तुलना की थी। इस पुस्तक में ’धार्मिक अभ्यासों,’ ’ईश्वर का अवलोकन करना,’ ’परम पिता ईश्वर के नाम’ और ‘ईश्वर-दौत्य और नबीयत’ जैसी अवधारणाओं का ज़िक्र था और कई विद्वान गंगा-जमुनी तहजीब शब्द के उद्भव के तौर पर भी ‘मजमा-उल-बहरीन’ का ज़िक्र करते हैं।
दारा की छवि एक कमज़ोर शासक की थी लेकिन उन्होंने युद्धों में भी भाग लिया था। वे अपनी मर्जी से कंधार के अभियान पर गए लेकिन वहां उन्हें हार का सामना करना पड़ा। उनसे पहले औरंगज़ेब भी कंधार से नाकामयाब होकर लौटे थे। दारा की 70,000 की सेना में 230 हाथी, 6000 ज़मीन खोदने वाले, 500 भिश्ती और तांत्रिक, जादूगर, मौलाना और साधु भी साथ चल रहे थे। दारा को कई दिनों तक घेरा डालने के बाद भी सफलता हाथ नहीं लगी और उन्हें कंधार से खाली हाथ दिल्ली लौटना पड़ा था।
1657 में जिस समय ‘सिर-ए-अकबर’ पूरा हुआ, उसी समय शाहजहां बीमारी से ग्रस्त हो गए और उनकी मृत्यु की अफवाहों ने भाइयों के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई को भड़का दिया। दारा को उनकी बहन जहांआरा बेगम ने समर्थन दिया तो वहीं रोशनारा बेगम द्वारा समर्थित उनके भाई औरंगज़ेब, मुराद और शुजा ने मिल कर शाही राजधानी पर हमला बोल दिया। दारा 1658 में सामूगढ़ की लड़ाई में पहला हमला हार गए। उन्होंने अफगानिस्तान के दादर में शरण मांगी लेकिन उनके मेज़बान ने उनके भाई औरंगज़ेब को उनके बारे में सूचना दे दी। उन्हें दिल्ली लाया गया और ज़ंजीरों से बांध कर शाही राजधानी की गलियों में एक मादा हाथी के ऊपर बिठा कर उनका जुलूस निकाला गया।
इतिहासकार बर्नियर ने इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे, उन्होंने लिखा, “इस मौके पर भारी भीड़ इकट्ठी हुई थी और हर जगह मैंने देखा कि लोग रो रहे थे और बेहद मार्मिक भाषा में दारा के भाग्य पर अफ़सोस कर रहे थे।पुरुष, महिलाएं और बच्चे ऐसे क्रंदन कर रहे थे मानो खुद उन पर कोई भारी विपत्ति आ गई हो।”
दारा पर इस्लाम का विरोध करने का आरोप लगाया गया था और दिल्ली में घुमाए जाने के एक बाद तय किया गया कि दारा को मौत के घाट उतार दिया जाएगा। अफवाह फैला दी गईं कि दारा को ग्वालियर की जेल में ले जाया जा रहा है और उसी शाम औरंगज़ेब ने अपने गुलाम नज़र बेग को बुला कर कहा कि वो दारा शिकोह का कटा हुआ सिर देखना चाहते हैं। अवीक चंदा ने बताया, “नज़र बेग अपने मुलाज़िमो को लेकर ख़िजराबाद के महल में पहुंचे जहां दारा और उनका बेटे अपने हाथों से दाल पका रहे थे। नज़र ने वहां जाकर कहा कि वह उनके बेटे सिफ़िर को लेने आया है और दारा से उनके बेटे को छुड़ाकर दूसरे कमरे में ले गया।”
अवीक ने कहा, “दारा ने एक छोटा चाकू अपने तकिए में छिपा कर रखा था और उन्होंने चाकू से नज़र बेग के एक साथी पर पूरी ताकत से प्रहार कर दिया। तभी नज़र के साथियों ने उनके दोनों हाथों को पकड़ा और उन्हें ज़बरदस्ती घुटनों के बल बैठा कर उनका सिर ज़मीन से लगा दिया। इसके बाद नज़र बेग ने अपनी तलवार से दारा का सिर धड़ से अलग कर दिया।”
अपने जीवन का बड़ा हिस्सा भारत में बिताने वाले इटली के इतिहासकार निकोलाओ मनुची ने अपनी किताब ‘Storia do Mogor या मुगल भारत’ में लिखा है, “इसके बाद दारा शिकोह के कटे हुए सिर को औरंगज़ेब के सामने पेश किया गया। औरंगज़ेब ने आदेश दिया कि सिर में लगे खून को धोकर उसके सामने एक तश्तरी में पेश किया जाए। उसने मशालें जलाने के लिए कहा ताकि वह राजकुमार के माथे पर लगा निशान देख सके और यह सुनिश्चित कर सके कि यह दारा का सिर है, किसी और का नहीं। जब वह संतुष्ट हो गया, तो उसने उसे जमीन पर रखने के लिए कहा और अपनी तलवार लेकर उसके चेहरे पर तीन वार किए और कहा, ‘यह एक भावी राजा और मुगल साम्राज्य के सम्राट का चेहरा है। इसे मेरी नज़रों से दूर करो’।”
मनुची ने लिखा है, “औरंगज़ेब ने गुप्त आदेश दिया कि इसे (कटे सिर) एक बक्से में रखा जाए और इसे शाहजहां के कारागार के प्रभारी इतिबर खान के पास धावकों द्वारा भेजा जाए, ताकि जब शाहजहां भोजन पर बैठे तो इसे उनके सामने पेश किया जा सके। औरंगज़ेब ने दारा पर बरसाए गए प्रेम और अपने प्रति किए गए कम सम्मान का बदला लेने के लिए यह योजना बनाई थी।” उन्होंने लिखा, “जैसे ही शाहजहां ने खाना शुरू किया तो इतिबार खान बक्सा लेकर आया और उसके सामने रख दिया। इतिबार ने कहा ‘आपके बेटे राजा औरंगज़ेब ने यह भेजा है ताकि वह देख सके कि वह उसे भूला नहीं है। बूढ़े बादशाह ने कहा ‘अल्लाह का शुक्र है कि मेरा बेटा अभी भी मुझे याद करता है’। बक्सा एक मेज पर रखा गया और शाहजहां ने बड़ी उत्सुकता से उसे खोलने का आदेश दिया। ढक्कन हटाने पर जैसे ही उसने राजकुमार दारा का चेहरा देखा तो डर के चलते उसकी चीख निकल गई। शाहजहां अपने हाथों और चेहरे के बल मेज पर गिर गया और सोने के बर्तनों से टकराकर उसके कुछ दांत टूट गए और वह बेहोशी की हालत में वहीं पड़ा रहा।”
मनुची के मुताबिक, औरंगज़ेब के आदेश पर इतिबार खान ने दारा शिकोह का सिर उसकी मां मुमताज़ महल के मकबरे ताज महल में दफनाने के लिए भेज दिया। उन्होंने लिखा, “ताज महल को शाहजहां ने अपनी प्रिय पत्नी की याद में बनवाया था। मुमताज़ की मृत्यु शाहजहां के जीवन का सबसे बड़ा दुख था, जिसे उसने कई बार अपने दरबारियों के सामने स्वीकार किया था। उसने ताज महल को महल के सामने इसलिए बनवाया था कि शायद इसे देखकर वह अपनी पत्नी की मृत्यु के दर्द को कुछ हद तक कम कर सके। लेकिन जब उसी जगह पर उसके प्यारे बेटे दारा शिकोह का कटा हुआ सिर दफनाया गया तो उसका दुख और भी गहरा हो गया। इस सदमे ने उसे भीतर तक तोड़ दिया और कुछ ही समय में उसने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया।”