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INA की जासूस सरस्वती राजमणि: अंग्रेज़ों को छकाने वाली योद्धा जिन्हें भारत में पेंशन के लिए भटकना पड़ा

जब महात्मा गांधी से मिली थीं सरस्वती राजमणि, जानें क्यों हैरान रह गए थे गांधी?

Shiv Chaudhary द्वारा Shiv Chaudhary
26 March 2025
in इतिहास
INA की दिलेर जासूस सरस्वती राजमणि

INA की दिलेर जासूस सरस्वती राजमणि

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कई दशकों तक चली भारत की आज़ादी की लड़ाई में अनगिनत वीरों-वीरांगनाओं के बलिदान दिया। इस लंबे संघर्ष की गाथा में कई नायकों को देश ने सिर-आंखों पर बैठाया जबकि सैकड़ों-हज़ारों गुमनामी में छिपे रह गए। इन्हीं में से एक वीरांगना हैं- सरस्वती राजमणि। जिस उम्र में बच्चे खेलकूद में मस्त रहते हैं उस उम्र में राजमणि का समर्पण आजाद हिंद फौज की शक्ति का प्रतीक बन गया था। 16 वर्ष की उम्र में राजमणि आज़ाद हिंद फौज की जासूस बन गई थीं। आज जानेंगे देश की आजादी के लिए अपने जीवन को दांव पर लगा देने वाली सरस्वती राजमणि की पूरी कहानी…

राजमणि का शुरुआती जीवन और गांधी से मुलाकात

सरस्वती राजमणि का जन्म 11 जनवरी 1927 को तमिलनाडु के एक समृद्ध तमिल भारतीय परिवार में हुआ था जो रंगून में रह रहा था। इनके पिता रामनाथन के पास सोने की खदानों का स्वामित्व हुआ करता था और वे स्वतंत्रता आंदोलन के लिए बड़ी धनराशि दान करते थे। उनकी परिवार गांधीवादी था और गांधी के विचारों को मानता था। राजमणि जब 10 साल की थीं तो एक बार महात्मा गांधी उनके घर आए।

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उन्होंने देखा कि छोटी राजामणि एक खिलौना बंदूक लेकर निशाना साध रही हैं। गांधी ने पूछा, “बेटा, तुम शूटिंग का अभ्यास क्यों कर रही हो?” इस पर दृढ़ राजामणि ने जवाब दिया, “अंग्रेजों को गोली मारने के लिए!” गांधीजी यह सुनकर हैरान रह गए और उन्हें समझाया कि अहिंसा ही स्वतंत्रता का सही मार्ग है। राजामणि ने उनके सामने तो बंदूक रख दी, लेकिन उनके मन में यह विश्वास था कि केवल अहिंसा से आज़ादी नहीं मिल सकती।

जब INA में शामिल हुई सरस्वती राजमणि?

जनवरी 1944 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने पैसा इकट्ठा करने और स्वयंसेवकों की भर्ती के लिए रंगून का दौरा किया। उन्होंने वहां एक शिविर लगाया जिसमें लोग पैसा, ज़ेवर दान कर रहे थे। उस समय राजमणि की उम्र केवल 16 साल थी और वे नेताजी के विचारों से बहुत प्रभावित रहती थीं। उन्हें पता चला कि नेताजी आएं हैं तो राजमणि ने एक थैले में अपने सोने-चांदी के जेवरातों को भरकर दान में दे दिया।

अगले दिन नेताजी राजमणि के गहने लौटाने उनके घर पहुंच गए। जब नेताजी ने गहने लौटाने चाहे तो पहले तो राजमणि ने इनकार किया लेकिन जब नेताजी ने समझाने की कोशिश की तो उन्होंने शर्त रख दी कि ‘अगर आप मुझे INA में शामिल करेंगे, तो मैं गहने वापस लूंगी’। नेताजी ने राजमणि की शर्त मान ली और राजमणि की बुद्धिमत्ता से प्रभावित होकर उन्हें सरस्वती राजामणि नाम दिया।

जासूस कैसे बनीं राजमणि?

इतिहासकर प्रोफेसर कपिल कुमार ने अपनी पुस्तक ‘नेताजी, आज़ाद हिन्द सरकार और फौज भ्रांतियों से यथार्थ की ओर 1942-47‘ में लिखा है, “पहले प्रशिक्षण के दौरान राजमणि ने बतौर नर्स एक हॉस्पिटल में काम करना शुरू किया था।उन्होंने लिखा, “यहां उन्होंने यह पाया कि आजाद हिंद फौज का एक सैनिक, जो हॉस्पिटल में भर्ती था, एक ब्रिटिश मुखाबिर से कुछ जानकारियां साझा कर रहा था। यह बात उन्होंने नेताजी को बता दी। उस गद्दार के खिलाफ कार्रवाई करने के बाद नेताजी ने सरस्वती के जासूसी और बुद्धिमत्तापूर्ण कौशल को देखकर उन्हें जासूस के रूप में नियुक्त कर दिया।”

सरस्वती के साथ उनकी 4 सहेलियों को INA के लिए जासूस बनाया गया था और ये रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल थीं। उन्हें कई तरह के प्रशिक्षण और बंदूक चलाने की ट्रनिंग दी गई और रंगून से करीब 700 किलोमीटर दूर मेम्यो भेज दिया गया। राजमणि के बालों में लड़कों की तरह काट दिया गया और वे वेश बदलकर अंग्रेज़ अधिकारियों के घर में छोटे-मोटे काम करने चली जातीं। वे अंग्रेज़ों की बातों को सुनतीं और कई बार कुछ ज़रूरी दस्तावेज़ भी उनके हाथ लग जाते। यह जानकारी फिर मुखबिर के ज़रिए नेताजी तक पहुंचा दी जाती थी। इसी दौरान एक दिन सरस्वती की सहेली दुर्गा को अंग्रेजों ने रंगे हाथों पकड़ लिया और उसे कैद कर लिया।

जब अंग्रेज़ों के कैंप में घुस गईं राजमणि

जासूसी के लिए भेजी गईं इन लड़कियों को निर्देश दिया गया था कि अगर कोई एक पकड़ भी लिया जाए तो दूसरा वहां से बच निकले। अंग्रेज़ों से सीधा लोहा लेना इस बच्चों के वश से बाहर की बात लग रही थी लेकिन राजमणि की बहादुरी उन्हें किसी भी बाधा से नहीं रोक सकती थी। प्रोफेसर कपिल लिखते हैं, “सरस्वती इन निर्देशों को दरकिनार करते हुए दुर्गा को बचाने के लिए नृत्यांगना के वेश में ब्रिटिश शिविर में घुस गई। उसने ब्रिटिश अधिकारी को नशीला पदार्थ खिलाकर बेहोश कर दिया और दुर्गा के साथ भाग निकली। लेकिन इस दौरान में उनके बायें पैर में गोली लग गई।”

राजमणि ने 2005 के एक इंटरव्यू में बताया था, “मैं खून से लथपथ पैर के साथ भागी और हम दोनों एक पेड़ पर चढ़ गए (राजमणि और दुर्गा) और तीन दिन तक वहीं बैठे रहे। चौथे दिन ही हम नीचे उतरे। नेताजी हमारी बहादुरी से इतने खुश हुए कि उन्होंने हमें सलाम किया और बधाई दी। मुझे खुद जापानी सम्राट ने पदक दिया था।”

पेंशन के लिए लगाए दफ्तरों के चक्कर

दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार और 1945 में नेताजी बोस के कथित निधन के बाद INA के अन्य सैनिकों की तरह राजमणि का परिवार भी भारत आ गया। राजमणि भारत तो आ गईं लेकिन यहां उनकी असली चुनौती शुरू हुई। बर्मा में बेची गई अपनी संपत्ति के सहारे राजमणि चेन्नई में आकर गुज़र बसर करने लगीं। वे अपनी पेंशन के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटती रहीं और आज़ादी के 24 साल बाद जाकर उन्हें पेंशन मिलनी शुरू हुई। 2000 के आस-पास वह एक कमरे के टूटे-फूटे मकान में रह रहीं थी और 2005 में तमिलनाडु सरकार ने चेन्नई में पीटर्स रोड पर स्थित एक मकान उन्हें आवंटित किया और वित्तीय सहायता भी दी। जनवरी 2018 में राजमणि का निधन हो गया।

स्रोत: सरस्वती राजमणि, सुभाष चंद्र बोस, बर्मा, जासूस, detective, Saraswati Rajamani, Subhash Chandra Bose, Burma,
Tags: BurmadetectiveMahatma GandhiSaraswati RajamaniSubhash Chandra Boseजासूसबर्मामहात्मा गाँधीसरस्वती राजमणिसुभाष चंद्र बोस
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