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वीरांगना अवंतीबाई लोधी: रणचंडी बन फिरंगियों पर बरसीं, कट गया हाथ, छूट गई तलवार लेकिन नहीं किया आत्मसमर्पण

माँ भारती के मान और स्वाभिमान की रक्षा में अमर हुईं, वीरांगना रानी अवंतीबाई की शौर्यगाथा युगों-युगों तक जीवंत रहेगी

himanshumishra द्वारा himanshumishra
20 March 2025
in इतिहास, चर्चित
वीरांगना रानी अवंतीबाई

वीरांगना रानी अवंतीबाई

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आज वीरता, शौर्य और बलिदान की प्रतिमूर्ति वीरांगना रानी अवंतीबाई लोधी का बलिदान दिवस है। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनके अद्वितीय योगदान को भले ही वामपंथी इतिहासकारों ने नजरअंदाज किया हो, लेकिन भारत की माटी में आज भी उनकी गाथाएं गूंजती हैं। जिन ब्रिटिश आक्रांताओं के विरुद्ध उन्होंने अंतिम सांस तक संघर्ष किया, वही इतिहासकार उनकी वीरता को दबाने का प्रयास करते रहे। लेकिन राष्ट्रवादी चेतना से ओतप्रोत हर भारतवासी आज भी उनकी शौर्यगाथा को नमन करता है।

1857 की क्रांति में वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने अंग्रेजों के विरुद्ध जो संघर्ष किया, वह झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से किसी भी तरह कम नहीं था। लेकिन जातिगत और वैचारिक पक्षपात के कारण उन्हें वह स्थान नहीं मिला, जिसकी वह अधिकारिणी थीं। इतिहास की पुस्तकों में उन्हें वह गौरवपूर्ण स्थान नहीं दिया गया, जो अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को मिला। फिर भी लोकगाथाओं और भारत माता के सपूतों के दिलों में उनका नाम अमर है।

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वीरांगना रानी अवंतीबाई लोधी

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जिन वीर-वीरांगनाओं ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, उनमें से कई को इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिसकी वे हकदार थीं। लेकिन देश की मिट्टी में आज भी उनके बलिदान की गूंज सुनाई देती है, और उनका अदम्य साहस आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बना हुआ है। ऐसी ही एक महान राष्ट्रनायिका थीं रामगढ़ की रानी अवंतीबाई लोधी, जिन्होंने न केवल अंग्रेजों की विस्तारवादी नीतियों का विरोध किया, बल्कि रणभूमि में अपनी शौर्यगाथा लिखते हुए सर्वोच्च बलिदान भी दिया।

16 अगस्त 1831 को जन्मी रानी अवंतीबाई लोधी केवल एक राजघराने की सदस्य भर नहीं थीं, बल्कि वे एक दृढ़प्रतिज्ञ और राष्ट्रभक्त योद्धा थीं। जब अंग्रेजों ने रामगढ़ रियासत को हड़पने की साजिश रची, राजा विक्रमजीत सिंह को मानसिक रूप से अयोग्य घोषित किया और उनके नाबालिग पुत्रों के नाम पर राज्य की बागडोर अपने हाथों में लेने की योजना बनाई, तब रानी ने इसे एक पल के लिए भी स्वीकार नहीं किया। अंग्रेजों ने कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत रामगढ़ का प्रशासन अपने नियंत्रण में लेने के लिए शेख मोहम्मद और मोहम्मद अब्दुल्ला को नियुक्त किया, लेकिन रानी ने उन्हें राज्य की सीमा से बाहर निकालकर स्पष्ट कर दिया कि वे अपने स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।

1855 में राजा विक्रमजीत सिंह की मृत्यु के बाद, रानी अवंतीबाई ने अपने नाबालिग पुत्रों के संरक्षक के रूप में राज्य का कार्यभार संभाला और अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ खुला विद्रोह कर दिया। उन्होंने किसानों से अंग्रेजी हुकूमत के आदेशों को न मानने का आह्वान किया, जिससे उनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ी। उनकी दूरदर्शिता और नेतृत्व क्षमता ने रामगढ़ को एक मजबूत शक्ति बना दिया, और वह अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन गईं।

रानी अवंतीबाई की दूरदृष्टि और साहस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने एक बार राजा विक्रमजीत सिंह से कहा था कि उन्होंने स्वप्न में एक चील को उनका मुकुट ले जाते हुए देखा है। यह भविष्यवाणी सच साबित हुई, जब अंग्रेजों की साजिशों का संकट उनके राज्य पर मंडराने लगा। लेकिन जब राजा ने खुद को पूजा-पाठ में अधिक रुचि लेने की बात कही, तो रानी ने बिना किसी हिचक के स्वतंत्रता की लड़ाई का दायित्व स्वयं उठा लिया। उनका जीवन और बलिदान यह सिद्ध करता है कि जब मातृभूमि पर संकट आता है, तो एक नारी भी रणचंडी बनकर अपना सर्वस्व समर्पित करने को तैयार रहती है।

जब फिरंगियों से लड़ते हुए रणचंडी बनीं रानी 

मंडला (म.प्र.) के रामगढ़ राज्य की वीरांगना रानी अवंतीबाई ने एक दिन राजा विक्रमजीत सिंह से कहा कि उन्होंने स्वप्न में एक चील को उनका मुकुट ले जाते हुए देखा है, जिससे प्रतीत होता है कि कोई बड़ा संकट आने वाला है। राजा ने उत्तर दिया कि यह संकट अंग्रेजों की ओर से आ रहा है, परंतु अब उनकी रुचि राज्य संचालन से अधिक पूजापाठ में है, इसलिए उन्होंने रानी को ही यह दायित्व सौंपने का निर्णय लिया।

रानी अपने मंत्रियों के साथ विचार-विमर्श कर ही रही थीं कि लार्ड डलहौजी का दूत एक पत्र लेकर आया, जिसमें कहा गया कि राजा के विक्षिप्त होने के कारण ब्रिटिश सरकार रामगढ़ की प्रशासनिक व्यवस्था के लिए एक अंग्रेज अधिकारी नियुक्त करना चाहती है। रानी समझ गईं कि उनके स्वप्न की चेतावनी साकार हो रही है। उन्होंने दूत को उत्तर दिया कि उनके पति पूर्णतः स्वस्थ हैं और वे स्वयं राजा की आज्ञा से शासन देख रही हैं, जब तक उनके पुत्र अमानसिंह और शेरसिंह बड़े नहीं हो जाते। इसलिए रामगढ़ में किसी अंग्रेज अधिकारी की आवश्यकता नहीं है।

परंतु डलहौजी पहले ही राज्य हड़पने का मन बना चुका था। उसने जबरन एक अंग्रेज अधिकारी नियुक्त कर दिया। इसी बीच राजा विक्रमजीत सिंह का देहांत हो गया, जिससे अब संपूर्ण जिम्मेदारी रानी के कंधों पर आ गई। वह भली-भांति समझ चुकी थीं कि अंग्रेजों से संघर्ष अब टाला नहीं जा सकता। उन्होंने आसपास के देशभक्त सामंतों और राजाओं से संपर्क स्थापित किया और कई वीर योद्धा उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध के लिए तैयार हो गए।

1857 का क्रांतिकाल अपने चरम पर था। नाना साहब पेशवा के नेतृत्व में अंग्रेजों को देश से बाहर खदेड़ने के लिए व्यापक युद्ध की योजना बन रही थी। रामगढ़ भी इस महासंग्राम में शामिल होने के लिए तैयार था। क्रांति का प्रतीक लाल कमल और रोटी घर-घर भेजी जा रही थी। रानी ने भी इस बलिदान यज्ञ में स्वयं को समर्पित करने का संकल्प ले लिया। उनकी बढ़ती शक्ति को देखकर अंग्रेज सेनापति वाशिंगटन ने रामगढ़ पर आक्रमण कर दिया।

रानी ने धैर्य नहीं खोया और अपनी सेना के साथ खैरी गांव के निकट वाशिंगटन को घेर लिया। रानी के अद्भुत युद्ध कौशल और रणकौशल से अंग्रेज सैनिकों के पांव उखड़ने लगे। इसी दौरान वाशिंगटन स्वयं घोड़े पर सवार होकर रानी को पकड़ने के उद्देश्य से उनके सामने आ पहुंचा, लेकिन रानी ने अपने तीव्र तलवार प्रहार से उसके घोड़े की गर्दन काट दी, जिससे वाशिंगटन भूमि पर गिर पड़ा और अपने प्राणों की भीख मांगने लगा। रानी ने दयावश उसे छोड़ दिया, लेकिन अंग्रेजों का षड्यंत्र यहीं समाप्त नहीं हुआ।

1858 में वाशिंगटन पुनः अधिक बड़ी सेना और पर्याप्त रसद के साथ रामगढ़ पर चढ़ाई करने आया। उसने किले को घेर लिया, परंतु तीन माह बीत जाने के बाद भी वह उसमें प्रवेश नहीं कर सका। दूसरी ओर, किले के अंदर रसद समाप्त हो रही थी, इसलिए रानी ने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ एक गुप्त मार्ग से बाहर निकलने का निर्णय लिया। जैसे ही रानी किले से बाहर निकलीं, उनके वीर सैनिकों ने किले के द्वार खोलकर अंग्रेजों पर जबरदस्त हमला बोल दिया। परंतु इसी बीच वाशिंगटन को सूचना मिल गई कि रानी किले से बाहर निकल गई हैं, और वह एक सैनिक टुकड़ी के साथ उनके पीछे दौड़ा।

20 मार्च 1858 को देवहारगढ़ के जंगल में दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। रानी रणचंडी बनकर शत्रुओं पर टूट पड़ीं, परंतु युद्ध के दौरान एक फिरंगी सैनिक के वार से उनका दाहिना हाथ कट गया और तलवार छूट गई। रानी समझ गईं कि अब मृत्यु निकट है। अंग्रेजों की कैद में सड़ने से बेहतर उन्होंने अपने जीवन का सम्मानजनक अंत करना उचित समझा। उन्होंने तुरंत अपने बाएं हाथ से कटार निकाली और अपने सीने में घोंप ली। अगले ही क्षण उनका निर्जीव शरीर उनके घोड़े पर झूल गया, लेकिन उनके बलिदान की गूंज अनंतकाल तक अमर हो गई।

रानी अवंतीबाई के बलिदान के बाद उनका पार्थिव शरीर रामगढ़ लाया गया, जहाँ उनकी स्मृति में एक समाधि बनाई गई। दुर्भाग्यवश, उचित देखरेख के अभाव में आज वह समाधि जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। यह हम सभी के लिए आत्ममंथन का विषय है कि जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर मातृभूमि की रक्षा की, उनकी स्मृतियाँ उपेक्षित न हों।

स्रोत: वीरांगना रानी अवंतीबाई, बलिदान दिवस, मध्यप्रदेश, Veerangana Rani Avanti Bai, Sacrifice Day, Madhya Pradesh
Tags: Madhya PradeshSacrifice DayVeerangana Rani Avanti Baiबलिदान दिवसमध्यप्रदेशवीरांगना रानी अवंतीबाई
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