महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित किए गए आर्य समाज के दर्शन और सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए कई महत्वपूर्ण विचारकों और संतों ने काम किया है। इनमें धर्मवीर पंडित लेखराम भी एक महत्वपूर्ण नाम हैं जिन्होंने ‘कुलियात आर्य मुसाफिर’ नामक पुस्तक लिखी जो धर्म पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में विख्यात हो गई है। पंडित लेखराम ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर वैदिक धर्म के आदर्शों के प्रचार-प्रसार के लिए लेखन और भाषण में अपना पूरा मन लगा दिया उन्होंने पेशावर (वर्तमान में पाकिस्तान) में आर्य समाज की नींव डाली थी और वे ‘आर्य मुसाफिर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे। वैदिक धर्म के लिए किए जा रहे उनके कार्यों से कट्टरपंथियों को इतना बुरा लगा कि उनकी हत्या तक कर दी गई।
शुरुआती जीवन और आर्य समाज की ओर झुकाव
पंडित लेखराम का जन्म वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के झेलम ज़िले के सैयदपुर गांव में 1858 में चैत्र महीने की 8 तारीख को हुआ था। उनके पिता का नाम तारा सिंह और मां का नाम भाग भारी थी। उनकी शुरुआती शिक्षा उर्दू एवं फारसी में हुआ, क्योंकि उस समय राजकाज एवं शिक्षा की भाषा यही हुआ करती थी। 17 वर्ष की आयु में ही वे पुलिस में भर्ती हो गए थे। वे मुंशी कन्हैया लाल अलखधारी के लेखन से प्रभावित थे और वहीं से उनका झुकाव आर्य समाज की ओर हो गया था।
एक महीने का अवकाश लेकर पंडित लेखराम, महर्षि दयानंद सरस्वती से मिलने अजमेर चले गए थे। वहां से लौटने के बाद उन्होंने पेशावर में आर्य समाज की स्थापना की। वे ‘धर्मोपदेश’ नामक एक मासिक पत्र भी निकालते थे। कुछ समय में उनका यह पत्र खूब प्रसिद्ध हो गया था। उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और अपना पूरा जीवन आर्य समाज और वैदिक धर्म के आदर्शों के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती की सबसे प्रमाणिक जीवनी लिखने की शपथ भी ली थी और उन्होंने इसके लिए देशभर से जानकारियां इकट्ठा की थीं। हालांकि, दुर्भाग्यवश यह काम पूरा नहीं हो सका।
इस्लाम से पंडित लेखराम का मुकाबला
पंडित लेखराम ने ‘धर्मोपदेश’ नामक एक उर्दू मासिक पत्र निकाला था जो उच्च कोटि की सामग्री के कारण ही वह प्रसिद्ध हो गया। उन दिनों पंजाब में अहमदिया नामक एक नया मुस्लिम सम्प्रदाय फैल रहा था। इसके संस्थापक मिर्जा गुलाम अहमद स्वयं को पैगम्बर बताते थे। मिर्जा ने किसी आर्य के नाम मुबाहला जारी कर दिया था। मुहाबला इस्लाम में एक धार्मिक प्रक्रिया है जिसमें दो पक्ष जब किसी धार्मिक या सच्चाई के मामले में सहमत नहीं होते, तो वे अल्लाह से प्रार्थना करते हैं कि जो भी झूठा हो उस पर अल्लाह की सजा आए। इसमें कहा गया कि कोई भी आर्य जो सोचता है कि वेद की शिक्षाएं सही हैं और कुरान शरीफ के सिद्धांत और शिक्षाएं गलत हैं तो वे हमारे साथ मुबाहला कर सकते हैं। इसमें कहा गया कि यदि एक वर्ष के समय में ईश्वरीय दंड उसके प्रतिद्वंद्वी पर पड़ता है तो मिर्जा जीत जाएगा और यदि प्रतिद्वंद्वी के साथ कोई अप्रिय घटना नहीं घटती है तो मिर्जा हार जाएगा और अपने प्रतिद्वंद्वी को 500 रुपये का जुर्माना देगा।
इसके लिए एक वर्ष की अवधि तय की गई थी। मिर्जा की इस चुनौती को पंडित लेखराम ने स्वीकार कर लिया और इसे लेकर पत्र भी लिखा। यह चुनौती 1888 में दी गई थी और 1889 के अंत तक लेखराम को कुछ नहीं हुआ तो वे इस शर्त को जीत गए। हालांकि, मिर्जा ने कभी भी उन्हें शर्त के 500 रुपए नहीं दिए थे। लेखराम ने अपने पत्रों में मिर्जा की हकीकत को लोगों के सामने रख दिया जिससे मुसलमान इनके खिलाफ हो गए थे।
पंडित लेखराम का समर्पण और निडरता उन्हें एक अद्वितीय व्यक्तित्व बनाते थे। जहां भी उनकी आवश्यकता महसूस होती थी, वे बिना किसी कठिनाई की परवाह किए तुरंत वहां पहुंच जाते। एक बार उन्हें पता चला कि पटियाला जिले के पायल गांव में एक व्यक्ति हिंदू धर्म छोड़ने का निर्णय ले चुका है। बिना देर किए, वे तत्काल रेल से रवाना हो गए। जिस गाड़ी में वे सवार थे वह पायल स्टेशन पर नहीं रुकती थी। जैसे ही स्टेशन आया लेखराम ने बिना सोचे-समझे गाड़ी से छलांग लगा दी। गिरने के कारण उन्हें गंभीर चोटें तक आ गईं। जब उस व्यक्ति ने देखा कि केवल उसे समझाने के लिए पंडित लेखराम ने अपनी जान जोखिम में डाल दी तो वह भावुक हो उठा और धर्मत्याग का विचार छोड़ दिया।
उनके निर्भीक प्रयासों से कई लोग प्रेरित हुए लेकिन इस बीच कुछ कट्टरपंथी उनसे नाराज़ भी हो गए थे। मुसलमान समुदाय के कुछ कट्टरपंथी उनकी सक्रियता से उनके खिलाफ हो गए थे। फिर 1897 में 6 मार्च का दुर्भाग्यपूर्ण दिन आया। लाहौर में जब लेखराम लेखन कार्य समाप्त कर उठे तो एक मुसलमान ने उन पर अचानक छुरे से हमला कर दिया। गहरे घावों से लहूलुहान पंडित लेखराम को तुरंत अस्पताल ले जाया गया लेकिन उनकी जान नहीं बचाई जा सकी। मृत्यु से पहले उन्होंने आर्य समाज के कार्यकर्ताओं को संदेश दिया कि तहरीर (लेखन) और तकरीर (प्रवचन) का कार्य कभी बंद नहीं होना चाहिए। धर्म और सत्य की राह में बलिदान देने वाले पंडित लेखराम जैसे महान व्यक्तित्व सदा के लिए प्रेरणा के स्रोत रहेंगे। ‘आर्य मुसाफिर’ के रूप में वे मानवता के प्रकाश स्तंभ थे जिनकी ज्योति अनंतकाल तक मार्गदर्शन करती रहेगी।