सती सेन सहाय: वो वीरांगना जिन्होंने नेताजी को दिया था आज़ाद हिंद फौज का नेतृत्व करने का ‘गुप्त संदेश’

क्यों स्कूल में 'गॉड सेव दी किंग' कि जगह 'गॉड शेव्ड दी किंग' गाती थीं सती सेन सहाय?

ए.एम. सहाय के साथ सती सेन सहाय (बाएं) और नेताजी बोस (दाएं)

ए.एम. सहाय के साथ सती सेन सहाय (बाएं) और नेताजी बोस (दाएं)

आज़ादी के लिए लड़ने वाली वीरांगनाओं की असंख्य गाथाएं केवल दस्तावेज़ों का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जिन गाथाओं से देश को प्रेरणा लेनी थी, जिन्हें अपना आदर्श बनाना था वे गुमनाम हैं। आज़ादी के बाद लोगों को उस लड़ाई में उनकी हिस्सेदारी का जितना सम्मान मिलना चाहिए था, वो कितनों को मिला है यह सवाल हमेशा बना रहेगा। आज़ादी के गुमनाम नायक और नायिकाओं की गाथाओं को जन-जन तक पहुंचा उतना ही ज़रूरी है जितना ज़रूरी यह आज़ादी है। कल आपने आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान देने वाली INA की जासूस सरस्वती राजमणि की कहानी पढ़ी थी। आज जानेंगे आज़ादी की एक और नायिका सती सेन सहाय की कहानी…

सती सेन और ‘गॉड शेव्ड दी किंग’

सती सेन सहाय का जन्म 27 सितंबर 1903 को बंगाल के बारीसाल (अब बांग्लादेश) में नलिनी सेन और सोफिया के घर हुआ। सती सेन सहाय का परिवार क्रांतिकारी था और वे देशबंधु चित्तरंजन दास की भतीजी थीं। उनकी शिक्षा कोलकाता में हुई, स्कूली शिक्षा के दौरान ही उनके मन में देश की आज़ादी की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। उन दिनों स्कूलों में ‘गॉड सेव दी किंग’ गाया जाता था और सती से भी यह गाने को कहा जाता था। उनके मन में अंग्रेज़ों को लेकर कोई सम्मान की भावना तो थी नहीं तो वे इसे ‘गॉड शेव्ड दी किंग’ कहकर गाया करती थीं। इसका मतलब होता था कि ‘भगवान राजा की हजामत बनाए’।

सती से जब पूछा जाता कि वे ऐसे क्यों गा रही हैं तो वे कह देती हैं कि बंगाली होने के कारण उनका उच्चारण ही ऐसा है। जबकि असल में यह अंग्रेज़ों के खिलाफ दबी हुई बगावत की एक चिंगारी थी। उन्होंने विश्व भारती विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और वे जल्दी ही गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की प्रिय छात्रा बन गईं थीं। सती सेन सहाय ने कई बार कांग्रेस की रैलियों एवं बैठकों में हिस्सा लिया था।

‘हम देशभक्तों को गिरफ्तार नहीं करते’

इतिहासकर प्रोफेसर कपिल कुमार ने अपनी पुस्तक ‘नेताजी, आज़ाद हिन्द सरकार और फौज भ्रांतियों से यथार्थ की ओर 1942-47‘ में लिखा है, “वह आनन्द मोहन सहाय (ए.एम. सहाय) से देशबन्धु के घर पर कई बार मिली थी। सहाय के जापान से 1927 में भारत आने पर वह उनके साथ परिणय सूत्र में बंध गई। इसके कुछ ही समय बाद नवदम्पत्ति जापान के कोबे चले आए और यहां पर भी इन दोनों ने भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष करना जारी रखा।” जनवरी 1929 में कोबे में भारतीय परिवारों को भारतीय ध्वज फहराने के लिए कहा गया था। उस समय तक वहां कई भारतीय व्यापारी रहते थे और उनके यहां अंग्रेज़ों का झंडा लगा रहता था।

प्रोफेसर कपिल लिखते हैं, “कोबे में 26 जनवरी 1929 को भारती ने एक साहसिक काम को अंजाम दिया। वह अपने हाथ में माचिस की डिबिया लेकर उन भारतीय परिवारों के पास गई जिनको 26 जनवरी 1929 को भारतीय ध्वज फहराने के लिए कहा गया था। उन्होंने देखा कि तीन भारतीय व्यापारियों के परिवार ऐसे थे जिनके यहाँ यूनियन जैक का फहरा रहा था। उन्होंने इन झण्डों को नीचे उतारा और चौराहे पर उन्हें आग के हवाले कर दिया। कोबे में स्थित ब्रिटिश दूतावास ने इसकी शिकायत जापानी सरकार से करते हुए सती के खिलाफ कारवाई करने की मांग की लेकिन एक जापानी अधिकारी ने जवाब दिया, ‘हम देशभक्तों को गिरफ्तार नहीं करते, हम सती सहाय को गिरफ्तार नहीं करेंगे’।”

नेताजी और सती सेन सहाय

सती सेन सहाय को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिवार की गहरी जानकारी थी। जब जापान में रहकर भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे भारतीय नेता ‘ए.एम. सहाय, देवनाथ दास और रास बिहारी बोस’ ने नेताजी को आंदोलन का नेतृत्व सौंपने का फैसला किया, तो सती को यह जिम्मा दिया गया। अपनी यात्रा को गुप्त रखने के लिए सती और उनके पति ने चतुराई भरा नाटक रचा। सती और एएम सहाय ने झगड़ा करना शुरू कर दिया ताकि अंग्रेज़ों को लगे कि उनका वैवाहिक जीवन खराब चल रहा है। इस बहाने सती को अपने दो बच्चों के साथ भारत आने की इजाजत मिल गई।

प्रोफेसर कपिल लिखते हैं, “वह कलकत्ता तो पहुंच गईं लेकिन यहां आकर उन्हें पता चला कि उनकी मां उर्मिला देवी पर कलकत्ता पुलिस लगातार निगरानी रख रही थी और उनके घर से नेताजी में संपर्क करना बहुत कठिन था। बेलामित्रा के सहयोग से वह प्रभावती देवी के एलिगन रोड आवास तक पहुंचने में सफल हुई। रास बिहारी बोस और सहाय की ओर से नेताजी को यह संदेश दे दिया गया कि वह इण्डियन इण्डिपेंडेंस लीग और आज़ाद हिन्द फौज का नेतृत्व करें। सकारात्मक उत्तर पाने के बाद सती एक सप्ताह के भीतर ही जापान वापस आ गई, हालांकि ब्रिटिश CID उन पर लगातार नजर बनाए रही थीं। टोक्यो लौटने पर उन्होंने इन लोगों को सशस्त्र क्रांति के संबंध में नेताजी के दृष्टिकोण से अवगत कराया।”

जब बोस ने सती सहाय को डांटा

1943 के मध्य में टोक्यो के इम्पीरियल होटल में सती सेन सहाय की नेताजी सुभाष चंद्र बोस से मुलाकात हुई थी। इस मौके पर सती के साथ उनकी बेटी आशा भी थीं। आशा ने नेताजी के पैर छूने की कोशिश की तो उन्होंने इसे लेकर सती को ही डांट दिया। आशा के मुताबिक, “सुभाष की मुस्कुराहट गायब हो गई और उनकी आवाज सख्त हो गई, उन्होंने मेरी मां को यह कहते हुए डांटा-ये क्या है सती, क्या तुमने अपने बच्चों को यही सिखाया है कि सौ साल के विदेशी शासन के बाद भी ये झुके रहें। उन्होंने हमें सीधे खड़े होकर जय हिन्द बोलने को कहा। हम सभी सीधे खड़े हो गए और जय हिंद कहा।”

सती ने नेताजी से अनुरोध किया कि वे उनकी बेटियों रजिया और आशा को अपने साथ ले जाएं और आजाद हिंद फौज में शामिल करे लें। तब नेताजी मुस्कुराए और बोले, “जब ये और बड़ी हो जाएंगी तब मैं इन्हें बुला लूंगा।” बाद में आशा रानी झांसी रेजिमेंट की बहादुर सिपाही बनी। आशा ने कहा, “मैंने वह हिम्मत अपनी मां सती से पाई, जिसके दम पर मैं अपनी पलटन का नेतृत्व कर सकी।” युद्ध समाप्त होने के बाद सती ने आजाद हिंद फौज के टोक्यो कैडेट की देखभाल करनी शुरू कर दी जो अब सड़क पर आ चुके थे क्योंकि उनको रहने की तब कोई जगह नहीं मिली जब तक ब्रिटिश शासन ने उनको भारत नहीं भेज दिया।

नेताजी की कथित मृत्यु के बाद सती को भारत आने की अनुमति मिली और वह अपनी दोनों बेटियों के साथ आजाद हिंद फौज की वर्दी में टोक्यो से रंगून होते हुए भारत पहुंच गईं। भारत पहुंचने पर सबसे पहले उन्होंने नेता जी के परिवार से मुलाकात की और आजाद हिंद राहत शिविर का दौरा किया। प्रोफेसर कपिल ने लिखा, “भारत आने के बाद बाद सती और उनकी दोनों बेटियां, ए.एम. सहाय के साथ भारत के कई शहरों का दौरा करने निकल पड़ी। इन लोगों ने जगह जगह आज़ादी का संदेश प्रचारित किया। स्वतंत्रता के बाद सती अपने पति के साथ ही रहीं जब सहाय को त्रिनिदाद, मारीशस और थाईलैण्ड में भारत के राजदूत नियुक्त किया गया। वह लगातार इन देशों में भारतीय मूल के लोगों के बीच कार्य करती रहीं।” सती सहाय ने 1976 में बिहार के भागलपुर जिले में स्थित अपने गाँव पुरानी सराय में अपनी आखिरी सांस ली।

ले. आशा भारती सहाय ने उनके बारे में लिखा है- उन्होंने हमें यह सिखाया कि नैतिकता और राष्ट्रीय कर्त्तव्य के साथ कभी समझौता नहीं करना। हमने उन्हें कोबे में ब्रिटिश सत्ता के विरोध में प्रदर्शन के दौरान भारतीय महिलाओं का नेतृत्व करते हुए देखा। हमने यह भी देखा कि अपने परिवार और अपनी मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्यों का उन्होंने किस प्रकार साहस के साथ निर्वहन किया। सहाय अधिकांश समय घर से दूर ही रहते थे, उन्होंने ही हर परिस्थिति का डटकर सामना किया। इसी प्रभाव के बीच हम पले और बढ़े, इससे हमें अपने आगे के जीवन में भी मदद मिली। मैंने 17 साल की आयु में रानी झांसी रेजीमेंट के सदस्य के रूप में एक लेफ्टिनेंट के दायित्व का निर्वहन किया, इरावर्दी तक युद्ध के विध्वंश और खतरों का सामना किया, मृत्यु को धता बताते हुए अपनी पलटन का नेतृत्व किया, इस भयानक वास्तविकता का भी सामना किया कि हम युद्ध हार रहे हैं और हमें बैंकाक वापस जाना पड़ा। यह सती से प्राप्त साहस ही था जिसने मुझे यह क्षमता प्रदान की कि मैं आगे बढ़ते हुए और फिर पीछे हटते हुए अपनी पलटन का नेतृत्व कर सकी।

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