आज विश्व गौरैया दिवस है और गौरैया जैसे छोटे से प्यारे से पक्षी की बात होनी शुरू हो गयी है। बहुत संभव है कि स्वयं को पर्यावरण के प्रति जागरूक, प्रकृति प्रेमी दर्शाने वाले कुछ लोग जो राजनैतिक रूप से बायीं ओर झुकाव रखते हैं, वो आज के दिन बड़े-बड़े भाषण देते नजर आयें। जमीनी स्तर पर उन्होंने भले कुछ न किया हो, लेकिन ऐसे मौकों का प्रयोग वो सरकार को कोसते दिखेंगे। सच्चाई ये है कि इस विचारधारा ने पर्यावरण का जो किया है, उसकी विश्व में कोई सानी नहीं। गौरैया जैसे निरीह, प्यारी सी, चहचहाती चिड़िया से उनकी ये दुश्मनी माओ के दौर में शुरू हुई। माओ को अपने देश चीन में अधिक फसलों की पैदावार चाहिए थी और उसके लिए कृषि उत्पादन को कृषकों के माध्यम से बढ़ाना, एकमात्र विकल्प था। तो चीन के किसानों को कम्युनिस्टों ने सिखाना शुरू किया कि चार परजीवियों की वजह से कृषि का नुकसान हो रहा था। ये चार परजीवी (पेस्ट्स) थे– मक्खियाँ, मच्छर, चूहे और गौरैया।
इस दौर का चीन कई स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहा था और 1940 का दशक जब समाप्त हो रहा था तो टीबी, प्लेग, कॉलरा, पोलियो, मलेरिया और स्मालपॉक्स जैसी बीमारियों से कई जानें जाती थीं। पानी के जरिये फैलने वाले संक्रमणों से चीन पीड़ित था और कॉलरा बिलकुल आम महामारी थी। इससे होने वाली मौतें कितनी अधिक थी इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रति 1000 बच्चे जो जन्मते थे, उनमें से 300 तक की मौत हो जाती थी। ऐसे में संक्रामक बिमारियों को फ़ैलाने वाले जीवों को समाप्त करने की कोशिश करनी थी- मच्छरों को मलेरिया के कारण, चूहे प्लेग के वाहक होने के कारण, मक्खियाँ कई बिमारियों की वाहक होने के कारण और अंतिम गौरैया इसलिए क्योंकि वो फसलों को खाती थीं। इस तरह मलेरिया, टाइफाइड-कॉलरा और प्लेग फैलाने वाले मच्छर, मक्खी और चूहों के साथ गौरैया भी मार दिए जाने योग्य जीवों में शामिल हो गयी। कम्युनिस्टों ने जमकर इन ‘फोर पेस्ट्स’ से होने वाले नुकसान का प्रचार किया और किसानों को इनके खात्मे के लिए उकसाया।

लोगों को गौरैया को मार देने, उनके घोंसले उजाड़ने और खेतों से भागने के लिए ढोल-नगाड़े, कनस्तर इत्यादि बजाकर शोर करना सिखाया गया। लोग थालियाँ-बर्तन आदि पीटकर शोर मचाते जिससे घबराकर गौरैया भागती। उन्हें खदेड़कर तब तक शोर जारी रखा जाता जबतक वो थककर गिरें और मरें नहीं। ऐसा माना जाता है कि इस अभियान में चीन में 100 करोड़ से ऊपर चूहे, करोड़ किलो में मक्खियाँ और मच्छर तो मारे ही गए, साथ ही 100 करोड़ के लगभग गौरैया भी मार डाली गयी। कम्युनिस्टों का चार परजीवियों को मारने का अभियान बहुत सफल अभियान था।
अब बारी आई आफत की! जो 100 करोड़ गौरैया मार गिराई गयी थीं, वो केवल अनाज ही नही खाती थीं, बल्कि वो फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटों को मुख्य रूप से खाती थीं। गौरैया मरी भी तो अकेले नहीं मरी। गौरैया जैसे ही कई छोटे पक्षी और भी थे जो गौरैया के शिकार के अभियान में मारे गए या शोर से मर गए। परिणाम ये हुआ कि फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों की आबादी, विशेषकर टिड्डों की आबादी बेतहाशा बढ़ने लगी।
गौरैया मारने का ये अभियान वाम-कट्टरपंथी माओ ज़ेडोंग ने 1958 में शुरू करवाया था। कीड़ों के बढ़ने से फसलों की उपज कम हुई और अगले तीन वर्षों में जो अकाल आया उससे मौतें होनी शुरू हुईं। चीन के अधिकारिक सूत्र बताते हैं कि केवल डेढ़ करोड़ लोग उस अकाल में मरे थे लेकिन स्वतंत्र विश्लेषक मानते हैं कि 4.5 से 7.8 करोड़ लोग चीन के ‘ग्रेट फैमाइन’ (भीषण अकाल) में मरे। इस अकाल पर एक चीनी पत्रकार येंग जीशेंग ने ‘टोम्बस्टोन’ नाम की किताब लिखी जिसमें उसने कहा कि करीब 3.6 करोड़ लोग मारे जा चुके हैं। जैसा कि होना ही था, किताब वामपंथियों ने तुरंत प्रतिबंधित कर दी। इस घटना को अब पचास से अधिक वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन आज भी वामपंथी चीन में ‘ग्रेट फैमाइन’ पर चर्चा नहीं की जा सकती। गौरैया मारने के नतीजे देखने के बाद माओ ज़ेडोंग ने चार परजीवियों में से गौरैया को हटाकर उसकी जगह खटमल डालने की कोशिश की लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। करोड़ों लोगों की मौत के बीच किसी जन अभियान से गौरया को हटाकर खटमल मारने को कहना कितना मुश्किल रहा होगा, इसका अनुमान लगाना भी कोई कठिन काम नहीं।
असल में प्रकृति और पर्यावरण पर विजय पा लेने की ये सोच ही विकृत है जो अक्सर स्वयं को प्रगतिशील बताने वाली जमातों में आसानी से दिख जाती है। भारत से ऐसी सोच की तुलना करें तो भारत में बिहार जैसे कई राज्य कृषि प्रधान राज्य माने जाते हैं। फसलें हैं तो गौरैया भी होगी और इसी वजह से बिहार का राजकीय पक्षी भी गौरैया है। बिहार में गौरैया के शिकार की वजह थोड़ी सी बदली हुई है। असल में यहाँ एक प्रवासी पक्षी ‘बगेरी’ आते हैं जो कि संरक्षित प्राणियों में आते हैं। बिहार-झारखण्ड में इनके शिकार पर तीन से आठ साल तक की जेल हो सकती है। इसके बाद भी बिहार में जाड़े में बहेलियों से बगेरी खरीदी जाती है। बगेरी पकाने की दस-बीस रेसिपी तो कभी भी इन्टरनेट-यूट्यूब पर मिल जायेगी। आकार और रंग-रूप दोनों में गौरैया बिलकुल बगेरी जैसी लगती है। इसकी वजह से शिकारी कई बार बगेरी खाने के शौकीनों को गौरैया मारकर खिला देते हैं और दाम बगेरी के वसूल लेते हैं। इसके अलावा भी गौरैया के कम होने के कारण हैं।
गौरैया शोर-शराबे से दूर रहना पसंद करने वाले पक्षियों में से है। शहरीकरण जैसे जैसे बढ़ा, वैसे वैसे गाड़ियों की गिनती भी बढ़ी है। आज देश के दस सबसे प्रदूषित शहरों का नाम लें तो उसमें बिहार के कम-से-कम तीन– पटना, गया और मुजफ्फरपुर तो आ ही जाते हैं। इस बीच सहरसा ने भी सबसे प्रदूषित शहरों में से एक होने की अपनी दावेदारी बनाई है। पेड़ लगातार काटे जा रहे हैं जिससे घोंसले बनाने के लिए गौरैया के पास जगह कम होती है। इलाका कब्जाने की मैना जैसे पक्षियों वाली आदत, या शारीरिक आकार भी गौरैया का नहीं होता। आवास, भोजन इत्यादि की कमी भी गौरैया की गिनती को प्रभावित कर रही है। गौरैया दिवस है तो गौरैया की बातें भी होंगी। अपने आस पड़ोस में ये चहचहाता सा पक्षी आपने पिछली बार कब देखा था, एक बार वो भी याद कर लीजिये!