उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में रामनवमी के दिन (6 अप्रैल 2025) को सालार मसूद गाजी की मजार पर भगवा झंडा फहराए जाने की घटना ने एक बार फिर इतिहास के उन पन्नों को चर्चा में ला दिया है, जिन्हें वर्षों तक दबाकर रखा गया। महाराजा सुहेलदेव से जुड़े संगठनों के तीन युवकों ने मजार की छत पर चढ़कर भगवा ध्वज फहराया, जिस पर ‘ॐ’ अंकित था। इस घटना के बाद संगठन ने सालार मसूद की मजार को हटाने की मांग भी की है। उनका कहना है कि सालार मसूद कोई सूफी संत नहीं, बल्कि एक इस्लामी आक्रांता था, जो महमूद गजनवी का भांजा और सेनापति था। उसने सोमनाथ मंदिर समेत कई हिंदू तीर्थों पर हमले किए और व्यापक नरसंहार में शामिल रहा।
बताते चलें कि यह पहला मौका नहीं है जब सालार मसूद गाज़ी का नाम सुर्खियों में आया हो। इससे पहले भी उत्तर प्रदेश के संभल में हर वर्ष लगने वाले नेजा मेले पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद यह नाम चर्चा का विषय बना था। ऐसे में अब जब सालार मसूद और महाराजा सुहेलदेव एक बार फिर सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में हैं, तो यह जानना बेहद जरूरी हो जाता है कि आखिर गाज़ी सालार मसूद था कौन, और उसका महाराजा सुहेलदेव से क्या ऐतिहासिक संबंध रहा? आइए, इसको विस्तार से समझते हैं…..
कौन था गाजी सालार मसूद
सैयद सालार मसूद गाज़ी जिसे आज एक विशेष वर्ग ‘संत’ और ‘पीर’ के रूप में पेश करते हैं असल में भारत की सनातन आत्मा पर किए गए मजहबी हमलों का एक खतरनाक प्रतीक है। उसका जन्म ही रहस्य से भरा है। इतिहासकारों में एकमत नहीं है, लेकिन कई शोधों और दस्तावेज़ों के अनुसार सालार मसूद का जन्म 11वीं सदी में, 1014 ईस्वी के आसपास राजस्थान के अजमेर में हुआ था। उसके पिता अबू सैयद सालार साहू गाज़ी उर्फ ‘बूढ़े बाबा’ अफगानिस्तान से भारत आए थे और अजमेर शरीफ में आकर बस गए थे। कहा जाता है कि मसूद के जन्म के बाद उसकी मां अफगानिस्तान लौट गई, जबकि बूढ़े बाबा अपने बेटे के साथ बाराबंकी के सतरिख में आ बसे, जहाँ उनकी मृत्यु हुई और उन्हें यहीं दफनाया गया।
सैयद सालार मसूद का संबंध महमूद गजनवी से था जो भारत के इतिहास में इस्लामिक हमलों की सबसे क्रूर शुरुआत का प्रतीक है। गजनवी ने 1001 ईस्वी से लेकर 1026 ईस्वी तक भारत पर 17 बार हमले किए। इनमें सबसे भीषण हमला 1026 में गुजरात के सोमनाथ मंदिर पर हुआ, जहाँ उसने अपार संपत्ति लूटी और मंदिर को नष्ट कर दिया। सालार मसूद न सिर्फ उसका भांजा था बल्कि सैन्य अभियानों का सेनापति भी था। The Life and Times of Sultan Mahmud of Ghazna (1930, Cambridge University Press) नामक ऐतिहासिक पुस्तक में इतिहासकार मोहम्मद नाजिम ने बताया है कि सोमनाथ पर गजनवी के सबसे बड़े हमले में सालार मसूद ने अग्रिम पंक्ति से नेतृत्व किया। इस पूरे हमले में सैकड़ों हिंदू मारे गए, मंदिरों को ध्वस्त किया गया और लोगों को जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया गया।
महराजा सुहेलदेव बनाम गाजी
इतिहासकार मौलाना मोहम्मद अली मसऊदी की पुस्तक अनवार-ए-मसऊदी में स्पष्ट रूप से दर्ज है कि सोमनाथ और उसके आसपास के क्षेत्रों पर हमला करने के बाद मसूद ने आगे उत्तर भारत की ओर कूच किया। लगभग 1030 ईस्वी में वह उत्तर प्रदेश के बहराइच पहुँचा, जहाँ उसने स्थानीय राजाओं को चुनौती दी और हिंदू रियासतों पर हमला करना शुरू किया। बहराइच के समीप श्रावस्ती के राजा महाराजा सुहेलदेव ने मसूद को खुली चुनौती दी और समर्पण करने से इनकार कर दिया। उन्होंने अकेले नहीं बल्कि आसपास के 21 राजाओं के साथ एक संयुक्त सेना बनाई और मसूद के विरुद्ध निर्णायक युद्ध लड़ा।
इस युद्ध में महाराजा सुहेलदेव की अगुवाई वाली हिंदू सेना ने सैयद सालार मसूद गाजी को धूल चटा दी। इस युद्ध में मसूद मारा गया। उसके सैनिकों ने उसकी लाश को वहीं बहराइच में दफना दिया, जहाँ आज उसकी तथाकथित दरगाह बनी हुई है। 1246 से 1266 ईस्वी तक दिल्ली सल्तनत के सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद ने इस कब्र पर मजार बनवा दी। इसके बाद दिल्ली के सुल्तानों का वहाँ आना-जाना शुरू हुआ और फिर आम मुस्लिमों का भी। धीरे-धीरे वहाँ मत्था टेकने और उर्स मनाने की परंपरा शुरू हो गई, और एक मजहबी आक्रांता को ‘पीर’ और ‘गाज़ी’ की उपाधि से नवाजा गया।
इतना ही नहीं, आज भी भारत के कई हिस्सों में उस आततायी के नाम पर मेलों और उर्स का आयोजन होता है। मेरठ का नौचंदी मेला, अमरोहा के पुरनपुर का नेजा मेला, संभल और थमला के उर्स, ये सभी मसूद के नाम पर हैं। बताते चलें कि ‘गाज़ी’ की उपाधि उसी को दी जाती है जो इस्लाम के लिए ‘काफ़िरों’ से लड़ते हुए मारा जाए। यानी मसूद को यह उपाधि इसलिए दी गई क्योंकि उसने भारत के मूल निवासी हिंदुओं पर मजहबी युद्ध छेड़ा और हजारों निर्दोषों की हत्या की।
13वीं सदी में अफ्रीकी यात्री इब्न बतूता ने भी अपने यात्रा वृतांत में बहराइच की इस मजार का उल्लेख किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सैयद सालार मसूद जैसे आतंकी का गौरवगान सदियों से कुछ मजहबी और राजनीतिक ताकतों द्वारा किया जाता रहा है, जो भारत के ऐतिहासिक सत्य को झुठलाने की कोशिश रही है। आज जब देश में औरंगज़ेब जैसे क्रूर शासक की कब्र को हटाने की मांग उठ रही है, ठीक उसी समय गाज़ी सालार मसूद की मजार को भी उसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। यह कोई धार्मिक स्थान नहीं, बल्कि उस आततायी का स्मारक है जिसने भारत की मिट्टी को रक्तरंजित किया था।
संभल में उर्स पर लगी थी रोक
संभल में महमूद गजनवी के सेनापति सालार मसूद गाज़ी की याद में हर साल आयोजित होने वाले नेजा मेले को लेकर इस बार विवाद गहराता नजर आया था। 18 मार्च को मेला प्रारंभ करने और 25 से 27 मार्च तक इसके आयोजन की योजना बनाई गई थी। परंतु जब इस आयोजन की अनुमति के लिए कुछ लोग अपर पुलिस अधीक्षक (ASP) से मिलने पहुँचे, तो उन्हें ASP श्रीश चंद्र दीक्षित ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि किसी विदेशी लुटेरे और आक्रांता की याद में मेला आयोजित करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
ASP श्रीश चंद्र दीक्षित ने साफ कहा, “इतिहास साक्षी है कि सालार मसूद महमूद गजनवी का सेनापति था, जिसने सोमनाथ मंदिर को लूटा और इस देश पर घोर अत्याचार किए। ऐसे किसी लुटेरे की याद में मेला आयोजित करना न केवल अनुचित है बल्कि एक अपराध है।” उन्होंने आगे कहा, “अगर आप अब तक ऐसा करते आ रहे थे तो यह एक सामाजिक कुरीति थी, और यदि आप इसे अज्ञानता में करते थे तो क्षमा योग्य है, लेकिन अगर जानबूझकर कर रहे हैं तो यह देशद्रोह है। इस देश के प्रति अपराध करने वाले लुटेरे की स्मृति में कोई नेजा नहीं गड़ेगा। अगर ऐसा कोई झंडा गड़ा तो उसे देशद्रोह माना जाएगा और कठोर कार्रवाई की जाएगी।”
सूर्य मंदिर के जगह बनवाई गई गाजी की दरगाह
इतिहासकार एना सुवोरोवा ने तो गाजी मियाँ कहलाने वाले सालार मसूद गाजी की तुलना भगवान श्रीकृष्ण और भगवान श्रीराम तक से कर दी है। साथ ही यह भी कहा कि हिन्दू उन्हें इसी रूप में देखते थे।
सुवोरोवा अपनी किताब Muslim Saints of South Asia में लिखते हैं, “स्पष्ट है कि कई कारणों ने सालार मसूद की मज़ार को ‘सांप्रदायिक समन्वय वाले तीर्थ’ में बदलने में भूमिका निभाई। पहला, संत की मज़ार उस स्थान पर स्थापित की गई जहाँ पहले सूर्य मंदिर हुआ करता था, और यह एक पवित्र सरोवर के किनारे स्थित था कुल मिलाकर यह परंपरा द्वारा पहले से ही पावन स्थान था। यहाँ ऐतिहासिक स्थलाकृति स्वयं समन्वय का स्रोत बन गई। दूसरा, संत की छवि की स्थानीय देवताओं संभवतः राम और कृष्ण से पारस्परिक पहचान हो गई। इस मामले में संत के जीवन के गौण पक्षों (जैसे उनकी कम आयु, विवाह की कथा) पर ज़ोर दिया गया, जबकि मुख्य ऐतिहासिक तथ्य (सैन्य उपलब्धियाँ, धर्म प्रचार की गतिविधियाँ) को पृष्ठभूमि में डाल दिया गया। दूसरे शब्दों में, गाज़ी मियाँ की वंदना दो परंपराओं के संश्लेषण और पारस्परिक पहचान का परिणाम है, जिसकी प्रक्रिया में मुस्लिम ज़ियारत आधार बनी और हिंदू तीर्थ यात्रा की परंपरा ने उसकी गूंज को व्यापकता प्रदान की।”