जयंती विशेष: जिस कांग्रेस के खिलाफ लड़ा चुनाव, उसी के समर्थन से प्रधानमंत्री बने चंद्रशेखर; फिर मिला धोखा…

चंद्रशेखर की बाग़ी राजनीति

PM Chandrashekhar

PM Chandrashekhar (Image Source: X)

आज ही के दिन, 17 अप्रैल 1927 को, उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के इब्राहिमपट्टी गांव की पवित्र माटी ने एक ऐसा पुत्र जनमा, जिसने भारतीय राजनीति में युवा तुर्क के नाम से अपनी अलग पहचान बनाई वो थे देश के आठवें प्रधानमंत्री चंद्रशेखर। करीब पचास साल तक सक्रिय राजनीति में रहने वाले चंद्रशेखर का सफर संघर्षों, सिद्धांतों और सच्चाई की मिसाल रहा।

‘युवा तुर्क’ कहे जाने वाले चंद्रशेखर के तेवर हमेशा बागी रहे। सच बोलने से वे कभी नहीं डरे चाहे बात विपक्ष की हो या अपनी ही पार्टी के नेताओं की। उनकी आवाज में वो ताकत थी जो विरोधियों को भी सोचने पर मजबूर कर देती थी। पूर्वांचल के लोगों के बारे में कहा भी जाता है उनके खून में लोहा बहता है। वो जितने स्वाभिमानी होते हैं, उतने ही जिद्दी और गुस्सैल भी। चंद्रशेखर इसी मिट्टी के बेटे थे ज़मीन से जुड़े हुए, लेकिन आसमान सा हौसला रखने वाले। आज उनकी जयंती पर याद करना ज़रूरी है कि कैसे उन्होंने कांग्रेस पार्टी में रहते हुए इंदिरा गांधी की नीतियों का मुखर विरोध किया और भारतीय राजनीति में अपनी जगह बनाई। बाद में वही कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी तक ले गई। लेकिन सत्ता उनके लिए कभी प्राथमिकता नहीं रही। जब उन्होंने देखा कि राजीव गांधी की सरकार में नैतिकता से समझौता हो रहा है, तो उन्होंने महज तीन महीने और 24 दिनों में ही समर्थन वापस लेकर अपने सिद्धांतों को ज़िंदा रखा। इस लेख के माध्यम से हमने प्रयास किया है कि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जयंती पर उनके इसी बेबाकी रवैया को आपके सामने रखा जाए।

इंदिरा गांधी का विरोध

चंद्रशेखर का राजनीति के प्रति रुचि और समाज के लिए काम करने की जिज्ञासा उनके गांव की मिट्टी में रची-बसी थी। कॉलेज की पढ़ाई के बाद, 1951 में चंद्रशेखर ने सोशलिस्ट पार्टी से जुड़कर अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत की, लेकिन जल्द ही उन्हें पार्टी में टूट और दरार का सामना करना पड़ा। इस स्थिति में उन्होंने कांग्रेस पार्टी में जाने का फैसला किया, लेकिन यह जुड़ाव अस्थायी था।

1971 में, जब इंदिरा गांधी पर विरोध की लहर उठ रही थी, चंद्रशेखर ने कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यसमिति का चुनाव लड़ा और यहाँ भी उनकी जीत ने साबित कर दिया कि वे सिर्फ एक नेता नहीं थे, बल्कि देश की राजनीति में एक नई दिशा की तलाश कर रहे थे। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल (Emergency) लागू किया, तो चंद्रशेखर ने कांग्रेस से अलग हो कर अपनी आवाज़ बुलंद की। यह एक अहम मोड़ था उनके जीवन का, क्योंकि अब वे सिर्फ एक विपक्षी नहीं, बल्कि इंदिरा गांधी की सत्ता के मुखर आलोचक बन गए थे।

चंद्रशेखर के लिए यह कभी भी सिर्फ सत्ता का खेल नहीं था। उन्होंने इंदिरा गांधी द्वारा लागू किए गए आपातकाल का हर जगह, हर मंच पर विरोध किया चाहे वह संसद हो या सड़कें। उनके विरोध ने न सिर्फ इंदिरा गांधी की तानाशाही को चुनौती दी, बल्कि यह एक जागरूक और संजीदा नेता की तस्वीर पेश की। और जब इंदिरा गांधी ने स्वर्ण मंदिर पर सैन्य कार्रवाई का आदेश दिया, चंद्रशेखर ने उस फैसले का भी कड़ा विरोध किया।

कांग्रेस ने वापस ले लिया था समर्थन

1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई, तो देश गहरे शोक में डूबा था। ऐसे माहौल में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत के साथ 400 से भी ज्यादा सीटें जीत लीं और सत्ता पर मजबूती से काबिज हो गई। लेकिन सियासत में स्थायित्व एक भ्रम से ज़्यादा कुछ नहीं होता। 1989 आते-आते तस्वीर बदलने लगी। बोफोर्स घोटाले की गूंज ने कांग्रेस की छवि को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया। नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस बहुमत से चूक गई, और जनता दल की सरकार बनी, जिसमें वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बने। इस सरकार को भाजपा और वामदलों दोनों का समर्थन हासिल था।

मगर देश की राजनीति अब एक और बड़े मोड़ पर खड़ी थी राम जन्मभूमि आंदोलन अपने चरम पर था। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा शुरू की, जिसे बिहार में जनता दल के ही मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने रोक दिया और उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। इससे नाराज़ होकर भाजपा ने सरकार से समर्थन वापिस ले लिया और वी.पी. सिंह की सरकार गिर गई।

इसके बाद हुआ कुछ ऐसा, जिसकी शायद किसी को उम्मीद नहीं थी। उसी पार्टी के चंद्रशेखर, जो शुरुआत से सत्ता के लिए नहीं बल्कि सिद्धांतों के लिए जाने जाते थे, उन्होंने 64 सांसदों के साथ जनता दल से अलग होकर ‘समाजवादी जनता पार्टी’ बनाई। और फिर इतिहास ने करवट ली जिस कांग्रेस का वो कभी मुखर विरोध करते थे, उसी के समर्थन से चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री बने।

चंद्रशेखर की आत्मकथा ‘जिंदगी का कारवा’ में उन्होंने लिखा है, “एक दिन अचानक आरके धवन ने मुझसे आकर कहा कि राजीव गांधी आपसे मिलना चाहते हैं. जब मैं धवन के यहां गया तो वहां राजीव गांधी भी पहुंचे थे। इस दौरान राजीव गांधी ने बातचीत में मुझसे पूछा कि क्या आप सरकार बनाना चाहेंगे।  इसपर मैंने राजीव गांधी से कहा कि सरकार बनाने के लिए मेरे पास पर्याप्त सांसदों की संख्या नहीं है। इस कारण सरकार बनाने का मेरा कोई अधिकार नहीं है ।  इसपर राजीव गांधी ने मुझे कहा कि आप सरकार बनाएं हम आपको बाहर से समर्थन देंगे।” लेकिन राजनीति में समर्थन जितनी जल्दी मिलता है, उससे भी तेजी से छिन भी जाता है। सिर्फ तीन महीने और 24 दिन बीते थे कि कांग्रेस ने उन पर राजीव गांधी की जासूसी करवाने का आरोप लगाकर समर्थन वापिस ले लिया। अब चंद्रशेखर अल्पमत में आ चुके थे, और 6 मार्च 1991 को उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

 

4260 किलोमीटर की पदयात्रा

आज के दौर में जहां ज़्यादातर नेता हवाई दौरों और भाषणों तक सीमित रहते हैं, चंद्रशेखर ने 1983 में जो किया, वो भारतीय राजनीति के इतिहास में एक मिसाल बन गया। 6 जनवरी 1983 को दक्षिण भारत के कन्याकुमारी से चलकर उन्होंने 25 जून 1983 को दिल्ली के राजघाट तक लगभग 4,260 किलोमीटर की पदयात्रा पूरी की। यह कोई प्रचार यात्रा नहीं थी, यह थी एक जननायक की तपस्या लोगों से मिलने, उनके दुख-दर्द सुनने और असली भारत को महसूस करने का एक सच्चा प्रयास।

यह पदयात्रा सिर्फ़ एक प्रतीक नहीं थी, बल्कि राजनीति को जनता से जोड़ने की गंभीर कोशिश थी। चंद्रशेखर का मानना था कि नेताओं को सत्ताकक्षों से बाहर निकलकर गांव-गलियों में जाना चाहिए, तभी देश के असली मुद्दों को समझा जा सकता है। उन्होंने सिर्फ़ इतना ही नहीं किया इस यात्रा के बाद उन्होंने केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश और हरियाणा सहित देश के कई हिस्सों में लगभग 15 भारत यात्रा केंद्रों की स्थापना की। इन केंद्रों का उद्देश्य था: जमीनी स्तर पर सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करना, ताकि वे देश के पिछड़े इलाकों में लोगों को शिक्षित कर सकें और बदलाव का आधार बन सकें।

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