मनुस्मृति: मौजूदा संवैधानिक अधिकार और हज़ारों वर्ष पहले महिलाओं की स्थिति

मनुस्मृति का निर्माण हिंदू संस्कृति की अत्यधिक प्रगति का संकेत माना जाता है

मनुस्मृति का निर्माण हिंदू संस्कृति की अत्यधिक प्रगति का संकेत माना जाता है। गैरोला नेश्रुतिऔरस्मृतिको व्यापक रूप से समानार्थी शब्द बताया है। हालांकि भारतीय सनातन परंपरा में श्रुति और स्मृति में भेद माना जाता है। हिंदू संस्कृति में, ‘श्रुतिका अर्थ वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद से है, जबकिस्मृतिशब्द शड्वेदांग, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि को संदर्भित करता है। स्मृति ग्रंथ के चार प्रमुख भाग और विषय माने जाते हैं। पहला भागआचरणसे संबंधित है, दूसरा ‘व्यवहार’ से, तीसरा ‘प्रायश्चित’ से और चौथा ‘कर्म’ से संबन्धित है।

                  आचार्यमनुद्वारा निर्मित नियमों को संकलित करने वाली पुस्तक कोमनुस्मृतिकहा जाता है। हिंदू शास्त्रों में, इस मनुस्मृति का विशेष महत्व वेदों के बाद दर्शाया गया है। कहा जाता है कि प्राचीन हिंदू सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह से इस ग्रंथ पर आधारित थी (सिंह, 2007)। स्मिथ ने उल्लेख किया है कि हिंदू जीवन पद्धति के अनुसार मनुस्मृति की रचना 200 ईसा पूर्व मानी जाती है। विलियम जोन्स ने मनुस्मृति की तिथि 1250 ईसा पूर्व बताई, जबकि श्लेगल ने इसे 1000 ईसा पूर्व का माना। मोनियर विलियम्स ने मनुस्मृति की समयावधि 500 ईसा पूर्व मानी, जबकि वीवर ने महाभारत के बाद के समय को मनुस्मृति की रचना का समय बताया (बेरी, 1971)। राधाकृष्णन ने मनुस्मृति को महाभारत और पुराणों के समान एक ग्रंथ माना। उन्होंने मनुस्मृति की व्याख्या कानून और धर्म के बीच एक सेतु के रूप में की। मनुस्मृति को आगे समझाते हुए उन्होंने कहा कि यह मूल रूप से एक शास्त्र और नैतिक नियमों का संकलन है।

                    जीवन की व्याख्या के अनुसार, ‘मनुस्मृतिको मनु के समय की सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के संविधान के रूप में है। मनुस्मृति तत्कालीन सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए नियमों का संदर्भ प्रस्तुत करती है। इसमें धार्मिक विश्वासों, अनुष्ठानों, विधियों, सामाजिक श्रम विभाजन, श्रम विभाजन के नियमों आदि के विभिन्न पहलुओं का उल्लेख मिलता है।

मनुस्मृति और महिलाएँ

मनुस्मृति में महिलाओं से संबन्धित अनेकों श्लोक हैं। भारतीय संस्कृति की यह समृद्ध परंपरा है कि वेदों से लेकर उपनिषद, महाकाव्य और धर्मशास्त्र इत्यादि सभी में महिलाओं के सम्मान और उनकी प्रतिष्ठा को लेकर काफी सकारात्मक दृष्टि रही है। मनुस्मृति के तीसरे अध्याय का 56वां श्लोक जो काफी लोकप्रिय है

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः,
यत्रैतास्तु पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला क्रियाः।
(मनुस्मृति, 3.56)

– जहाँ महिलाओं का सम्मान किया जाता है, वहाँ देवताओं का वास होता है, जहाँ उनका अनादर होता है, वहाँ सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं। यह श्लोक निर्धारित करता है कि मनुस्मृति में महिलाओं को लेकर काफी सकारात्मक और श्रद्धापूर्ण भावना है। वस्तुत: मनुस्मृति में आज से हजारों वर्ष पूर्व जिस प्रकार की विराट दृष्टि प्रदर्शित की गयी थी उसका वास्तविक प्रदर्शन तभी हो सकता है जब वर्तमान में भारतीय संविधान और समाज में महिलाओं को प्रदत्त अधिकारों की चर्चा की जाए।

वर्तमान में महिलाओं की स्थिति और उनके अधिकारों को निम्न दृष्टि से से देखा जा सकता है

1. कानूनी अधिकार

भारतीय संविधान और विभिन्न कानून महिलाओं को विशेष अधिकार और सुरक्षा प्रदान करते हैं। संवैधानिक अधिकारों के तहत, अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार की गारंटी देता है, जिससे महिलाओं को पुरुषों के समान कानूनी और सामाजिक अवसर प्राप्त होते हैं। अनुच्छेद 15(3) राज्य को महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिए विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति देता है, जिससे उनके सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ावा मिलता है। अनुच्छेद 16 रोज़गार में समान अवसर प्रदान करता है, जिससे महिलाओं को कार्यस्थल पर भेदभाव से बचाया जाता है। इसके अलावा, अनुच्छेद 39(d) समान कार्य के लिए समान वेतन सुनिश्चित करता है, जिससे पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन असमानता को समाप्त करने में सहायता मिलती है। वहीं, अनुच्छेद 42 कामकाजी महिलाओं के लिए प्रसूति लाभ और अनुकूल कार्य परिस्थितियों का प्रावधान करता है, जिससे मातृत्व के दौरान उन्हें आवश्यक सहायता और सुरक्षा मिलती है। इन संवैधानिक प्रावधानों का उद्देश्य महिलाओं को सशक्त बनाना और समाज में उनकी समान भागीदारी सुनिश्चित करना है।  Austin, Granville अपनी पुस्तक The Indian Constitution: Cornerstone of a Nation में इस विषय में लिखते हैं, “भारतीय संविधान में निहित समानता का अधिकार महिलाओं के कानूनी और सामाजिक सशक्तिकरण का आधार है, लेकिन इसकी व्यावहारिकता सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन पर निर्भर करती है।

2. सामाजिक अधिकार

महिलाओं को सामाजिक रूप से समानता और गरिमा के साथ जीने का अधिकार प्राप्त है, जो उनके समग्र विकास और आत्मनिर्भरता के लिए आवश्यक है। शिक्षा का अधिकार (RTE Act, 2009) महिलाओं को अनिवार्य और निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने की गारंटी देता है, जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें और समाज में समान भागीदारी कर सकें। विवाह और तलाक के संदर्भ में, हिंदू विवाह अधिनियम और मुस्लिम पर्सनल लॉ जैसे विभिन्न कानूनी प्रावधान महिलाओं को विवाह, तलाक, भरणपोषण और संपत्ति में उनके अधिकार सुनिश्चित करते हैं। इसके अतिरिक्त, मातृत्व और पारिवारिक अधिकार महिलाओं को मातृत्व अवकाश, शिशु देखभाल और परिवार के भीतर सम्मानजनक स्थान प्रदान करते हैं, जिससे वे व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन के बीच संतुलन बना सकें। इन सामाजिक अधिकारों का उद्देश्य महिलाओं को सशक्त बनाना और उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाना है। Agnes, Flavia अपनी पुस्तक Law and Gender Inequality: The Politics of Women’s Rights in India में लिखते हैं किमहिलाओं के आर्थिक अधिकारों का विस्तार केवल कानूनी सुधारों तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि इसमें संरचनात्मक सामाजिक परिवर्तनों की भी आवश्यकता होती है।

3. राजनीतिक अधिकार

महिलाओं को राजनीति में सक्रिय भागीदारी के लिए विशेष प्रोत्साहन दिया गया है, जिससे वे नीतिनिर्माण प्रक्रियाओं में प्रभावी भूमिका निभा सकें। 73वां और 74वां संविधान संशोधन (1992) पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण सुनिश्चित करता है, जिससे ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में उनकी भागीदारी बढ़ी है। इस प्रावधान ने महिलाओं को जमीनी स्तर पर शासन में शामिल होने का अवसर दिया और समाज में उनकी नेतृत्व क्षमता को विकसित किया। इसके अलावा, संसद और विधानसभा में महिलाओं के लिए आरक्षण को लेकर नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 2023 पारित किया गया, जो उनके राजनीतिक सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस विधेयक के माध्यम से राष्ट्रीय और राज्य स्तर की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित किया गया है, जिससे नीतिनिर्माण में उनकी आवाज को सशक्त किया जा सके। इन राजनीतिक अधिकारों का उद्देश्य महिलाओं को नेतृत्व की मुख्यधारा में लाना और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनकी प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करना है। Duflo Esther अपने शोध पत्र “Women Empowerment and Economic Development में उल्लेख करते हैं किराजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए नीतिगत आरक्षण आवश्यक है, लेकिन यह सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण है कि वे प्रभावी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में शामिल हों।

4. आर्थिक अधिकार

महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए विभिन्न अधिकार और नीतियाँ लागू की गई हैं, जो उन्हें आत्मनिर्भरता और वित्तीय स्वतंत्रता प्रदान करती हैं। संपत्ति और विरासत के अधिकार के तहत, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 और अन्य संबंधित कानून महिलाओं को पैतृक संपत्ति में समान अधिकार देते हैं, जिससे वे आर्थिक रूप से सशक्त हो सकें। समान वेतन और रोजगार के अवसर सुनिश्चित करने के लिए संविधान और श्रम कानूनों के माध्यम से महिलाओं को पुरुषों के समान वेतन और कार्य के अवसर प्रदान किए गए हैं, जिससे कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव को कम किया जा सके। इसके अलावा, महिला उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने स्टार्टअप इंडिया, मुद्रा योजना और महिला स्वयं सहायता समूहों जैसी कई योजनाएँ शुरू की हैं, जो महिलाओं को वित्तीय सहायता और व्यवसायिक प्रशिक्षण प्रदान करती हैं। इन आर्थिक अधिकारों का उद्देश्य महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाना और उन्हें समाज में एक मजबूत आर्थिक भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित करना है।

5. सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकार

भारतीय संविधान महिलाओं को सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकार प्रदान करता है, जिससे वे अपनी आस्था, परंपराओं और सांस्कृतिक गतिविधियों में स्वतंत्र रूप से भाग ले सकें। संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत प्रत्येक व्यक्ति को धर्म की स्वतंत्रता प्राप्त है, जिससे महिलाएँ अपनी धार्मिक मान्यताओं का पालन करने और प्रचार करने के लिए स्वतंत्र होती हैं। इसके अलावा, अनुच्छेद 29 और 30 सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की रक्षा करते हैं, जिससे महिलाएँ अपनी संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित और प्रचारित कर सकती हैं। महिलाओं के व्यक्तिगत कानूनों में सुधार करते हुए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (संशोधित 2005) के माध्यम से बेटियों को पैतृक संपत्ति में समान अधिकार प्रदान किया गया, वहीं मुस्लिम महिलाओं (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के तहत तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया गया, जिससे मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकारों की रक्षा मिली। इसके अतिरिक्त, महिलाएँ भारतीय संस्कृति की विभिन्न विधाओं, जैसे कि संगीत, नृत्य, चित्रकला, और अन्य कलाओं में स्वतंत्र रूप से भाग ले सकती हैं। पारंपरिक त्योहारों और धार्मिक आयोजनों में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे वे सांस्कृतिक रूप से सशक्त हो सकें। भारतीय संविधान महिलाओं के सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कानूनी समर्थन प्रदान करता है, लेकिन सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ने के लिए लगातार संवैधानिक सुधार और सामाजिक जागरूकता की आवश्यकता बनी हुई है।

इस प्रकार इन बिंदुओं के अंतर्गत वर्तमान में महिलाओं की कानूनी स्थितियों का ज्ञान होता है। क्रमश: …

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