पहलगाम में हुए आतंकी हमले में मारे गए लोगों के शव उनके घर पहुँच चुके हैं। उनके अंतिम संस्कार की हृदयविदारक तस्वीरें पूरे देश को आक्रोशित और उद्वेलित कर रही हैं। कानपुर के शुभम द्विवेदी की पत्नी ऐशन्या हों, या फिर इंदौर के सुशील की पत्नी जेनिफर, वो चीख चीख कर बता रही हैं कि किस तरह आतंकियों ने पहले उनका धर्म पूछा, कलमा पढ़ने को कहा और जब वो नहीं पढ़ सके तो प्वाइंट ब्लैक रेंज से उन्हें गोली मार दी गई। ये बयान स्पष्ट रूप से बताते हैं कि पहलगाम में हुआ हमला सिर्फ आतंकी हमला नहीं, बल्कि धर्म के आधार पर हुआ एक नरसंहार है, जहां आतंकियों ने हिंदुओं (काफिरों) को चुन-चुन कर मौत के घाट उतार दिया।
सोशल मीडिया पर वायरल इन बयानों को देखकर लोग पूछ रहे हैं कि क्या अपने ही देश में घूमने के लिए, कारोबार करने या फिर जिन्दा रहने के लिए उन्हें कलमा पढ़ना सीखना पड़ेगा, या फिर सुरक्षा के नज़रिए से खतना करवाना ज्यादा ठीक रहेगा? इस नरसंहार के बाद ये प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक भी हैं और शुक्र है कि ये प्रतिक्रियाएं अभी सोशल मीडिया तक ही हैं। लेकिन इससे सबसे ज्यादा परेशानी उस ‘सिकुलर’ जमात को हो रही है, जो हर आतंकी हमले के बाद एक पहले से ही तैयार नोट जारी कर देती है- ‘आतंक का कोई धर्म नहीं होता’। लेकिन पहलगाम नरसंहार ने स्पष्ट कर दिया कि आतंक का मज़हब तो ज़रूर है।
अगर नहीं होता तो आतंकी लोगों को मारने से पहले कलमा नहीं पढ़वा रहे होते या फिर पीड़ितों की पैंट उतार कर नहीं देख रहे होते। इतनी स्पष्टता के बावजूद ‘सिकुलर’ रोग से ग्रस्त एक बड़ी जमात पूरी थेथरई के साथ ये समझाने में जुटी है कि भला आतंक का मजहब से क्या वास्ता? अब अगर इस सिकुलर जमात को ‘मज़हब’ के साथ आतंक का टैग चस्पा होने से इतनी ही दिक़्क़त है तो वो बात-बात पर फतवा जारी करने वाले मुस्लिम विद्वानों या दारुल उलूम जैसी इस्लामिक संस्थाओं से ये अपील क्यों नहीं करते कि वो चुन चुन कर हिंदुओं की हत्या करने वाले इन आतंकियों को इस्लाम से ख़ारिज कर दें? क्या ये ऐलान होगा कि जब ये आतंकी जहन्नुम में पहुंचा दिए जाएं (जो कि जल्द ही होगा) तब कोई भी मौलवी इनके लिए नमाज़ ए जनाज़ा न पढ़े और न ही इनकी कब्र को मिट्टी दी जाए?
पीड़ितों और मारे गए लोगों के परिजनों की आपबीती सुनने के बाद ‘आतंक का कोई मजहब नहीं होता’ वाले अभियान से सिवाय गुस्सा भड़कने के और कुछ हासिल नहीं होगा। ऐसे में जरूरी है कि इसकी जगह आतंक को ही मज़हब से बाहर का रास्ता दिखाया जाए। इसके लिए पहले सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया भर के तमाम इस्लामिक देशों की शीर्ष धार्मिक संस्थाओं और इस्लामिक विद्वानों को एक साथ आकर सभी आतंकी संगठनों उनके कमांडरों और आतंकियों के नाम फतवा जारी कर उन्हें इस्लाम से बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए। लगे हाथ ‘काफिरों’ को वाजिबुल कत्ल (मारे जाने योग्य) ठहराने वाली आतंकी थ्योरी को भी ग़ैर इस्लामिक करार दे देना चाहिए। ताकि ‘पवित्र पुस्तक’ और इस्लामी शिक्षाओं की आड़ में ऐसे पैशाचिक कृत्य करने वालों की ये ग़लतफहमी भी दूर की जा सके कि ऐसा करके वो ग़ाज़ी या शहीद कहलाएंगे। या फिर उन्हें जन्नत में 72 हूरों और अनलिमिटेड शराब का सुख मिलेगा।
ज़ाहिर है ज़्यादातर आतंकी इसी जन्नत-उल-फिरदौस के ख़्वाब दिखाकर ब्रेनवॉश किए गए होते हैं। ऐसे में अगर उन्हें ये बता दिया जाए कि जिस किस्म के जिहाद के ज़रिए वो हूरों के आग़ोश में समाने के ख़्वाब देख रहे हैं, उससे उन्हें जन्नत नहीं बल्कि जहन्नुम में गर्म तेल की कड़ाही नसीब होगी। आज, विशेषकर पहलगाम के इस हिंदू नरसंहार के बाद जिस तरह की स्थितियां और आक्रोश पैदा हुआ है वो कही न कहीं इस्लामिक नेताओं और शीर्ष संस्थाओं के लिए एक बड़ा अवसर भी है, जिसका इस्तेमाल कर उन्हें तमाम आतंकी संगठनों को इस्लाम विरोधी ठहराते हुए उनके ख़िलाफ़ नबी की शान में गुस्ताखी का फतवा भी जारी करना चाहिए। वैसे भी अधिकांश आतंकी संगठन ‘अल्लाह के रसूल’ या पवित्र इस्लामी परंपराओं का नाम रखते हैं और इसकी आड़ में मानवता के विरुद्ध अपराध करते हैं।फिर चाहे वो ‘लश्कर ए तैयबा’ (इस्लाम की धर्म सेना) हो, जैश ए मोहम्मद (पैग़म्बर मोहम्मद की सेना) हो, या फिर हिज्बउल मुजाहिदीन (पवित्र लड़ाकों की सेना)। दुनिया के सबसे दुर्दांत और पैशाचिक आतंकी संगठन ISIS ने तो अपने झंडे में ही इस्लाम का पहला कलमा (शाहदा) लिख रखा है। इसके अतिरिक्त गोल घेरे में पैग़म्बर का नाम का नाम भी साफ़ साफ़ लिखा गया है।
इसी झंडे के नीचे इस आतंकी संगठन ने न जाने कितने लोगों (काफिरों) का सिर कलम किया है। न जानें कितने बेगुनाहों का ख़ून बहाया है। अल्लाह और अल्लाह के रसूल के अपमान का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है? अगर क़ुरान की आयत लिखा कुर्ता तक पहनने पर, पैग़म्बर साहब का चित्र बनाने पर या ‘द सैटेनिक वर्सेस’ जैसी किताबें लिखने को ब्लॉसफेमी माना जा सकता है। उनके ख़िलाफ़ फतवा जारी किया जा सकता है। उनकी मॉब लिंचिंग, हत्याएं तक की जा सकती हैं, तो फिर पैग़म्बर के नाम पर नरसंहार करने वालों, क़ुरान की पवित्र आयतों की ग़लत व्याख्या कर ब्रेनवॉश करने वालों के ख़िलाफ़ ईशनिंदा का फतवा क्यों जारी नहीं होना चाहिए? उनके सिर पर ईनाम क्यों नहीं रखा जाना चाहिए?
कई निर्दोष लोगों की मौत के बाद ही सही आज इन इस्लामिक स्कॉलर्स के पास मौका है कि वो इन आतंकी संगठनों के ख़िलाफ़ फतवे जारी करें और इस्लाम के अनुयायियों को बताएं कि ऐसी कोई आयत या हदीस नहीं, जो दीन के नाम पर ग़ैर मुस्लिमों का कत्ल को, उनके बलात कन्वर्जन को जायज़ और ग़ज़वा-ए-हिंद को उनका सच्चा मकसद बताती हो। यकीन मानिए ये उनका ये कदम न सिर्फ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को पाटने में, बल्कि इस्लाम की बेहतरी के लिए भी बेहद कारगर सिद्ध होगा। तब इस देश का आम मुसलमान भी दावे से कह सकेगा कि ‘आतंक का कोई मज़हब’ नहीं होता। लेकिन प्रश्न ये है कि वक्फ, CAA और यहां तक कि किसान आंदोलन के लिए भी सड़कों पर उतरने का आह्वान करने वाली इस्लामिक संस्थाएं और विद्वान ऐसा कोई कदम उठा सकेंगे? वो भी तब जबकि उनके मज़हब को, मुसलमानों को और इस देश को इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है।