Balmukund Balidan Diwas: 1889 में पाकिस्तान के जेहलम जिले के करियाला गांव में जन्मे बालमुकुंद कोई साधारण इंसान नहीं थे। उनके खानदान की रगों में सिद्धांतों के लिए मर मिटने की आग धधकती थी। गुरु नानक के शांतिप्रिय अनुयायी से लेकर तलवार उठाने वाले योद्धाओं तक उनके कुल ने इतिहास के पन्नों पर अमिट छाप छोड़ी। इसी गौरवशाली परंपरा में जन्मे बालमुकुंद ने न केवल अंग्रेजी हुकूमत को ललकारा, बल्कि अपनी जान की बाजी लगाकर स्वतंत्रता संग्राम को नई ताकत दी। चांदनी चौक के बम कांड से लेकर फांसी के फंदे तक, उनकी कहानी साहस, समर्पण और प्यार की दास्तान है। आइए जानते हैं उस वीर क्रांतिकारी की अनसुनी गाथा जिसने आजादी की राह में सब कुछ कुर्बान कर दिया।
गौरवशाली कुल में बालमुकुंद का जन्म हुआ। उनके चार भाई जयरामदास, शिवराम, कृपाराम और रामभज तथा एक बहन द्रौपदी देवी थीं। बालमुकुंद ने लाहौर के डीएवी कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की और शिक्षक बनने के लिए बीटी की परीक्षा पास की जिसमें वे 1910 में तीसरे स्थान पर रहे। धीरे-धीरे वो अपने गांव के पास रहने वाले साधु के प्रभावित हो गए। और यहीं से क्रांतिकारी जीवन की ओर बढ़ गए।
महराज के प्रभाव से शुरू हुआ क्रांति का सफर
बालमुकुंद के गांव के पास बनह्वा नाला हुआ करता था। ये अक्सर बारिस के समय नदी बन जाता था। इस नाले के किनारे तपसीराम साधु रहते थे। तपसीराम एक जमींदार परिवार से थे और गांव में झगड़ों का समाधान करते थे। इस कारण उन्हें’महाराज’ के नाम से जाना जाता था। वे अंग्रेजी शासन के खिलाफ थे और एक अखाड़ा चलाते थे। यहां व्यायाम और खेलकूद का प्रशिक्षण होता था। बालमुकुंद और उनके भाई यहां जाने लगे और धीरे-धीरे महराज के प्रभाव में आने लगे।
क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत
बालमुकुंद का क्रांतिकारी जीवन तब शुरू हुआ जब उनकी मुलाकात मास्टर अमीरचंद, लाला हरदयाल और रासबिहारी बोस से हुई। इन मुलाकातों ने उन्हें क्रांतिकारी बनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने सरकारी नौकरी शुरू की लेकिन जल्द ही उसे छोड़ दिया। उनके बड़े भाई जयरामदास ने चिंता जताई और उनका विवाह रामरखी से करवा दिया। लेकिन विवाह के बाद भी उनका क्रांतिकारी जोश कम नहीं हुआ। उन्होंने और अवध बिहारी ने क्रांतिकारी साहित्य तैयार किया और उसे देशभर में वितरित किया। साथ ही, वे बम बनाने की कला भी सीखते रहे।
चांदनी चौक बम कांड
23 दिसंबर, 1912 को दिल्ली के चांदनी चौक में लॉर्ड हार्डिंग के जुलूस पर बम फेंका गया, जिसमें वायसराय बाल-बाल बचा। इस हमले में बसंत कुमार विश्वास के साथ भाई बालमुकुंद की अहम भूमिका थी। दोनों ने बुर्का पहनकर महिलाओं की भीड़ में से बम फेंका। वायसराय के बच जाने से बालमुकुंद को गहरा दुख हुआ।
बलिदान और पत्नी की वफादारी
बम कांड के बाद बालमुकुंद ने अपनी पत्नी को भाई परमानंद के परिवार के पास छोड़ा और जोधपुर में राजकुमारों के शिक्षक बन गए, ताकि लॉर्ड हार्डिंग पर दोबारा हमला कर सकें। हालांकि, उनकी योजना सफल नहीं हुई। पुलिस को लंबे समय तक बम कांड के पीछे का सच पता नहीं चला, लेकिन अंततः 16 फरवरी, 1914 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमे के बाद 8 मई, 1915 को उन्हें मास्टर अमीरचंद और अवध बिहारी के साथ दिल्ली जेल में फांसी दे दी गई। आज इस स्थान पर आजाद मेडिकल कॉलेज है। उनकी पत्नी रामरखी ने उनके शव की मांग की, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने इसे अस्वीकार कर दिया। दुखी रामरखी ने भोजन-पानी त्याग दिया और फांसी के 18वें दिन उनकी मृत्यु हो गई।
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बालमुकुंद का जन्म पाकिस्तान के जेहलम जिले के करियाला गांव के भाई मथुरादास के घर हुआ। उनका खानदान सिद्धांतों के लिए बलिदान देने की परंपरा के लिए जाना जाता था। गुरु नानक के अनुयायी मुगल उत्पीड़न के कारण तलवार उठाने को मजबूर हुए। इस परिवर्तन में बालमुकुंद के पूर्वजों का बड़ा योगदान था। उनके कुल में ही मतिदास जैसे वीर थे जिन्हें गुरु तेग बहादुर के साथ शहीद होने पर आरी से चीर दिया गया। इस बलिदान के सम्मान में गुरु गोविंद सिंह ने उनके कुल को ‘भाई’ की उपाधि दी थी। यही कारण रहा की बालमुकुंद का जीवन भी स्वतंत्रता संग्राम में समर्पण और बलिदान का प्रतीक बना।