Vishnu Shridhar Wakankar Haribhau Story: जब बात भारतीय सभ्यता की प्राचीनता और समृद्धि की आती है तो कई नाम जेहन में आते हैं। एक ऐसा ही नाम विष्णु श्रीधर वाकणकर की है। उन्हें प्यार से हरिभाऊ कहकर बुलाया जाता था। हरिभाऊ पुरातत्ववेत्ता, चित्रकार, इतिहासकार और संस्कृति के प्रबल संरक्षक थे। हरिभाऊ ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को विश्व मंच पर पहचान दिलाई। उनकी खोजों ने न केवल भारत का गौरव बढ़ाया, बल्कि दुनिया को यह दिखाया कि हमारी सभ्यता लाखों वर्ष पुरानी और असीम गहराई वाली है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक के रूप में भी उन्होंने समाज के लिए कई सराहनीय कार्य किया था।
हरिभाऊ की सबसे बड़ी उपलब्धि में भीमबेटका की गुफाओं की खोज है। ये आज यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है। इसी खोज के लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई और भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ से नवाजा गया था। हरिभाऊ केवल एक पुरातत्ववेत्ता नहीं थे। वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक के रूप में सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रहे। आइये जानें उवनी खोज और जीवन
नीमच से निकला एक सितारा
4 मई, 1919 को मध्य प्रदेश के नीमच में जन्मे हरिभाऊ बचपन से ही इतिहास, पुरातत्व और चित्रकला के प्रति गहरा लगाव रखते थे। अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद वे उज्जैन पहुंच गए। विक्रम विश्वविद्यालय में पढ़ाई के बाद उन्होंने प्राध्यापक के रूप में भी अपनी छाप छोड़ी। उज्जैन के पास पुरातात्विक खुदाई के दौरान उनकी मेहनत और लगन ने सभी को प्रभावित किया। यह वह दौर था जब हरिभाऊ ने अपने भीतर की जिज्ञासा को एक मिशन में बदल दिया।
- जन्म 4 मई, 1919 को मध्य प्रदेश के नीमच में हुआ।
- हरिभाऊ बचपन से ही इतिहास, पुरातत्व और चित्रकला के प्रति जुनूनी थे।
- उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी कर वे प्राध्यापक बने।
- उज्जैन के पास पुरातात्विक खुदाई में उनकी मेहनत ने पहचान दिलाई।
रेलगाड़ी से कूदकर भीमबेटका पहुंचे
1958 में एक रेल यात्रा उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई। रास्ते में उन्होंने कुछ अद्भुत गुफाएं और चट्टानें देखीं। सहयात्रियों से पूछने पर उन्हें पता चला कि यह भीमबेटका नामक क्षेत्र है, जहां गुफाओं की दीवारों पर रहस्यमय चित्र बने हुए हैं, लेकिन जंगली जानवरों के डर से कोई वहां जाने की हिम्मत नहीं करता। हरिभाऊ की आंखों में यह सुनकर एक चमक आ गई। ज्ञान की प्यास इतनी तीव्र थी कि चलती हुई धीमी रेलगाड़ी से कूदकर वे कई घंटों की दुर्गम चढ़ाई चढ़कर उन पहाड़ियों पर पहुंच गए।
हरिभाऊ पहाड़ियों पर पहुंचे तो गुफाओं पर बने मानव और पशुओं के अद्भुत चित्रों को देखकर वे तुरंत समझ गए कि ये लाखों वर्ष पहले यहां बसे आदिमानवों द्वारा रची गई कलाकृतियां हैं। अगले 15 वर्षों तक वे नियमित रूप से भीमबेटका आते रहे। इन प्राचीन चित्रों का गहन अध्ययन करते रहे। उनके अथक प्रयासों से ही विश्व को भीमबेटका के इन अनमोल शैल चित्रों के बारे में पता चला। इस खोज ने हरिभाऊ को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई और भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।
स्वयंसेवक के सक्रिय रहे
एक समर्पित स्वयंसेवक के रूप में हरिभाऊ सामाजिक क्षेत्र में भी सक्रिय रहे। वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद मध्य प्रदेश के अध्यक्ष रहे। जब 1966 में प्रयाग में विश्व हिन्दू परिषद का प्रथम सम्मेलन में एकनाथ रानाडे ने उन्हें प्रदर्शनी और सज्जा का महत्वपूर्ण कार्य सौंपा। इसके बाद तो ऐसे हर सम्मेलन में हरिभाऊ की उपस्थिति अनिवार्य हो गई। उन्होंने विश्व के अनेक देशों की यात्रा की और भारतीय संस्कृति, कला, इतिहास और ज्ञान-विज्ञान पर सारगर्भित व्याख्यान दिए। 1981 में जब ‘संस्कार भारती’ की स्थापना हुई, तो उन्हें इसका महामंत्री बनाया गया।
- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक के रूप में सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहे।
- ABVP मध्य प्रदेश के अध्यक्ष के रूप में युवाओं को संगठित किया।
- 1966 में प्रयाग के पहले विश्व हिंदू सम्मेलन में प्रदर्शनी और सजावट की जिम्मेदारी संभाली।
- 1981 में संस्कार भारती के महामंत्री बनकर कला और संस्कृति संरक्षण को बढ़ावा दिया।
सरस्वती की मूर्ति देख भावुक हो गए
हरिभाऊ का हृदय भारतीय संस्कृति के प्रति गहरे प्रेम से भरा था। एक बार लंदन के पुरातत्व संग्रहालय में शोध के दौरान, उन्होंने धार की भोजशाला से लूटी गई सरस्वती की टूटी मूर्ति देखी। धार में जन्मे हरिभाऊ की आंखें नम हो गईं। अगले दिन, वे मूर्ति के सामने फूल चढ़ाकर प्रार्थना करने लगे। उनकी भावनाओं से प्रभावित होकर संग्रहालय के प्रमुख ने उन्हें अंग्रेज अधिकारियों की तैयारियां दिखाईं। इनमें वास्को डी गामा की डायरी भी थी, जिसमें लिखा था कि वह एक भारतीय व्यापारी ‘चंदन’ के जहाज के पीछे चलकर कोचीन पहुंचा। हरिभाऊ ने इस ऐतिहासिक मिथक को तोड़ने की कोशिश की कि वास्को ने भारत की खोज की।
भारत की खोज का मिथक तोड़ा
एक बार लंदन के एक पुरातत्व संग्रहालय में शोध करते समय हरिभाऊ को एक मार्मिक दृश्य देखने को मिला। वहां सरस्वती की एक प्राचीन प्रतिमा रखी थी। इसको धार की भोजशाला पर आक्रमण करके मुस्लिमों ने खंडित कर दिया था। धार में ही जन्मे हरिभाऊ इस दृश्य को देखकर भावुक हो उठे। वो खंडित प्रतिमा पर एक पुष्प अर्पित कर वंदना करने लगे। उनकी आंखों में आंसू देखकर संग्रहालय का प्रमुख बहुत प्रभावित हुआ। उसने अंग्रेज अधिकारियों की पुरानी डायरियां दिखाई। यहां वास्कोडिगामा की भी डायरी थी, जिसमें उसने स्पष्ट रूप से लिखा था कि वह मसालों के एक व्यापारी ‘चंदन’ के जहाज के पीछे चलकर भारत में कोच्ची के तट पर पहुंचा था। जबकि इतिहासकार आज भी उस पुर्तगाली को भारत की खोज का श्रेय देते हैं। इसके बाद उन्होंने इस बात का प्रचार किया।
कलाकारी के साथ खत्म हुई जीवन गाथा
हरिभाऊ का जीवन कला और खोज का एक कैनवास था।ल अप्रैल 1988 में सिंगापुर में एक हिंदू सम्मेलन के लिए गए, जहां उनके होटल की बालकनी से समुद्र का मनोरम दृश्य दिखता था। 4 अप्रैल को जब वे निर्धारित समय पर सम्मेलन में नहीं पहुंचे तो लोग होटल पहुंचे। वहां हरिभाऊ बालकनी में कुर्सी पर बैठे थे, उनके घुटनों पर रखे कागज पर समुद्र का अधूरा चित्र था, और पेंसिल नीचे गिरी थी। चित्र बनाते समय हुए हृदयाघात ने इस महान साधक के जीवन को समाप्त कर दिया, लेकिन उनका योगदान अमर है।
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हरिभाऊ वाकणकर का जीवन भारतीय सभ्यता के प्रति उनकी अटूट निष्ठा और समर्पण की एक प्रेरणादायक गाथा है। उन्होंने न केवल प्राचीन इतिहास के अनछुए पहलुओं को उजागर किया बल्कि भारतीय संस्कृति और ज्ञान की गौरवशाली परंपरा को भी विश्व मंच पर स्थापित किया। हरिभाऊ वाकणकर का जीवन हमें सिखाता है कि जिज्ञासा, साहस और समर्पण से असंभव को भी संभव किया जा सकता है। भीमबेटका की गुफाएं आज भी उनकी खोज की गवाही देती हैं। उनकी सांस्कृतिक सक्रियता ने लाखों लोगों को प्रेरित किया।