कर्नाटक के रोहित वेमुला बिल पर बवाल, सामाजिक न्याय के नाम पर कांग्रेस ने चली चुनावी चाल!

यह विधेयक उस छात्र के नाम पर लाया गया है जिसकी दलित पहचान पर खुद सरकारी जांच एजेंसियों ने सवाल खड़े किए थे

कर्नाटक की कांग्रेस सरकार रोहित वेमुला के नाम पर एक नया बिल लाने जा रही है, इस बिल को नाम दिया गया है- रोहित वेमुला (बहिष्कार या अन्याय रोकथाम) (शिक्षा और गरिमा का अधिकार) विधेयक, 2025। इस प्रस्तावित कानून का उद्देश्य है कि शैक्षणिक संस्थानों में जाति और पहचान के आधार पर भेदभाव को समाप्त किया जाए और अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और अल्पसंख्यक छात्रों को समान अवसर मिलें।

हालांकि कानून का उद्देश्य सामाजिक न्याय प्रतीत होता है, लेकिन इसके नाम और समय को लेकर कई सवाल उठाए जा रहे हैं। खासकर इसलिए क्योंकि यह विधेयक उस छात्र के नाम पर लाया गया है जिसकी दलित पहचान पर खुद सरकारी जांच एजेंसियों ने सवाल खड़े किए थे।

सामाजिक न्याय या वोटबैंक साधने की कोशिश?

आलोचक दावा कर रहे हैं कि इस विधेयक के ज़रिए कांग्रेस शासित कर्नाटक सरकार 2028 के विधानसभा चुनाव से पहले SC, ST, OBC और अल्पसंख्यक समुदायों का समर्थन पुख्ता करना चाहती है। राज्य में जातिगत लामबंदी लगातार बढ़ रही है और यह कानून जातिगत अन्याय के नाम पर जनभावनाओं को छूने का एक प्रयास माना जा रहा है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की राहुल गांधी के एक पत्र पर तेज़ प्रतिक्रिया और बिल लाने की तत्परता यह भी दर्शाती है कि इस कदम के पीछे राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक समन्वय और रणनीति भी है।

रोहित वेमुला की पहचान पर उठे सवाल

यह विधेयक उस छात्र के नाम पर लाया गया है जो मूल रूप से तेलंगाना का निवासी था। रोहित वेमुला की आत्महत्या वर्ष 2016 में हुई थी। वे हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र थे और अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य थे। उन्होंने जातीय भेदभाव को लेकर आवाज उठाई थी और अपनी आत्महत्या से पहले लिखे नोट में इसे ‘जन्म की एक दुखद दुर्घटना’ कहा था।

हालांकि, बाद की जांचों ने रोहित की दलित पहचान पर सवाल खड़े किए। उनके माता-पिता के पास कोई वैध अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र नहीं था और भारत के कानूनों के अनुसार जाति की पहचान सामान्यतः पितृवंश पर आधारित होती है।

वर्ष 2024 में गाचीबौली पुलिस द्वारा दाखिल एक क्लोजर रिपोर्ट में कहा गया कि रोहित वेमुला अनुसूचित जाति से नहीं थे। 21 मार्च 2024 को दाखिल इस रिपोर्ट में बताया गया कि उनके जाति प्रमाण पत्र में गंभीर विसंगतियां हैं और कोई ठोस सबूत नहीं मिला जो उनकी SC पहचान को साबित करे।

रिपोर्ट में यह भी इशारा किया गया कि वेमुला की आत्महत्या संभवतः इस डर के कारण हुई कि उनकी जाति की असलियत उजागर हो जाएगी, न कि प्रत्यक्ष जातीय उत्पीड़न के चलते।

कड़े दंड और संभावित दुरुपयोग का खतरा

इस विधेयक का सबसे विवादास्पद हिस्सा है उसका सख्त दंडात्मक प्रावधान। इसके तहत अगर कोई शैक्षणिक संस्था भेदभाव की दोषी पाई जाती है तो उसके प्रमुख को एक साल की जेल और ₹10,000 का जुर्माना हो सकता है। इतना ही नहीं, सरकार ऐसे संस्थानों की आर्थिक सहायता भी रोक सकती है।

यह प्रावधान जहां जवाबदेही सुनिश्चित करने की कोशिश करता है, वहीं यह चिंता भी बढ़ाता है कि इसका दुरुपयोग राजनीतिक प्रतिशोध या वैचारिक असहमति दबाने के लिए किया जा सकता है। चूंकि अपराध को “गंभीर” और “गैर-जमानती” की श्रेणी में रखा गया है, इसलिए संस्थान डर रहे हैं कि कहीं वे झूठे आरोपों के शिकार न बन जाएं।

नाम बड़ा या काम? प्रतीकात्मकता बनाम वास्तविक बदलाव

कर्नाटक सरकार का यह विधेयक उच्च शिक्षा में भेदभाव खत्म करने के उद्देश्य से लाया गया है, लेकिन रोहित वेमुला की पहचान से जुड़ी कानूनी पेचीदगियों और इस विधेयक में प्रस्तावित असीम शक्तियों को देखते हुए यह सवाल उठता है — क्या यह विधेयक सच में सुधार लाने के लिए है या केवल चुनावी लाभ के लिए लाया गया है?

इस विधेयक का नाम, समय और सख्त प्रावधान यह संकेत देते हैं कि यह केवल कानून नहीं, बल्कि भावनाओं और वोटबैंक की राजनीति का मिश्रण है। जरूरी यह है कि समाज में समता और गरिमा लाने के प्रयास पारदर्शिता, संवाद और संविधानिक संरचना के दायरे में हों — न कि ऐसे कानूनों के ज़रिए जो ज्यादा भावनात्मक हों, लेकिन कानूनी रूप से कमजोर।

कर्नाटक का रोहित वेमुला विधेयक 2025 फिलहाल बहस के केंद्र में है। इसकी मंशा भले ही समानता और न्याय की हो लेकिन इसे लागू करने के तौर-तरीकों, कानूनी मजबूती और समय पर उठ रहे सवालों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह देखना अहम होगा कि क्या यह कानून छात्रों की रक्षा करेगा या शिक्षा संस्थानों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक और राजनीतिक शिकंजा बनेगा।

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