तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूं उस ओर क्या है!
जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है?
सिन्धु की नि:सीमता पर लघु लहर का लास कैसा?
दीप लघु शिर पर धरे आलोक का आकाश कैसा।
महादेवी वर्मा की इस कविता में मानवीय चिन्तन एवं उसकी अभिलाषा की असीम कल्पना का चित्रण है। मानवीय प्रवृत्ति सदा से ही सामाजिक एवं वैश्विक परिदृश्य को नवीन मानदण्डों के अनुरूप व्याख्यायित करने की रही है। इसी भाव ने समय-समय पर विश्व-व्यवस्था (WORLD ORDER) की संकल्पना प्रस्तुत की है। पाश्चात्य देशों में विश्व व्यवस्था की बात वुड्रो विल्सन, जॉर्ज डब्ल्यू एच बुश, विंस्टन चर्चिल, हार्वर्ड के सैमुअल हसिंगटन, एमआईटी के नोवाम चाश्की, हेनरी किसिंजर इत्यादि ने प्रमुखता से सामने रखी। इनकी एक प्रमुख विशेषता रही है कि यह सभी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं धार्मिक टकराव के आधार पर विश्व-व्यवस्था की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।
भारतीय सन्दर्भ में विश्व-व्यवस्था की बात प्राचीन ग्रन्थों में प्राप्त होती है। वेदों में विश्व का संचालन ऋत् द्वारा होने की बात कही गई है जिसके संरक्षक वरुण देव हैं। ऋत् जगत की नैतिक व्यवस्था का आधार था। इसके पश्चात् सामाजिक व्यवस्था को धर्म आधारित माना गया जो कि समाज के प्रत्येक व्यक्तियों के कर्तव्य एवं उनके सदाचरण पर आधारित थी। वर्तमान में जब सम्पूर्ण विश्व भीषण महामारी एवं सशस्त्र टकराव के दौर से गुज़र रहा है तो आवश्यक है कि इस आपदा से बचाव एवं आगे आने वाली पीढ़ी के सुसंस्कृत जीवन शैली का चिन्तन करते हुए व्यक्ति एवं समाज के स्वभाव के अनुरूप प्राकृतिक व्यवस्था एक दीर्घकाल से अपेक्षित है।
यह प्राकृतिक व्यवस्था योग एवं आयुर्वेद आधारित व्यवस्था ही हो सकती है जो मानव एवं समाज के स्वभाव के अनुरूप उसके स्वस्थ जीवन को निर्धारित करती है।
इस व्यवस्था में कहीं भी टकराव तथा विषमता नहीं है बल्कि एक दूसरे को जोड़कर सामञ्जस्यपूर्वक आगे बढ़ना है। इस व्यवस्था में न तो दम्भ पूर्वक श्रेष्ठता का भाव है न हीं किसी को लघु समझकर छोड़ देने की प्रवृत्ति। इस अवस्था में सभी व्यक्तियों एवं समाजों को अपनी प्रकृति जानकर उसके अनुरूप जीवन के सभी क्षेत्रों जैसे स्वास्थ, राजनीति, आर्थिक क्षेत्र, शिक्षा, संस्कृति इत्यादि का विकास करने का भरपूर अवसर प्राप्त होता है। इस व्यवस्था को समझने से पूर्व योग एवं आयुर्वेद को समझना आवश्यक है।
’योग’ शब्द संस्कृत के युजिर् योगे, न युज समाधौ धातु से बना है जिसका अर्थ जोड़ना, समाधि व समाधान है। इस प्रकार योग का भाव समग्र साहचर्य का है जहां किसी प्रकार का अंतर्विरोध नहीं है बल्कि सहज स्वीकार्यता है। व्यक्ति से व्यक्ति को जोड़ना, व्यक्ति से समाज, एक समाज से दूसरा समाज, समाज से सम्पूर्ण राष्ट्र को जोड़ना, राष्ट्र से अन्य राष्ट्र को जोड़ना तथा विश्व को समग्र प्रकृति से जोड़कर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एकत्व भाव स्थापित करना योग की जीवन दृष्टि है। योग की विशिष्टता यह है कि यह सिर्फ भाषाई विश्लेषण अथवा व्याख्यान आधारित न होकर व्यवहारिक है।
इसके अन्तर्गत शारीरिक एवं मानसिक स्तर की विभिन्न क्रियाएं सम्पादित होती रहती हैं जो व्यक्ति को व्यवहारिक जीवन की वास्तविकता का ज्ञान कराते हुए उसका आध्यात्मीकरण कर देती हैं और व्यक्ति खुद में ही देवत्व का जागरण कर लेता है। योग में सम्पूर्ण सृष्टि की समग्रता की व्यवहारिकता इस बात से भी परिलक्षित होती है कि विकास-क्रम में मानव जिन-जिन अवस्थाओं से होकर गुजरा है उन सभी के शारीरिक अवस्था के अनुरूप योग के विभिन्न आसन प्रतिपादित किए गए हैं। जैसे- मोर के अनुरूप मयूरासन, सर्प के अनुरूप भुजंगासन, मछली के अनुरूप मत्स्यासन इत्यादि। इससे स्पष्ट होता है कि यदि योग की जीवन-पद्धति को अंगीकार करें तो सम्पूर्ण सृष्टि के किसी भी जीव एवं प्रकृति में कोई विरोधाभास नहीं रह जाएगा अपितु सामञ्जस्य एवं सम्पोषणीयता वास्तविक धरातल पर होगी।
’आयुर्वेद’ शब्द आयुष + वेद शब्दों के संधि से बना है। आयुष का अर्थ है- जीवन तथा वेद का अर्थ है- विज्ञान। इस प्रकार आयुर्वेद का अर्थ हुआ ’जीवन का विज्ञान’। साधारण अर्थ में जीवन को ठीक अर्थ में जीने का विज्ञान आयुर्वेद है। सीमित अर्थ में आयुर्वेद को चिकित्सा-पद्धति से सम्बद्ध किया जाता है क्योंकि यह स्वास्थ्य रक्षा और रोग निवारण दोनों के लिए एक व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध ज्ञान प्रस्तुत करता है। वस्तुतः आयुर्वेद मनुष्य ही नहीं बल्कि प्राणी मात्र के कल्याण के लिए उनके शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक सभी पक्षों पर प्रभाव डालता है।
महर्षि चरक चरक-संहिता में आयुर्वेद को परिभाषित करते हुए कहते हैं, ’जिसमें हित आयु, अहित आयु, सुख आयु एवं दुख आयु का वर्णन हो, उस आयु के लिए हितकर व अहितकर द्रव्य, गुण, कर्म का भी वर्णन हो एवं आयु का मान व उसके लक्षणों का वर्णन हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं’। आयुर्वेद का मान्य सिद्धान्त है कि यह मनुष्य की प्रकृति के आधार पर समस्या का समाधान प्रस्तुत करता है। वर्तमान में योग वैश्विक स्तर पर काफी लोकप्रिय हो रहा है।
भारत के प्रयासों के फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 21 जून को ’अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में स्वीकार किया जाना इसकी महत्ता को प्रदर्शित करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव को 177 देशों का अभूतपूर्व समर्थन प्राप्त हुआ और इसे 11 दिसंबर 2014 को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया। यह ऐतिहासिक कदम उन आध्यात्मिक नेताओं का भी समर्थन लेकर आया, जैसे श्री श्री रविशंकर, जिन्होंने कहा था कि योग के अस्तित्व के लिए राज्य का संरक्षण आवश्यक है।
प्रधानमंत्री मोदी की दूरदर्शिता ने योग को एक वैश्विक सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में स्थापित किया। उन्होंने योग को एक सार्वभौमिक उपहार के रूप में प्रस्तुत किया, जो किसी कॉपीराइट या धार्मिक सीमाओं से मुक्त है, और जिसे सभी आयु वर्गों, धर्मों और पृष्ठभूमियों के लोग अपनाकर लाभ उठा सकते हैं। विश्व के अधिकांश देशों ने निर्विवाद रूप में इसको स्वीकार किया है। अब जब सम्पूर्ण विश्व उपरोक्त जीवन-शैली को अपनाना चाह रहा है तो यह आवश्यक है कि विश्व के समक्ष योग एवं आयुर्वेद की सम्मिलित एवं समग्र वैज्ञानिक दृष्टि प्रस्तुत की जाए।
यही व्यवस्था प्राकृतिक व्यवस्था है जो कि एकत्व का भाव प्रकट करती है। इसी का ज्ञान मनुष्य को दुख, सुख इत्यादि व्याधियों से मुक्त कर देता है। भारतीय परम्परा में वेदों में यही उद्घोष प्राप्त होता है जिसका क्रम निम्न हो सकता है-
एकम वा इदम विवभूव सर्वम।
(सबकुछ एक से ही अनेक रूप में परिणत हो गया है। जो भी भेदयुक्त दिखाई पड़ रहा है वह वस्तुत: एक से ही उत्पन्न हुआ है।)
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।
(जो परम सत् अद्वैत भाव लिए हुए है, उसे विद्वान लोगों ने भिन्न-भिन्न रूपों में उद्भाषित किया है।)
तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यत्।
(जो इस एकत्व को समझ लेता है, जान लेता है, उसे न तो मोह होता है तथा न ही शोक।) यही मानव जीवन का लक्ष्य है।
इस सन्दर्भ में भगवद्गीता कहती है ,’योग एक तकनीक है जिसके अभ्यास के द्वारा स्वास्थ्य संवर्धन किया जा सकता है एवं दुखों को समाप्त किया जा सकता है’। अतः आइए इस अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर योग एवं आयुर्वेद के सम्मिलित दर्शन को जीवन का अंग बनाएं एवं एक स्वचालित प्राकृतिक विश्व व्यवस्था के सहभागी बने।