विदुषी संवाद: धार्मिक और दार्शनिक विमर्शों में महिलाओं की भागीदारी

भारतीय संस्कृति में विदुषी संवाद

विदुषी संवाद

विदुषी संवाद: धार्मिक और दार्शनिक विमर्शों में भागीदारी

भारतीय संस्कृति में संवाद की परंपरा अत्यंत समृद्ध रही है। यह परंपरा केवल विचारों के आदान-प्रदान तक सीमित नहीं थी, बल्कि ज्ञान, तत्त्वबोध और आत्मबोध की खोज का माध्यम भी रही है। इस सांस्कृतिक धारा में ‘विदुषी संवाद’ का विशेष स्थान है, जहाँ स्त्रियाँ केवल श्रोता नहीं, बल्कि प्रश्नकर्ता, प्रश्नकर्ता से आगे बढ़कर जिज्ञासु और ज्ञानप्रदाता की भूमिका में रही हैं। ‘विदुषी’ वह नारी होती है जो विद्या, विवेक और वैदिक चेतना में पारंगत हो। भारतीय वाङ्मय में अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ वैदिक और उपनिषद् संवादों की प्रमुख स्तंभ रही हैं।

विदुषी: परिभाषा और अवधारणा

‘विदुषी’ शब्द संस्कृत मूल का है, जो ‘विद्’ धातु से बना है – जिसका अर्थ होता है ‘जानना’। विदुषी का तात्पर्य ऐसी स्त्री से है जो ज्ञान, विद्या और तत्त्वचिंतन में प्रवीण हो। यह केवल औपचारिक शिक्षा नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन, आत्मबोध, धर्म और ब्रह्मविद्या में निपुणता का परिचायक है।

“सा विद्या या विमुक्तये” – (विष्णुपुराण)

अर्थात वह विद्या है जो मोक्षदायिनी हो। ऐसी विद्या में पारंगत स्त्रियाँ ही विदुषी कही गईं।

भारतीय वैदिक परंपरा में महिलाओं ने केवल ज्ञान की साधक ही नहीं, बल्कि उसे अभिव्यक्त करने वाली विचारशील वक्ता, दार्शनिक और ब्रह्मवादिनी के रूप में भूमिका निभाई। बृहदारण्यक उपनिषद में वर्णित गार्गी वाचक्नवी और मैत्रेयी जैसे उदाहरण यह प्रमाणित करते हैं कि उस समय महिलाओं को ज्ञान के क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त थे। गार्गी वाचक्नवी ने राजा जनक की राजसभा में याज्ञवल्क्य जैसे महान ऋषि से ब्रह्म के स्वरूप पर तर्कपूर्ण संवाद किया। उनका प्रसिद्ध प्रश्न – “यद् उ तद् आख्याहि यद् अक्षरम् न व्यपदिशन्ति” – इस जिज्ञासा का द्योतक है कि वह कौन-सी सत्ता है जिसे शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता, परंतु जो सबका आधार है। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि वह ‘अक्षर’ ही ब्रह्म है – जो अवर्णनीय, अव्यक्त और सनातन है। यह संवाद केवल ज्ञान का आदान-प्रदान नहीं था, बल्कि स्त्री के दार्शनिक स्तर को उच्च शिखर पर स्थापित करता है।

इसी प्रकार, मैत्रेयी और याज्ञवल्क्य के संवाद में भी एक विदुषी का गंभीर तात्त्विक चिंतन दिखाई देता है। जब याज्ञवल्क्य सन्यास लेने लगे, तो मैत्रेयी ने संपत्ति में हिस्सा नहीं माँगा, बल्कि आत्मा और अमरत्व का ज्ञान माँगा। इस संवाद में याज्ञवल्क्य कहते हैं – “न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति“, अर्थात् सभी संबंध आत्मा के कारण प्रिय होते हैं। यह संवाद अद्वैत वेदांत के मूलभूत सिद्धांतों को स्पष्ट करता है और दर्शाता है कि महिलाएं भी उस समय दर्शन के गूढ़तम विषयों को समझने और समझाने में सक्षम थीं।

ऋग्वेद में भी ऐसी अनेक ऋषिकाओं का उल्लेख मिलता है जिन्होंने न केवल वैदिक ऋचाओं की रचना की, बल्कि जीवन, धर्म और अनुभूति पर अपने संवादों से समाज को दिशा दी। लोपामुद्रा, जो अगस्त्य मुनि की पत्नी थीं, ने ऋग्वेद (1.179) में स्त्री की इच्छा, गृहस्थ धर्म और सौंदर्य को स्वीकार्यता दिलाते हुए संवाद किया। यह वैदिक काल में स्त्री की आत्माभिव्यक्ति और यौनिकता के अधिकार को धर्मसम्मत रूप में मान्यता देने का उदाहरण है। इसी क्रम में, घोषा (ऋग्वेद 10.39–40), अपाला (ऋग्वेद 8.91), विश्ववारा (ऋग्वेद 5.28), और रोमशा जैसी ऋषिकाओं ने अपने अनुभवों, साधना और आंतरिक आत्मज्ञान को काव्यात्मक और तात्त्विक संवादों के रूप में व्यक्त किया।

भारतीय संस्कृति और पश्चिमी परंपरा – दोनों में विदुषियों की भूमिका उल्लेखनीय रही है, परंतु उनकी प्रकृति, समय, सामाजिक दृष्टिकोण, और प्रभाव में भिन्नताएँ भी दिखाई देती हैं। भारतीय परंपरा में विदुषी संवाद का उद्देश्य आध्यात्मिक और दार्शनिक रहा है, जबकि पश्चिमी परंपरा में स्त्री संवाद सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति की दिशा में केंद्रित रहा है। भारतीय संस्कृति में गार्गी और मैत्रेयी जैसी स्त्रियाँ दर्शन की ऊँचाइयों तक पहुँचती हैं, वहीं पश्चिम में स्त्रियों को प्राचीन काल में उस मंच तक पहुँचने में अत्यधिक संघर्ष करना पड़ा। भारतीय विचारधारा में ‘स्त्री-पुरुष सहधर्मी’ की अवधारणा रही, जबकि पश्चिम में यह संबंध पितृसत्ता बनाम नारीवाद की लड़ाई के रूप में उभरा। एक ओर भारतीय परंपरा में स्त्री का ज्ञान ध्यान, साधना और संवाद से जुड़ा है, वहीं पश्चिमी परंपरा में वह क्रांति, लेखन और अधिकार-प्राप्ति से।

प्रस्तुत सारणी के माध्यम से भारतीय और पश्चिमी संस्कृति में विदुषी स्थितियों एवं उनके दृष्टिकोणों को स्पष्ट किया गया है –

 

       पक्ष         भारतीय संस्कृति         पश्चिमी संस्कृति
   प्रारंभिक काल   स्त्रियों की वेद-उपनिषद में भागीदारी    स्त्रियाँ बौद्धिक विमर्श से वंचित
 संवाद का उद्देश्य      आत्मज्ञान, ब्रह्मविद्या, धर्म     अधिकार, स्वतंत्रता, पहचान
  प्रेरक व्यक्तित्व         गार्गी, मैत्रेयी, घोषा    हिपाशिया, वुल्स्टनक्राफ्ट, वूल्फ
 परंपरा का स्वरूप      संवाद, शास्त्रार्थ, तत्त्वचिंतन    लेखन, आलोचना, आंदोलन
    दृष्टिकोण     सह-अस्तित्व एवं सामंजस्य    संघर्ष और स्वतंत्रता केंद्रित
  समाज की स्वीकृति   वैदिक काल में स्वीकृति; बाद में ह्रास    धीरे-धीरे अधिकार प्राप्ति की प्रक्रिया

 

भारतीय संस्कृति में ‘विदुषी संवाद’ केवल प्राचीन इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय नहीं है, बल्कि यह आज के समाज को यह सिखाता है कि स्त्री-पुरुष दोनों को समान अधिकार, अवसर और संवाद की स्वतंत्रता होनी चाहिए। यह संवाद न केवल बौद्धिक विकास का माध्यम थे, बल्कि समाज में संतुलन, नैतिकता और आत्मज्ञान का सेतु भी थे। आज इस परंपरा के पुनरुद्धार की आवश्यकता है। विद्यालयों, विश्वविद्यालयों और समाज में स्त्रियों के विचारों और संवादों को महत्त्व देने की प्रक्रिया भी पुरातन काल की भांति पुनर्स्थापित होनी चाहिए। तभी हम पुनः एक बौद्धिक, आध्यात्मिक और नैतिक भारत की ओर अग्रसर हो सकेंगे।

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