कहानी आपातकाल की: जब नरेंद्र मोदी ने सिख के वेश में घूम-घूमकर लोकतंत्र की लौ जलाए रखी

जैसे ही देश में आपातकाल की घोषणा हुई, नागरिकों की स्वतंत्रताएं छीन ली गईं, हज़ारों विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया और RSS पर प्रतिबंध लगा दिया गया था

सिख के वेश में नरेंद्र मोदी (FILE PHOTO)

सिख के वेश में नरेंद्र मोदी (FILE PHOTO)

1975 की बात है, जब देश पर आपातकाल का साया था। हजारों आवाज़ें जेलों में बंद कर लोकतंत्र को गूंगा बना दिया गया था। उसी दौर में गुजरात की गलियों में एक 25 साल का नौजवान पगड़ी पहनकर घूम रहा था- एक सिख का वेश धरे घनी दाढ़ी वाले यह शख्स नरेंद्र मोदी थे। मोदी तब ना तो किसी गुरुद्वारे की यात्रा पर निकले थे और ना ही वह कोई संत थे। वह एक ऐसे दौर में छिपकर भाग रहे थे, जब इंदिरा गांधी सरकार ने विपक्ष को कुचलने की ठान ली थी। उनका यह वेश मजबूरी में था क्योंकि नरेंद्र मोदी को पकड़ने के लिए पुलिस जगह-जगह छापेमारी कर रही थी। मोदी तब सिर्फ अपनी जान नहीं बचा रहे थे बल्कि वे लोकतंत्र की आखिरी उम्मीदों को ज़िंदा रखने की कोशिश कर रहे थे।

एक चुपचाप चल रही क्रांति

जैसे ही देश में आपातकाल की घोषणा हुई, नागरिकों की स्वतंत्रताएं छीन ली गईं, हज़ारों विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उस समय नरेंद्र मोदी एक पूर्णकालिक प्रचारक के रूप में RSS में सक्रिय थे। जब संगठन के वरिष्ठ नेता पहले ही सलाखों के पीछे पहुंच चुके थे, तब अब निशाना बनाए जा रहे थे जमीनी स्तर के कार्यकर्ता और मोदी भी उनमें से एक थे। गिरफ्तारी से बचने और विरोध की लौ जलाए रखने के लिए मोदी ने भूमिगत जाने का फैसला किया। यह कदम सिर्फ अपनी सुरक्षा के लिए नहीं था बल्कि एक बड़े मकसद के लिए था कि आपातकाल के खिलाफ संघर्ष को जीवित रखना।

इस मिशन में खुद को छिपाने के लिए मोदी ने कई पहचानें अपनाईं। कभी वह एक सिख बने, सिर पर पगड़ी, घनी दाढ़ी और पारंपरिक पहनावा, तो कभी भगवा वस्त्रों में लिपटे एक साधु के रूप में शहरों में घूमते रहे। कभी वह मजदूर या किसी दुकान का सहायक बनकर लोगों के बीच यूं ही मिल जाते, जैसे वह कोई साधारण आदमी हों। इन बदली हुई पहचानों ने उन्हें न केवल पुलिस की नजरों से बचाया, बल्कि बिना संदेह के एक राज्य से दूसरे राज्य तक यात्रा करने में मदद की। मोदी ने सिर्फ वेशभूषा ही नहीं, बल्कि अपनी आवाज़, चाल-ढाल और रोजमर्रा की आदतें भी पूरी तरह बदल ली थीं। हर दिन नए खतरे के साथ आता था और एक छोटी सी चूक भी उन्हें सलाखों के पीछे पहुंचा सकती थी, या उससे भी कहीं ज्यादा गंभीर अंजाम हो सकता था। लेकिन उन्होंने अपने डर से ज़्यादा लोकतंत्र के प्रति अपने समर्पण को तरजीह दी।

क्यों मजबूरन छिपे थे मोदी?

25 जून 1975 की रात भारत की आत्मा पर जैसे ताला जड़ दिया गया लोगों के बोलने, लिखने, सवाल पूछने तक के हक छीन लिए गए। अख़बारों की स्याही सूखने लगी, जेलें भरने लगीं और डर पूरे देश में फैल गया। इस दौर में विपक्षी आवाज़ों को कुचलना सरकार का सबसे बड़ा उद्देश्य बन गया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और जॉर्ज फर्नांडीस जैसे दिग्गज नेता बिना मुकदमे के जेल में डाल दिए गए। हजारों छात्र, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और मजदूर सड़कों से उठाकर हिरासत में लिए गए।

सबसे कड़ी मार उन संगठनों पर पड़ी जो जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे, जिनमें RSS सबसे बड़ा नाम था। RSS पर प्रतिबंध के समय मोदी कि बेशक पहचान नहीं थी लेकिन उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण काम किया। वे ज़मीनी स्तर पर किए जा रहे प्रतिरोध का हिस्सा बन गए। उनका काम था राज्यों के बीच संदेश पहुंचाना, विरोधी साहित्य की छपाई और गुप्त वितरण और कार्यकर्ताओं को एक-दूसरे से जोड़ना। मोदी का बस एक ही काम था कि प्रतिरोध की चिंगारी बुझने ना पाए।

जलाते रहे प्रतिरोध की लौ

भूमिगत रहने के बावजूद नरेंद्र मोदी लगातार सक्रिय रहे। उन्होंने गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बीच सफर करते हुए आपातकाल के खिलाफ प्रतिरोध का संदेश फैलाने वाले लाखों प्रतिबंधित पैम्फलेट्स और पत्रिकाओं की छपाई व वितरण में अहम भूमिका निभाई। कई बार वे इन सामग्रियों को कपड़ों या बैग में छिपाकर खुद ही ले जाते थे ताकि रेलवे स्टेशनों और पुलिस चेकपोस्टों पर पकड़े जाने से बचा जा सके।

मोदी ने विपक्षी नेताओं के बीच गुप्त बैठकों के आयोजन में सहयोग किया और उन सुरक्षित ठिकानों की व्यवस्था सुनिश्चित की जहाँ आपातकाल विरोधी कार्यकर्ता मिल सकें, विश्राम कर सकें और आगे की रणनीति बना सकें। एक मौके पर तो उन्होंने उस समय के सबसे वांछित नेताओं में से एक, जॉर्ज फर्नांडिस को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाने में मदद की

हालात बेहद जोखिम भरे थे। मोदी के कई करीबी साथियों को गिरफ्तार किया गया। पुलिस को ‘प्रकाश’ नाम से हस्ताक्षरित उनके पत्र मिले और इसी नाम के आधार पर कई कार्यकर्ताओं से पूछताछ की गई। मगर मोदी हर बार पुलिस से एक कदम आगे रहते, उनकी सतत आवाजाही, समझदारी से बदले गए भेस और बेहद सतर्कता के कारण।

भय और दमन का साया

जब नरेंद्र मोदी छद्मवेश में देशभर में सक्रिय थे तब कई अन्य नेताओं को सत्ता के निर्मम दमन का शिकार बनना पड़ा। जेल में बंद जयप्रकाश नारायण की तबीयत बिगड़ गई, वहीं जॉर्ज फर्नांडिस को गिरफ्तार कर हथकड़ियों में जकड़कर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया। सैकड़ों कार्यकर्ताओं को एकांत कारावास में रखा गया, उन्हें यातनाएं दी गईं और लगातार पूछताछ से मानसिक रूप से तोड़ने की कोशिश की गई।

सरकार ने असहमति की हर आवाज़ को दबाने के लिए हर हथकंडा अपनाया, जबरन नसबंदी जैसे अमानवीय अभियान चलाए गए, लोगों को उनके घरों से बेदखल किया गया और प्रेस की स्वतंत्रता को पूरी तरह कुचल दिया गया। ऐसा लगा जैसे भारत का लोकतंत्र की सांसें रोक दी गई हों। यह जैसा एक प्रकार का राजनीतिक लॉकडाउन था, जिसमें ना तो सवाल करने की इजाज़त थी, ना ही सच्चाई कहने की।

ऐसे दमनकारी माहौल में किसी पर्चे पर भरोसा करना या एक गुप्त बैठक में हिस्सा लेना भी साहस की पराकाष्ठा थी। मोदी का भूमिगत काम, जो उस समय बहुत हद तक अज्ञात रहा, असल में उस अदृश्य प्रतिरोध तंत्र का हिस्सा था जिसने तानाशाही के खिलाफ़ लोकतांत्रिक मूल्यों की लौ को बुझने नहीं दिया।

बदले वेश में विद्रोही

भारत में आपातकाल के 50 वर्ष पूरे होने पर, जब हम आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि देखते हैं, एक वैश्विक नेता, विशाल जनसमर्थन और प्रभावशाली व्यक्तित्व के साथ, तो यह कल्पना करना कठिन लगता है कि कभी वही मोदी भीड़ में गुमनाम रहने के लिए सिख भेष-भूषा में घूमते थे, ताकि गिरफ़्तारी से बच सकें। यह उनका भूमिगत जीवन था, जो भेष बदलने, खामोश अवज्ञा और लगातार खतरे से भरा हुआ था, जो शायद सबसे कम जाना गया लेकिन सबसे निर्णायक अध्यायों में से एक है

नरेंद्र मोदी ने आपातकाल के दौरान अपने लोकतांत्रिक विश्वासों के लिए 19 महीनों तक भूमिगत रहने का फैसला किया। यह दौर केवल भागदौड़ या छिपने का नहीं था, बल्कि विचारधारा की रक्षा का था। उन्होंने अपने जीवन को खतरे में डालकर भी लोकतंत्र की रक्षा के लिए काम किया। उनकी रणनीतिक सोच, सतर्क निगरानी की समझ और आत्म-अनुशासन ने उन्हें इस संघर्ष में सफल बनाया।

मोदी की यह यात्रा हमें याद दिलाती है कि लोकतंत्र के असली रक्षक अक्सर सबसे अनपेक्षित स्थानों में होते हैं। वे कभी भीड़ में एक पगड़ीधारी अजनबी हो सकते हैं, कभी किसी सुरक्षित घर में फर्श पर सोता कार्यकर्ता हो सकते हैं, जो बिना किसी शोर के प्रतिरोध की मशाल थामे होता है। उनका संघर्ष और बलिदान हमें प्रेरित करता है कि हम लोकतंत्र की रक्षा के लिए हमेशा तैयार रहें।

Exit mobile version