नक्सलियों को बचाने की एक और कोशिश नाकाम, सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की याचिका

सुप्रीम कोर्ट ने नित्या रामकृष्णन की उस याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम-2011 को रद्द करने की मांग की गई थी।

Supreme Court

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आदिवासी विकास और काउंटर अटैक के जरिए सरकार और सुरक्षाबल नक्सलियों को खत्म करने के लिए तेज अभियान चला रहे हैं। वहीं कुछ अर्बन नक्सली या यूं कहें कि नक्सलवाद के हिमायती उन्हें बचाने के लिए लगातार कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कानून, कोर्ट और सियासत को अपना हथियार बना रखा है। हालांकि, अब इस तरह की एक कोशिश पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तलवार चला दी है। दरअसल कुछ लोग नक्सलियों के खिलाफ एक्शन के लिए बनाए गए छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 को रद्द करना के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे। इस याचिका को देश की सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 को चुनौती देने वाली एक याचिका खारिज कर दी है। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि राज्य की विधानसभा द्वारा इस अधिनियम को लागू करना, सलवा जुडूम मिलिशिया को गैरकानूनी घोषित करने वाले उसके पिछले आदेश की अवमानना नहीं है।

अब समझिए क्या है मामला?

साल 2005 में दक्षिण छत्तीसगढ़ में माओवादी विद्रोहियों के खिलाफ सलवा जुडूम का गठन किया गया। यह सरकार द्वारा प्रायोजित जवाबी कार्रवाई की रणनीति पर काम करता था। इसमें नक्सलियों के खिलाफ स्थानीय आदिवासी युवाओं को ट्रेनिंग देने के बाद हथियार दिए गए। राज्य-प्रायोजित नागरिक मिलिशिया आंदोलन पर कई तरह के आरोप लगने के बाद मामला कोर्ट पहुंचा तो अदालत ने 2011 में इसे भंग कर दिया।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद सरकार ने छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम पास कर दिया। इसके तहत सहायक सशस्त्र बलों में स्थानीय लोगों की नियुक्ति को वैध बनाना था। इसी का विरोध करते हुए कुछ कथित समाजसेवी कोर्ट पहुंचे थे। उन्होंने इसे साल 2011 के आदेश की अवमानना बताया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को सिरे से खारिज कर दिया।

याचिकाकर्ताओं की अपील

अधिवक्ता नित्या रामकृष्णन ने सुप्रीम कोर्ट में समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर, इतिहासकार रामचंद्र गुहा, पूर्व नौकरशाह ईएएस सरमा की ओर से याचिका लगाई थी। इसमें कहा गया कि छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम-2011 सर्वोच्च न्यायालय के जुलाई 2011 में नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य पर आए फैसले की अवमानना है। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि आदिवासी युवाओं को SPO के रूप में नियुक्त करना और माओवादियों के खिलाफ हथियार देने की प्रथा को असंवैधानिक ठहराया जाए। क्योंकि इसी योजना को कोर्ट ने पहले ही रद्द कर दिया था।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा- ये कोई अवमानना नहीं है

15 मई को कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए याचिका को खारिज कर दिया। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि केंद्र और छत्तीसगढ़ सरकार दोनों का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि वे क्षेत्र में हिंसा से प्रभावित लोगों के लिए शांति और पुनर्वास सुनिश्चित करें। नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में 5 जुलाई, 2011 के आदेश में विशेष पुलिस अधिकारियों का उपयोग रोका गया था। छत्तीसगढ़ राज्य का 2011 का कानून उस आदेश ओवरराइड नहीं करता है। विधानसभा द्वारा कानून बनाना अदालत की अवमानना के बराबर माना जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट की मुख्य बातें

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कोर्ट ने दी सलाह

अदालत ने अपने आदेश में कहा कि याचिकाकर्ता 2011 के कानून की वैधता को चुनौती देना चाहते हैं तो उन्हें उचित कानूनी चुनौती देनी चाहिए। क्योंकि, राज्य द्वारा की गई विधायी कार्रवाई संविधान के तहत उसकी वैध शक्ति का प्रयोग है। न्यायालय की व्याख्यात्मक शक्ति विधायी कार्यों के प्रयोग और अधिनियम को अदालत की अवमानना घोषित नहीं कर सकती है।

कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार के 2011 में बनाए कानून को अवमानना के आधार पर रद्द करने से मना कर दिया है। इससे सो कॉल्ड सेकुलर गैंग को बड़ा झटका लगा है। हालांकि, कोर्ट ने राज्य के संवैधानिक कर्तव्य पर जोर दिया। अदालत ने स्पष्ट किया कि कानून बनाना उनका वैध अधिकार है। इससे किसी को समस्या है तो वो कानूनी चुनौती दे सकता है। अब देखना होगा अर्बन माओवादी अब नक्सलवाद को बचाने के लिए कौन सा कदम उठाते हैं?

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