चौंका देंगे आंकड़े: पिछले 10 वर्षों में उर्दू के प्रचार पर सरकार ने खर्च किया हिंदी से दो गुना धन

सरकारी आंकड़ों से हुआ खुलासा: उर्दू पर ₹837 करोड़, हिंदी पर ₹426 करोड़ खर्च

चौंका देंगे आंकड़े: पिछले 10 वर्षों में उर्दू के प्रचार पर सरकार ने खर्च किया हिंदी से दो गुना धन

केंद्र सरकार ने संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार पर 2014-15 से 2024-25 के बीच कुल ₹2,532.59 करोड़ खर्च किए, जो अन्य पांच शास्त्रीय भाषाओं-तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और ओड़िया के कुल संयुक्त खर्च ₹147.56 करोड़ से 17 गुना अधिक है। इसका औसतन खर्च प्रति वर्ष संस्कृत के लिए ₹230.24 करोड़ और बाकी पांच भाषाओं के लिए केवल ₹13.41 करोड़ बनता है। इन पांच भाषाओं में तमिल को सबसे अधिक ₹113.48 करोड़ मिले, जो संस्कृत फंडिंग का मात्र 5% है। वहीं, कन्नड़ और तेलुगु को 0.5% से भी कम, और मलयालम तथा ओड़िया को 0.2% से भी कम हिस्सा मिला। तमिल को 2004 में शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिला था, जबकि संस्कृत को 2005 में वही दर्जा मिला, इसके बावजूद तमिल को 22 गुना कम फंडिंग मिली। कन्नड़, तेलुगु, मलयालम और ओड़िया, जिन्हें 2008 से 2014 के बीच यह दर्जा मिला, उनके लिए कुल ₹34.08 करोड़ ही आवंटित हुए।

संस्कृत पर हुआ खर्च हिंदी, उर्दू और सिंधी पर हुए खर्च से भी अधिक रहा, जबकि ये तीनों भाषाएं शास्त्रीय भाषाओं के अंतर्गत नहीं आती हैं। इन तीनों पर संयुक्त रूप से ₹1,317.96 करोड़ खर्च किए गए, जो संस्कृत पर हुए खर्च का करीब 52.04% है। इसमें उर्दू को ₹837.94 करोड़, हिंदी को ₹426.99 करोड़ और सिंधी को ₹53.03 करोड़ मिले। 2011 की जनगणना के अनुसार, तमिल, तेलुगु, मलयालम, ओड़िया और कन्नड़ बोलने वाले भारत की 1.2 अरब की आबादी में 21.99% हिस्सेदारी रखते हैं, जबकि संस्कृत बोलने वालों की संख्या नगण्य है। हिंदी मातृभाषा के तौर पर 43.63% और उर्दू 4.19% लोगों द्वारा बोली जाती है। मार्च 2024 में, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने संसद में सेंगोल स्थापित करने जैसे प्रतीकात्मक कदमों की आलोचना करते हुए हिंदी और संस्कृत के पक्ष में हो रही फंडिंग पर सवाल उठाया और कहा, “हिंदी को तमिलनाडु के सरकारी कार्यालयों से हटाएं और तमिल को हिंदी के समकक्ष आधिकारिक भाषा बनाया जाए, न कि संस्कृत जैसी मृत भाषा को प्राथमिकता दी जाए।”

अक्टूबर 2024 में केंद्र सरकार ने एक गजट अधिसूचना जारी कर मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया और बांग्ला को भी शास्त्रीय भाषा का दर्जा दे दिया, जिससे भारत में कुल क्लासिकल भाषाओं की संख्या 11 हो गई। हालांकि इन नई भाषाओं के प्रचार-प्रसार पर खर्च का विवरण तत्काल उपलब्ध नहीं हो सका है। केंद्र सरकार ने इस फैसले को भारत की सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के प्रयास के रूप में बताया। सरकार के अनुसार, शास्त्रीय भाषाएं भारतीय सभ्यता की ऐतिहासिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपराओं की संरक्षक हैं और अगली पीढ़ियों को भारत की गहरी ऐतिहासिक जड़ों से जोड़ने का माध्यम हैं। शुरुआत में 2004 और 2005 में गृह मंत्रालय ने तमिल और संस्कृत को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया था, लेकिन बाद में संस्कृति मंत्रालय को यह जिम्मेदारी दी गई। इसके अलावा, शिक्षा मंत्रालय (MoE) क्लासिकल भाषाओं के प्रचार हेतु विश्वविद्यालयों, परिषदों और संस्थानों के माध्यम से विभिन्न योजनाएं संचालित करता है।

संस्कृत भाषा के प्रचार के लिए केंद्र सरकार ने 2020 में “केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय अधिनियम” के तहत तीन विश्वविद्यालय स्थापित किए, जो नई दिल्ली और तिरुपति में स्थित हैं। इन संस्थानों को डिग्री, डिप्लोमा और सर्टिफिकेट कोर्सों के लिए फंडिंग दी जाती है। दूसरी ओर, मैसूर स्थित “भारतीय भाषाओं का केंद्रीय संस्थान” (CIIL) सभी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ चार शास्त्रीय भाषाओं––कन्नड़, तेलुगु, मलयालम और ओड़िया––के प्रचार में भी सक्रिय है। इसकी सात क्षेत्रीय भाषा इकाइयाँ पूरे देश में शिक्षकों को प्रशिक्षण देने और भाषा नीति लागू करने का कार्य करती हैं। शिक्षा मंत्रालय अनुसूचित भाषाओं––जैसे हिंदी, उर्दू और सिंधी––के लिए भी योजनाएं चलाता है। 2025-26 के बजट में “भारतीय भाषा पुस्तक योजना” (BBPS) की घोषणा की गई है, जिसके तहत 22 भारतीय भाषाओं में डिजिटल रूप में स्कूल और उच्च शिक्षा स्तर की पाठ्यपुस्तकों की उपलब्धता सुनिश्चित की जाएगी। गौरतलब है कि पाली और प्राकृत को शास्त्रीय दर्जा तो मिल चुका है लेकिन वे अनुसूचित भाषाओं की सूची में शामिल नहीं हैं।

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