रविवार की सुबह जब लोग सो कर उठे (ज़्यादातर लोग रविवार को देर तक सोने के लिए इस्तेमाल करते हैं) तो उन्हें ईरान-इजराइल के बीच जारी जंग में अमेरिका के कूदने की जानकारी मिली। एक अप्रत्याशित हमले में अमेरिकी B2 स्टील्थ बॉम्बर्स ने ईरान के फोर्दो, नतांज और इस्फ़हान के परमाणु ठिकानों पर बम बरसाए। कहा जा रहा है कि इन B2 बॉम्बर्स ने मिज़ौरी के वाइटमैन एयर बेस से उड़ान भरी थी और क़रीब 12 हज़ार किलोमीटर की दूरी तय कर इन्होने फोर्दो समेत दूसरे ठिकानों पर 6 GBU-57 बम गिराए। क़रीब 14 टन वजनी GBU-57 को बंकर बस्टर्स भी कहा जाता है और ये ज़मीन के अंदर 200 फ़ीट नीचे पेनिट्रेट कर वहां मौजूद टार्गेट को तबाह कर सकते हैं।
यही नहीं ये बम क़रीब 60 फ़ीट मोटी कॉन्क्रीट के स्ट्रक्चर को भी आसानी से भेद सकते हैं। जानकारी के मुताबिक़ फोर्दो में ईरान के परमाणु संयंत्र पहाड़ में क़रीब 80/90 मीटर यानी 300 फ़ीट की गहराई पर हैं। ऐसे में बड़ी संभावना है कि इन बंकर बस्टर्स बम ने फोर्दो के प्लांट को पूरी तरह तबाह कर दिया हो। कम से कम अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प का तो यही दावा है। इसके अलावा अन्य ठिकानों पर 30 टॉमहॉक क्रूज़ मिसाइलें भी दाग़ी गईं, जिनसे नतांज और इस्फ़हान के ठिकानों को भी भारी नुक़सान पहुंचा है। हालांकि इज़राइल पहले से ही इन ठिकानों को लगातार निशाना बना रहा था, लेकिन फोर्दो जैसी भूमिगत फैसेलिटी पर हमले के लिए उसके पास तकनीकी या क्षमता नहीं थी, लिहाजा उसके लिए ये काम अब अमेरिका द्वारा कर दिया गया है।
हालांकि ट्रम्प ने इससे पहले ईरान को 2 हफ्तों की समय सीमा दी थी, लेकिन संभवतः फोर्दो में बड़े पैमाने पर हलचल देख (या ईरान को चौंकाने के लिए) उन्होने दो दिन के अंदर ही ईरान पर हमले का आदेश दे दिया। डॉनल्ड ट्रम्प के अब तक के शासन में (पहला कार्यकाल और वर्तमान) ये पहली बार हुआ है, जब अमेरिका सीधे किसी जंग में उतरा हो और किसी बड़े मुल्क पर इतना बड़ा हमला किया गया हो।
ज़ाहिर है इस हमले ने ईरान को गहरी क्षति पहुंचाई है और और अब ईरान भी आत्मरक्षा के अधिकार के तहत जवाबी हमले का ऐलान कर चुका है। दरअसल, पलटवार ईरान की मजबूरी भी है, क्योंकि अगर वहां के इस्लामिक शासन को अपनी साख और सत्ता बचाए रखनी है तो उसे इस हमले का पूरी ताक़त के साथ जवाब देना होगा। लेकिन बड़ा सवाल है कि ईरान का जवाब क्या होगा ? क्या वह मिडिल ईस्ट में फैले अमेरिकी सैन्य अड्डों पर हमला करेगा या फिर दुनिया के सबसे संवेदनशील समुद्री मार्ग – स्ट्रीट ऑफ हॉर्मुज़ – को अपना रणनीतिक हथियार बनाएगा?
मिडिल ईस्ट में अमेरिकी सैन्य ठिकाने और ईरान की रेंज
पूरे मिडिल ईस्ट में अमेरिका की सैन्य मौजूदगी काफी व्यापक है। इराक, कुवैत, बहरीन, कतर, सऊदी अरब, जॉर्डन, सीरिया, साइप्रस और तुर्किए जैसे देशों में अमेरिका के क़रीब 20 स्थाई और अस्थाई सैन्य ठिकाने हैं। CNN के अनुसार इन ठिकानों पर क़रीब 40,000 अमेरिकी सैनिक तैनात हैं, जिनमें 2,500 से अधिक सैनिक इराक में और क़रीब 9,000 सैनिक बहरीन में मौजूद हैं, जहां अमेरिका का एक नेवल हेडक्वार्टर भी मौजूद है। इन सैन्य ठिकानों में अमेरिका के अरबों डॉलर के हथियार और हाईटेक सैन्य साजो-सामान की तैनाती है और ये सभी ठिकानें ईरानी बैलिस्टिक मिसाइलों की रेंज में हैं। ऐसे में काफी हद तक संभव है कि ईरान पलटवार के तौर पर इन ठिकानों को निशाना बनाने की सोचे।
वैसे भी ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराकची इसके स्पष्ट संकेत दे चुके हैं और उन्होने कहा था कि अमेरिका के इस कदम (परमाणु ठिकानों पर हमले) का असर ‘हमेशा के लिए’ रहेगा और ईरान अपनी ‘संप्रभुता और हितों की रक्षा के लिए हर विकल्प पर विचार करेगा।’ लेकिन ईरान के लिए ये विकल्प चुनना आसान नहीं होगा- क्योंकि अमेरिका पहले ही ईरान को चेतावनी दे चुका है कि अगर उसके ठिकानों पर हमला हुआ तो नतीजा और भी ख़तरनाक साबित होगा। ऐसा करने पर ईरान के अमेरिका के साथ सीधी जंग में उलझने का खतरा भी बढ़ेगा और मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों को देखते हुए इसकी संभावना काफी ज्यादा है कि ईरान को अपने मित्र देशों (रूस-चीन) से कोई भी सीधी मदद न मिले। ऐसे में ईरान दूसरे विकल्प की तरफ़ बढ़ सकता है- जो है स्ट्रेट ऑफ हॉर्मुज़ में अपनी प्रभावशाली स्थिति का इस्तेमाल।
स्ट्रेट ऑफ हॉर्मुज़: ईरान का स्ट्रैटेजिक प्रेशर प्वाइंट
सीधा सैन्य हमला एक विकल्प हो सकता है, लेकिन ईरान के पास इससे भी बड़ा रणनीतिक हथियार है – स्ट्रीट ऑफ हॉर्मुज़। यह संकीर्ण जलमार्ग ओमान की खाड़ी को फारस की खाड़ी से जोड़ता है, और दुनिया के कुल तेल निर्यात का लगभग 20% यानी रोज़ाना क़रीब 2 करोड़ बैरल तेल यहीं से गुजरता है। इराक़ से लेकर सऊदी अरब, बहरीन, ओमान, कतर, कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश अपना तेल यूरोप और दुनिया के दूसरे हिस्सों तक पहुंचाने के लिए इसी संकरे समुद्री रास्ते का इस्तेमाल करते हैं।
इस समुद्री मार्ग का उत्तर तट पूरी तरह ईरान के नियंत्रण में है और ईरान ने यहां कई नौसैनिक अड्डे (बंदर अब्बास, जस्क, किश द्वीप) बना रखे हैं, जहां बड़ी संख्या में मिसाइल बोट्स, जंगी जहाज़, टॉरपीडो, समुद्री माइंस और एंटी-शिप मिसाइलें तैनात हैं। ईरान के पास 3,000 से अधिक नेवल माइंस हैं, जिनका इस्तेमाल कर वो कभी भी इस प्रेशर प्वाइंट को आसानी से चोक कर सकता है। ईरान की ये यह रणनीति अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए बहुत बड़ा सिरदर्द बन सकती है क्योंकि इससे न सिर्फ वैश्विक तेल आपूर्ति प्रभावित होगी, बल्कि कच्चे तेल की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी होगी और पूरी ग्लोबल इकॉनमी संकट में आ सकती है। खासकर रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते पहले ही ‘एनर्जी क्राइसिस’ झेल रहे यूरोप के लिए ये दोहरा संकट होगा।
हालांकि ऐसी किसी स्थिति से निपटने के लिए अमेरिका ने इस रीज़न में अपने दो कैरियर बैटल ग्रुप- ‘हैरी एस ट्रूमैन’ और ‘कॉर्ल विंसन’ तैनात कर रखे हैं। ज़रूरत पड़ने पर यूएनएस अब्राहम लिंकन को भी वहां भेजा जा सकता है। ज़ाहिर है ये पूरी तैयारी ख़ासकर ईरान को ध्यान में रखते हुए ही की गई है। लेकिन ईरान की मज़बूत रणनीतिक स्थिति, समुद्री माइंस और उसके मिसाइल जख़ीरे को देखते हुए हॉर्मुज की खाड़ी को उसके शिकंजे से आज़ाद कराना आसान नहीं होगा।
ज़ाहिर है हॉर्मुज स्ट्रीट पर कब्जे की लड़ाई जितनी लंबी चलेगी, अमेरिका और उसके सहयोगियों पर बाक़ी दुनिया का दबाव भी उतना ही ज्यादा बढ़ेगा और भारत- जापान-चीन जैसे देश- जो ईरान के इस कदम से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे, वो युद्ध रुकवाने की हर मुमकिन कोशिश करेंगे। यानी ईरान के पास सैन्य और रणनीतिक दोनों ही स्तरों पर जवाब देने के विकल्प हैं। मिडिल ईस्ट में अमेरिका के सैन्य अड्डे अगर उसकी सीधी रेंज में हैं, तो स्ट्रीट ऑफ हॉर्मुज़ उसका सबसे अहम रणनीतिक हथियार है।
एक रास्ता ये भी है कि ईरान अपनी जनता को मैसेज देने के लिए प्रतीकात्मक रूप से अमेरिकी ठिकानों पर कुछ हमले करे (ये सुनिश्चित करते हुए इससे अमेरिका को ख़ास नुक़सान न हो)। जनरल क़ासिम सुलेमानी का हत्या के बाद ईरान ने कुछ ऐसा ही किया था और तब ये इलाका एक बड़ी जंग में झुलसने से बच गया था। लेकिन इस बार इसकी संभावनाएं कम ही दिखती हैं, क्योंकि नेतन्याहू और ट्रंप का मुख्य लक्ष्य अब ईरान को परमाणु विहीन करने से कहीं आगे बढ़ चुका है और अब वो अयातोल्ला शासन के खात्मे की प्लानिंग कर रहे हैं। ऐसे में मामला सिर्फ ईरान की संप्रभुता का नहीं बल्कि वहां इस्लामिक सत्ता की सलामती का भी है।
ऐसे में अब ईरान के इस्लामिक शासन को ये तय करना है कि वो किस विकल्प का इस्तेमाल करेगा इस तनाव को कितना और किस तरह से आगे बढ़ाएगा?